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इस साल की शुरुआत में अमेरिका में जन्मे कार्डिनल रॉबर्ट प्रोवहस्ट कैथोलिक चर्च के पोप चुने गए. यह एक ऐतिहासिक बात थी क्योंकि कैथोलिक चर्च का नेतृत्व संभालने वाले वह पहले अमेरिकी हैं.
जब वह पोप लिओ 14वें के रूप में पोप की पारंपरिक पोशाक पहन कर सेंट पीटर्स बासिलिका की बालकनी में आए तो कई रूढ़िवादियों को लगा कि उनका इस पद पर आसीन होना कैथोलिक चर्च को दोबारा परंपरागत मूल्यों की ओर ले जाएगा जबकि उनके पूर्ववर्ती पोप फ़्रांसिस के नेतृत्व में सामाजिक न्याय को प्राथमिकता दी जाती थी.
दरअसल पोप फ़्रांसिस के सामाजिक न्याय प्रधान नेतृत्व को लेकर लोगों का मत विभाजित था. कुछ लोग समलैंगिकता जैसे मुद्दों पर उनकी उदारवादी सोच की प्रशंसा करते थे तो कुछ का मानना था कि उन्होंने वोक (या जागृत) बनने या सामाजिक जागरूकता को बढ़ावा देने के चक्कर में परंपरागत मूल्यों से किनारा कर लिया है.
पोप लिओ के चयन के छह महीने बाद पर्यावरण के संरक्षण के लिए ग्रीनलैंड के एक हिमखंड को आशीर्वाद देने के लिए ‘मेक अमेरिका ग्रेट’ आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने उनकी आलोचना की है.
वहीं समलैंगिक या एलजीबीटीक्यू संबंधों के प्रति उनके रुख़ से भी लगता है कि उनका नेतृत्व पोप फ़्रांसिस से मिलता-जुलता है. पोप लिओ भी विविधता, समानता और सबको साथ लेकर चलने पर बल दे रहे हैं मगर इसका यह मतलब नहीं है कि वह पोप फ़्रांसिस की कार्बन कॉपी होंगे.
वह पोप की हैसियत से तुर्की और लेबनान की यात्रा करने वाले हैं जिससे संकेत मिलता है कि वह व्यवहारिक और संतुलित रास्ता चुन सकते हैं.
इसके चलते दोबारा इस सवाल पर चर्चा हो रही है कि वोक यानी जागरूक नज़रिये के प्रति उनका क्या रुख़ होगा. इसलिए दुनिया जहान में हम यही जानने की कोशिश करेंगे कि क्या पोप वोक या जागृत हैं?

वोक रुख़
दरअसल वोक क्या है? और वोकनेस (या जागृति) को कैसे परिभाषित किया जाता है? इस बारे में हमने बात की मैसिमो फ़ैजियोली जो इटली के एक शिक्षाविद हैं. वह डबलिन के ट्रिनिटी कॉलेज में ईसाई चर्च के इतिहास और स्वरूप के प्रोफेसर हैं.
उन्होंने कहा, “वह ताकतवर सामाजिक ढांचे जो नस्ल और लैंगिकता से जुड़े मामलों को प्रभावित करते हैं – उन्होंने हमारी संवेदनाओं को सुन्न कर दिया है. वोकनेस होने का अर्थ है कि हमें जागरूक होकर इन संवेदनाओं को जगाना होगा जिसके लिए कई परिवर्तन लाने वाले कदम उठाने की ज़रूरत है. इसके लिए राजनीति, समाज और संस्कृति में पारिवारिक संबंधों और लैंगिक संबंधों को देखने के अपने नज़रिए में बदलाव लाने की ज़रूरत है.”
यह तो वोकनेस की एक सकारात्मक परिभाषा है. लेकिन वोकनेस की एक नकारात्मक परिभाषा भी है जिसे आरोप या तिरस्कार की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है.
मैसिमो फ़ैजियोली कहते हैं, “वोकनेस को उथलपुथल मचाने वाली, सड़कों पर हिंसा फैलाने वाली और परिवार के ढांचे को तितर-बितर करने वाली सोच की तरह भी देखा जाता है. लैंगिक संबंधों और अन्य मामलों में इसे सरकार के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने वाली और कैथोलिक चर्च के मूल्यों को चुनौती देने वाली सोच की तरह भी परिभाषित किया जाता है.”
हाल के सालों में दो अलग पोपों का इक्कीसवीं सदी में आ रहे बदलावों की ओर बिल्कुल अलग रुख़ रहा है.

2005 में पोप बेनेडिक्ट 16वें ने कैथोलिक चर्च का नेतृत्व संभाला था उसके बाद यह नेतृत्व पोप फ़्रांसिस के हाथ में आया.
मैसिमो फ़ैजियोली के अनुसार, “पोप बेनेडिक्ट 16वें एक जर्मन शिक्षाविद थे. वह मानते थे कि पश्चिमी संस्कृति की केवल हिंसा या उपनिवेशवाद के आधार पर पूरी तरह भर्त्सना करना ग़लत है.”
“जब कि पोप फ़्रांसिस अर्जेंटीना के एक धर्मगुरू थे और उन्हें सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ता के रूप में भी देखा जाता था. वह पश्चिमी ईसाई और पूंजीवादी संस्कृति को अन्य संस्कृतियों से अधिक महत्व नहीं देते थे.”
“मगर दोनों ही पोप ईसाई मूल्यों के प्रति पूरी तरह समर्पित थे. हो सकता है जिसे हम वोकनेस कहते हैं उसकी जड़ें ईसाई मूल्यों और परंपरराओं में भी हों.”
मैसिमो फ़ैजियोली के अनुसार उन्नीसवीं सदी में कैथोलिक धर्म की शिक्षा में अमेरिकी समाज के भीतर पूंजीवाद और नस्लवाद से जुड़े अन्यायों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की परंपरा रही है. इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि वर्तमान वोक आंदोलन के तार कैथोलिक मूल्यों से जुड़े हुए हैं.
जब लोग यह पूछते हैं कि क्या पोप लिओ वोक हैं तो दरअसल वह यह समझना चाह रहे होते हैं कि पोप लिओ पोप फ़्रांसिस जितने ही वोक हैं या कुछ ज्यादा वोक हैं?
पोप फ़्रांसिस के बारे में मतभिन्नता

अमेरिका स्थित दी पोंटिफ़िकल मिशन सोसायटी के सूचना विभाग की उपाध्यक्ष इनेज़ सैन मार्टिन अर्जैंटीना की रहने वाली हैं और एक पत्रकार के रूप में पोप फ़्रांसिस के कार्यकाल में वैटिकन मामलों की रिपोर्टिंग करती रही हैं और उनके साथ कई यात्राओं पर गई हैं.
वह कहती हैं कि पोप फ़्रांसिस विवादों से नहीं डरते थे. न ही वह ऐसे फ़ैसले करने से कतराते थे जिन्हें भ्रामक माना जा सकता हो. इसी के चलते उन्होंने समलैंगिक संबंधों को भी आशीर्वाद दिया.
वह बताती हैं कि सभी अफ़्रीकी देशों के चर्चों ने पोप फ़्रांसिस को ज्ञापन भेजा कि वह समलैंगिक सबंधों को धार्मिक मंज़ूरी नहीं दे सकते. पोप फ़्रांसिस ने उन्हें जबाव दिया कि वह चाहें तो इसे मानने से इनकार कर सकते हैं. यही पूर्वी यूरोप और कई एशियाई देशों में भी हुआ.
इसी प्रकार उन्होंने तलाक ले चुके कैथोलिकों को चर्च में पुनर्विवाह की स्वीकृति भी दे दी. यूरोपीय देशों के कुछ कार्डिनलों ने पोप फ़्रांसिस को पत्र लिख कर कहा कि वह कैथोलिक ईसाई धर्म के मूल्यों को बदल रहे हैं. मगर पोप फ़्रांसिस अपने फ़ैसले पर अड़े रहे.
मार्टिनन कहती हैं, “मुझे यह भी लगता है कि उनके कई फ़ैसले ग्लोबल साउथ के उनके अनुभवों से प्रेरित थे और उन्होंने दूसरे क्षेत्रों की मान्यताओं को तरजीह नहीं दी.”
पोप फ़्रांसिस के कई फ़ैसलों की रूढ़िवादियों ने आलोचना की.
इनेज़ सैन मार्टिन मानती हैं कि कई बार पोप फ़्रांसिस ने उनकी आपत्तियों पर ध्यान देने या उन्हें अपना तर्क समझाने की कोशिश नहीं की. उनके फ़ैसले सही हों या ग़लत लेकिन एक बात सच है कि उन्होंने कैथोलिक चर्च की विचारधारा में मतभेद ज़रूर पैदा कर दिए.
मार्टिन ने कहा, “आज कैथोलिक चर्च में काफ़ी ध्रुवीकरण हो चुका है. काफ़ी हद तक पोप फ़्रांसिस इसके लिए ज़िम्मेदार हैं. वर्तमान दुनिया में सोशल मीडिया की वजह से यह मतभेद खुल कर सामने आ गए हैं. मेरे ख़्याल से यह एक गंभीर समस्या है और उनके उत्तराधिकारी पोप लियो इस बात से अवगत हैं.”
पोप लियो के पहले कदम
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अमेरिका की जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में इनीशिएटिव ऑन कैथोलिक थॉट ऐंड पब्लिक लाइफ के सह निदेशक क्रिस्टोफ़र व्हाइट के अनुसार पोप लियो के नेतृत्व के कई सामाजिक उद्देश्य हैं.
वह कहते हैं कि पोप लियो का लक्ष्य विश्व में ग़रीबी उन्मूलन और शांति स्थापना के लिए कैथोलिक चर्च के प्रभाव का इस्तेमाल करना है. वहीं वह पर्यावरण के मुद्दे को भी बड़ा महत्व दे रहे हैं. एक तरह से पोप फ़्रांसिस की नीतियों को जारी रखा जा रहा है लेकिन पोप लियो के नेतृत्व में उन प्रयासों का अपना-अलग स्वरूप होगा.
क्रिस्टोफ़र व्हाइट बताते हैं हालांकि कि पोप लियो अमेरिका में पैदा हुए और अमेरिकी नागरिक हैं लेकिन उन्होंने एक पादरी की हैसियत से पेरू में भी निष्ठा के साथ काम किया और दोहरी नागरिकता अपना ली. पोप का चुनाव करने वाले कार्डिनलों ने उनके इन अनुभवों को और पोप के कार्यालय की कार्यप्रणाली की उनकी समझ को ध्यान में रख कर उनका चयन किया.
कई मुद्दों पर उनके विचार अमेरिकी प्रशासन की सोच के विरुद्ध भी हैं. यहां तक कि रोम पहुंचे अमेरिकी कैथोलिक धर्मगुरुओं से उन्होंने अपील की कि जिन प्रवासियों को अमेरिकी सरकार देश से बाहर निकाल रही है वह उनके समर्थन में आवाज़ उठाएं.
उन्होंने कहा कि वह गर्भपात विरोधी नीति का समर्थन करते हैं और मृत्युदंड का विरोध करते हैं लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि प्रवासियों के भविष्य का मुद्दा भी जीवन को कायम रखने का मुद्दा ही है. यह सभी मुद्दे जीवन समर्थक सिद्धांत पर आधारित हैं.

क्रिस्टोफ़र व्हाइट कहते हैं कि हाल के समय में ऐसे दो मामले हुए हैं जब पोप लियो ने अपने देश अमेरिका के घरेलू मुद्दों पर हस्तक्षेप किया है. एक तो स्थानांतरण का मुद्दा था और दूसरा मुद्दा एक ऐसे अमेरिकी सीनेटर को पुरस्कार दिए जाने का था जो प्रवासियों के हितों के समर्थक हैं और साथ ही महिलाओं के गर्भपात के अधिकार के समर्थक भी हैं.
उसी प्रकार उन्होंने समलैंगिकों या एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों को पादरी बनाए जाने का भी समर्थन किया. अमेरिका में कई दक्षिणपंथी रूढ़िवादी कैथोलिक उनके इस रुख़ से ख़ुश नहीं होंगे.
क्रिस्टोफ़र व्हाइट ने बताया कि पोप लियो ने अमेरिका के एक पादरी फ़ादर जेम्स मार्टिनर से मुलाक़ात की जो कैथोलिक समलैंगिक समर्थक गुटों के प्रबल सहयोगी रहे हैं. पोप लियो ने उन्हें आशीर्वाद देकर आश्वासन दिया कि वह पोप फ़्रांसिस द्वारा अपनाए रास्ते पर कायम रहेंगे. लेकिन वह स्थानीय पादरियों का अधिकार क्षेत्र बढ़ाना चाहेंगे और कैथोलिक मामलों में हाशिये पर रहे लोगों की भूमिका भी चाहेंगे.
क्या यह वोकनेस नहीं है? एक ऐसे पोप जो ग़रीबों के अधिकार और पर्यावरण को पूंजीवादी सोच और नीतियों से कहीं अधिक महत्व देते हैं. यहां तक कि उन्होंने ग्रीनलैंड के एक हिमखंड को आशीर्वाद दे दिया जिससे ‘मेक अमेरिका ग्रेट’ आंदोलन के कार्यकर्ता चिढ़ गए हैं.
क्रिस्टोफ़र व्हाइट मानते हैं कि जो मुद्दे अफ़्रीका के लिए महत्वपूर्ण हैं वह ज़रूरी नहीं कि अमेरिका के लिए भी महत्वपूर्ण हों. उसी प्रकार हो सकता है अमेरिका के मुद्दे अफ़्रीका के लिए महत्वपूर्ण न हों.
“पोप मानते हैं कि इसमें कोई हर्ज नहीं है. वह समझते हैं विचारों में भिन्नता भाईचारे के आड़े नहीं आनी चाहिए. हमें अफ़्रीका में जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे अपने अफ़्रीकी भाई-बहनों का साथ देना चाहिए. वह इन दोनों विश्वों के बीच पुल बांधना चाहते हैं.”
चर्चा का नया स्वरूप
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कैथोलिक समाचार संस्था क्रक्स की वरिष्ठ संवाददाता इलीज़ ऐन अलेन पोप लियो को तब से जानती हैं जब वह पेरू में पादरी थे. उन्होंने पोप लियो के सहयोग से एक किताब लिखी है जिसका नाम है ‘लियो 14: सिटिज़न ऑफ़ दी वर्ल्ड मिशनरी ऑफ़ 21st सेंचुरी”.
वह कहती हैं कि पोप लियो पोप फ्रांसिस की तरह साहसी और प्रगतीशील पोप हैं मगर वह महज़ दूसरे पोप फ़्रांसिस नहीं बल्कि उनकी अपनी अलग सोच है और काम करने की अलग शैली है.
उन्होंने आगे कहा कि पोप लियो के कई कामों से कुछ लोगों को तकलीफ़ होती है. मिसाल के तौर पर स्थानांतरण और जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर उनके रुख़ से अमेरिका के रूढ़ीवादी लोगों को परेशानी होगी.
एलजीबीटी क्यू और महिलाओं के मामलों पर उन्होंने कैथोलिक चर्च का रुख स्पष्ट कर दिया है जिससे रूढ़िवादी और उदारवादी दोनों को ही कुछ समस्या होगी या उनका रवैया पेचीदा लगेगा. वह पोप फ़्रांसिस की विचारधारा को जारी रखेंगे लेकिन उन पर अमल करने का उनका अपना तरीका होगा.
आने वाले समय में लोग यह भी देखना चाहेंगे कि क्या वह भी पोप फ़्रांसिस की तरह अपनी सोच का विरोध करने वालों को दरकिनार करेंगे?
इलीज़ ऐन अलेन कहती हैं कि पोप फ़्रांसिस कई बार अपने आलोचकों या विरोधियों का बहिष्कार कर देते थे और प्रतिशोधी भावना से उनके ख़िलाफ़ कार्यवाही करते थे मगर पोप लियो ऐसा नहीं करते.
वह कहती हैं पोप लियो हमेशा आम सहमति बनाने में कामयाब होते रहे हैं और चर्च में दरार डालने से बचते रहे हैं. पोप फ़्रांसिस ने लैटिन मास पर रोक लगा दी थी. क्या पोप लियो उस फ़ैसले को बदलेंगे?

अलेन का कहना है कि लैटिन मास की मान्यता की मांग करने वाले कई लोगों से पोप ने मुलाक़ात तो की है मगर कोई फ़ैसला नहीं किया है. क्या पोप लियो अमेरिका सहित कई देशों में प्रवासन विरोधी राजनीति और बढ़ती राष्ट्रवादी सोच के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाएंगे?
अलेन के अनुसार पोप जानते हैं कि इस मुद्दे पर कुछ करने के लिए लोगों की उनसे अपेक्षा है क्योंकि वह ख़ुद एक अमेरिकी हैं, “इस नाते वह राष्ट्रपति ट्रंप से किसी अन्य की तुलना में अधिक बेहतर तरीके से बात कर पाएंगे. साथ ही वह यह भी जानते हैं कि इसकी आलोचना भी होगी. इस मामले में वह राजनीतिक तरीके से नहीं सोचते. पोप फ़्रांसिस इस मामले में कहीं अधिक राजनीतिक दृष्टिकोण रखते थे. उन्होंने मुझसे कहा था कि कम से कम इस मुद्दे पर अमेरिका उनसे यह नहीं कह पाएगा कि वह भी पोप फ़्रांसिस की तरह अमेरिका को नहीं समझते.”
दरअसल पोप अधिक वोक नहीं बन रहे बल्कि कैथोलिक चर्च का स्वरूप बदल रहा है पहले के मुकाबले अब उसका पश्चिमीकरण कम हो गया है.
अलेन ने कहा कि कैथोलिक चर्च अब केवल एक पश्चिमी संस्था नहीं है बल्कि ग्लोबल साउथ की संस्था बनती जा रही है. “पश्चिम में कैथोलिकों की संख्या घटती जा रही है लेकिन अफ़्रीका, एशिया और लातिन अमेरिका में चर्च के अनुयाइयों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है. अनुमान है कि 2050 तक विश्व के तीन चौथाई कैथोलिक दक्षिणी गोलार्ध के देशों में होंगे. पोप फ़्रांसिस ने कई मामलों में ग़ैर पश्चिमी रुख़ अपनाया था और शायद यही वजह है कि कई कैथोलिक उनके विचारों से नाराज़ हो गए थे. मगर दुनिया में आ रहे बदलावों के साथ साथ चर्च भी बदल रहा है. पोप फ़्रांसिस ने चर्च में लातिन अमेरकी परिप्रेक्ष्य को जगह दी थी जिससे पता चलता है चर्च किस दिशा में जा रहा है.”
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तो लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर- क्या नए पोप वोक हैं?
अगर वोक का अर्थ राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित प्रगतिशील सोच के रास्ते पर चलना और इसका विरोध करने वालों को दरकिनार करना है तो पोप वोक नहीं हैं. लेकिन अगर वोक का मतलब समाज के ढांचों में रची बसी अन्याय पर आधारित व्यवस्था को तोड़ना है, ग़रीबों को लाभ पहुंचाना और स्थानांतरित लोगों का स्वागत करना है, कैथोलिक एलजीबीटीक्यू समुदाय को चर्च में शामिल करना और पर्यावरण की रक्षा की बात करना है तो नए पोप फ़क़्र से ख़ुद को वोक कहने को तैयार हो जाएंगे.
एक बात स्पष्ट है कि पोप लियो पोप फ़्रांसिस की कार्बन कॉपी नहीं हैं. वह किसी एक राजनीतिक विचारधारा की तरफ़ झुकाव नहीं रखते बल्कि कैथोलिक मूल्यों पर आधारित दिशा चुनते हैं. वह न तो चर्च को दक्षिण पंथ की ओर ले जा रहे हैं न वामपंथ की ओर बल्कि वह चर्च को आगे की ओर ले जा रहे हैं – बदलती दुनिया की उस दिशा में जहां कैथोलिक धर्म तेज़ी से फल-फूल रहा है.
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