एक अग्रणी अकाउंटिंग फ़र्म में 26 साल की महिला कर्मचारी की दुखद मौत से कॉर्पोरेट में काम के माहौल और कर्मचारियों के कल्याण को लेकर तीखी बहस छिड़ गई है.
फ़र्म अर्न्स्ट एंड यंग (ईवाई) में चार्टर्ड अकाउंटेंट के पद पर काम करने वाली अन्ना सेबैस्टियन पेराइल की बीती जुलाई में नौकरी जॉइन करने के चार महीने बाद ही मौत हो गई थी.
उनके मां-पिता ने आरोप लगाया है कि नई नौकरी में काम के “अत्यधिक दबाव” का उनकी सेहत पर उल्टा असर पड़ा और आख़िरकार उनकी मौत का कारण बना.
ईवाई ने इन आरोपों का ये कहते हुए खंडन किया है कि अन्ना को बाक़ी कर्मचारियों जितना ही काम दिया गया था और उसे इस बात पर भरोसा नहीं कि काम के दबाव ने उनकी ज़िंदगी ली है.
अन्ना की असमय मौत से बहुत लोगों को धक्का लगा है और इसने अधिकांश कॉर्पोरेट और स्टार्ट-अप्स में बढ़ावा दिए जाने वाले ‘हसल कल्चर’ को लेकर तीखी बहस छेड़ दी है, जिसमें कर्मचारियों को उत्पादकता बढ़ाने के लिए अक्सर अपनी सेहत की क़ीमत पर भी काम करने पर ज़ोर दिया जाता है.
कुछ लोगों का तर्क है कि कामकाज़ की यह संस्कृति इनोवेशन और विकास के रास्ते खोलती है और बहुत से लोग अपने जुनून और महात्वाकांक्षा के चलते अधिक घंटे तक काम करने का विकल्प चुनते हैं.
अन्य लोगों का कहना है कि मैनेजमेंट अक्सर कर्मचारियों पर दबाव डालता है, जिससे वे कमरतोड़ काम करने पर मजबूर होते हैं और इससे जीवन जीने की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
माँ की चिट्ठी और सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया
अन्ना की मौत का मुद्दा तब चर्चा में आया, जब उनकी मां अनीता ऑगस्टाइन ने ईवी को एक चिट्ठी लिखी और पिछले हफ़्ते यह चिट्ठी सोशल मीडिया पर वायरल हो गई.
इसमें उन्होंने अपनी बेटी पर काम के दबाव का पूरा ब्यौरा दिया है, जिसमें देर रात तक और साप्ताहिक छुट्टियों में भी काम करने का ज़िक्र है.
उन्होंने ईवाई से अपने “वर्क कल्चर में सुधार लाने” और कर्मचारियों की “सेहत को प्राथमिकता” देने के लिए क़दम उठाने की अपील की थी.
उन्होंने लिखा, “अन्ना का अनुभव एक ऐसे वर्क कल्चर पर रोशनी डालता है, जिसमें ऐसा लगता है कि सेहत को नज़रअंदाज़ करते हुए अधिक से अधिक काम को महिमामंडित किया जाता है.”
“असंभव टार्गेट पूरा करने की लगातार मांग करना और दबाव डालना बहुत टिकाऊ नहीं है और बहुत सारी संभावनाओं वाली एक लड़की की ज़िंदगी के रूप में इसने हमसे क़ीमत वसूला है.”
“टॉक्सिक वर्क कल्चर” के लिए कई लोगों ने ईवाई की निंदा की है. लोगों ने ट्विटर और लिंक्डइन पर अपने-अपने अनुभव साझा किए हैं.
एक अन्य यूज़र ने लिखा, “भारत में काम की संस्कृति बहुत भयानक है. सैलरी सबसे कम और शोषण सबसे अधिक. कर्मचारियों को नियमित रूस से निर्दयता से परेशान करने वाले नियोक्ताओं को नतीजे भुगतने का कोई डर नहीं है और ना ही कोई पछतावा.”
इस यूज़र ने ये भी जोड़ा कि मैनेजर अक्सर अधिक काम करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और अपने कर्मचारियों को कम भुगतान करते हैं.
एक पूर्व ईवाई कर्मचारी ने भी फ़र्म के वर्क कल्चर की आलोचना की और आरोप लगाया कि समय से घर जाने के लिए कर्मचारियों का अक्सर ‘मज़ाक’ उड़ाया जाता है और साप्ताहिक छुट्टी मनाने के लिए ‘शर्मिंदा’ किया जाता है.
उन्होंने लिखा, “इंटर्न पर बेतहाशा काम लादा जाता है. उन्हें अवास्तविक टाइमलाइन दी जाती है और समीक्षा के दौरान अपमानित किया जाता है जबकि यह रवैया उनके भविष्य के चरित्र को गढ़ता है.”
कंपनी का दावा और विवाद
भारत में ईवाई के प्रमुख राजीव मेमानी ने कहा है कि फ़र्म अपने कर्मचारियों की भलाई को ऊंची अहमियत देती है.
उन्होंने लिंक्डइन पर अपनी एक पोस्ट में लिखा, “मैं इसकी पुष्टि करना चाहूंगा कि हमारे लोगों की भलाई मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता है और मैं निजी तौर पर इस लक्ष्य का समर्थन करूंगा.”
पेराइल की मौत कोई पहली घटना नहीं है, जिसने भारत में कार्यसंस्कृति पर तीखी बहस को जन्म दिया है.
पिछले साल अक्टूबर में, इन्फ़ोसिस के सह संस्थापक नारायण मूर्ति को ये कहने के लिए काफ़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा कि देश की आर्थिक तरक्की के लिए भारतीय युवाओं को सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहिए.
भारत में ओला के प्रमुख भवेश अग्रवाल ने उनके विचार से सहमति जताई थी और कहा था कि काम और ज़िंदगी के बीच संतुलन जैसे विचार में वह भरोसा नहीं करते, “अगर आपको अपने काम में मज़ा आ रहा है, तो आपको अपनी ज़िंदगी और काम दोनों में ख़ुशी मिलेगी, दोनों संतुलित रहेंगे.”
साल 2022 में बॉम्बे शेविंग कंपनी के संस्थापक शांतनु देशपांडे ने नौजवानों से काम के घंटे को लेकर शिकायत नहीं करने को कहा था और सुझाव दिया था कि किसी भी नौकरी में रंगरूटों को अपने करियर के पहले चार या पांच सालों में दिन के 18 घंटे काम करने के लिए तैयार रहना चाहिए.
लेकिन मानसिक स्वास्थ्य और श्रमिक अधिकार कार्यकार्ताओं का कहना है कि इस तरह की मांग करना ग़लत है और यह कर्मचारियों को भारी तनाव में डालता है.
पेराइल की मां ने भी अपनी चिट्ठी में आरोप लगाया था कि ईवाई जॉइन करने के कुछ दिन बाद ही उनकी बेटी को “बेचैनी और अनिद्रा” की शिकायत हो गई थी.
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
माना जाता है कि वैश्विक स्तर पर भारत में कर्मचारियों पर सबसे अधिक काम का बोझ होता है.
इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइज़ेशन की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में काम करने वाले आधे लोग हर सप्ताह 49 घंटे से अधिक काम करते हैं, जो कि काम के घंटे के मामले में दुनिया में भूटान के बाद दूसरे नंबर का देश है.
लेबर इकोनॉमिस्ट श्याम सुंदर का कहना है कि भारत की यह कार्य संस्कृति 1990 के दशक से बदली, जब सर्विस सेक्टर का आगाज़ हुआ और 24 घंटे की डिमांड पूरी करने के लिए कंपनियां श्रम क़ानून को नज़रअंदाज़ करने लगीं.
उन्होंने जोड़ा कि कंपनियां इस कार्य संस्कृति को अभिन्न हिस्सा बनाती रही हैं लेकिन अब कर्मचारियों ने भी इसे स्वीकार कर लिया है.
उन्होंने कहा, “यहाँ तक कि बिज़नेस स्कूलों में भी छात्रों को परोक्ष रूप से बताया जाता है कि ऊंची तनख्वाह पाने के लिए लंबे घंटों तक काम करना एक सामान्य बात है और यहाँ तक कि ऐसा ही लोग चाहते हैं.”
उनके अनुसार, इस कार्पोरेट कल्चर में किसी भी वास्तविक बदलाव के लिए मानसिकता में बदलाव ज़रूरी है यानी कंपनियों और कर्मचारियों दोनों को काम के प्रति एक सधा नज़रिया अपनाने की ज़रूरत है, काम को अहम मानना चाहिए लेकिन ज़िंदगी का यही एकमात्र हिस्सा या मक़सद नहीं होना चाहिए.
उन्होंने कहा, “तब तक, माहवारी की छुट्टियां देना या मानसिक स्वास्थ्य के लिए मेडिकल कंपनियों से पार्टनरशिप करने जैसे कार्पोरेट कंपनियों की पहलकदमी अधिक से अधिक महज़ कामचलाऊ होगी और सबसे बुरी स्थिति में प्रतीकात्मक होगी.”
इंडियन स्कूल ऑफ़ बिज़नेस में प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर श्रीपद इस बात से सहमत नज़र आते हैं.
उन्होंने कहा कि टॉक्सिक वर्क कल्चर एक “जटिल और इसमें कई पक्षों से जुड़ी समस्या” है और वास्तविक बदलाव के लिए, हर किसी को यानी उद्योग के अगुआ लोगों से लेकर मैनेजरों और कर्मचारियों या यहां तक कि समाज को उत्पादकता देखने के अपने नज़रिए में बदलाव लाना होगा.
श्रीपद ने कहा, “हम अब भी उत्पादक कार्य को कठिन श्रम से जोड़कर भ्रमित हैं. टेक्नोलॉजी का काम है कि इंसानी श्रम को कम करना, तो काम के घंटे इतने लंबे क्यों होते जा रहे हैं.”
उन्होंने कहा, “हमें टिकाऊ विकास पर ध्यान केंद्रित करना शुरू करना चाहिए, केवल माहौल के नज़रिए से ही नहीं बल्कि श्रम अधिकार के नज़रिए से भी.”
“स्कैंडिनेवियाई देशों ने काम को लेकर अधिक लचीले माहौल को तैयार किया है, इसलिए भारत के लिए भी यह अनुकरणीय मॉडल है. बस इच्छाशक्ति की ज़रूरत है.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित