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पश्चिम बंगाल समेत देश के कुल 9 राज्यों में 4 नवंबर से एसआईआर यानी मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया जारी है. इस दौरान देश के 321 ज़िलों में 843 विधानसभाओं के 51 करोड़ से अधिक मतदाताओं की जांच की जा रही है.
इस प्रक्रिया के तहत 4 नवंबर से 4 दिसंबर के बीच गणना पत्र (एन्यूमरेशन फ़ॉर्म) भरे जाने आदेश जारी हुआ था, जिसे अब एक हफ़्ते के लिए बढ़ा दिया गया है. यानी अब यह काम 11 दिसंबर तक चलेगा.
देश भर में 5.3 लाख बूथ लेवल ऑफ़िसर इस प्रक्रिया में लगे हुए हैं और पश्चिम बंगाल में भी बीएलओ घर-घर पहुंचकर इसे पूरा कर रहे हैं.
चुनाव आयोग ने एसआईआर के संबंध में 27 अक्तूबर को आदेश जारी किया था.
इसके तहत 9 राज्यों – छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल एवं तीन केंद्र शासित प्रदेशों अंडमान और निकोबार, लक्षद्वीप और पुडुचेरी में 4 नवंबर से मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण की प्रक्रिया चल रही है.
वहीं देशभर के कई राज्यों से ऐसी रिपोर्ट्स आ रही हैं, जिनमें कहा गया है कि काम के दबाव में नवंबर महीने में अलग-अलग राज्यों में 25 बीएलओ की मौत हुई है. कई रिपोर्ट्स ऐसी भी हैं जिनके अनुसार काम के दवाब में कुछ बीएलओ ने आत्महत्या कर ली.
मतुआ हिंदुओं में तनाव
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पश्चिम बंगाल की बात करें तो यहां न केवल बीएलओ ने काम के भारी दबाव में विरोध प्रदर्शन किए हैं, बल्कि एसआईआर की प्रक्रिया को लेकर मुस्लिम समुदाय के साथ ही बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थियों में भी ख़ास चिंता है.
इसके साथ ही मतुआ हिंदुओं में एसआईआर की प्रक्रिया को लेकर तनाव है. यह पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के सीमावर्ती ज़िलों में और भी ज्यादा है.
मतुआ पारंपरिक हिंदू समुदाय का एक विशेष संप्रदाय है, जिसके मानने वाले सन 1947 में भारत की आज़ादी और 1971 में बांग्लादेश के ‘मुक्ति संग्राम’ के बाद अलग-अलग समय में बड़ी संख्या में भारत आ गए.
पश्चिम बंगाल में मालदा, नॉर्थ 24 परगना और नदिया ऐसे ही तीन सीमावर्ती ज़िले हैं. इन ज़िलों में एसआईआर प्रक्रिया कैसे चल रही है, ये जानने के लिए बीबीसी की टीम ने कई कैंपों और गांवों का दौरा किया.
मालदा ज़िले के गयेशबाड़ी गांव के बीएलओ सादिकुल इस्लाम ने बीबीसी हिन्दी को बताया, “मैं नया बीएलओ हूं. यह बहुत कठिन ड्यूटी है. लोगों को फ़ॉर्म भरना भी नहीं आता. यह एक महीने का नहीं, एक साल का काम है.”
सादिकुल इस्लाम अध्यापक हैं. उनसे पहले आशा कार्यकर्ता ज़ाकिरा बीबी गांव की बीएलओ होती थीं. इन दिनों वह एसआईआर कैंप में लोगों को पहचानने में सादिकुल की मदद कर रही हैं.
उन्होंने कहा, “मैं सभी 1,165 मतदाताओं को चेहरे से पहचानती हूं. इसलिए मैं बीएलओ की मदद कर रही हूं. मैं महिलाओं से बात कर रही हूं और कोशिश करती हूं कि वे घबराएं नहीं. फिर भी वे घबरा जाती हैं.”
पिछले कुछ हफ्तों से गांव में कई एसआईआर कैंप लगाए गए हैं जहां लोगों को फ़ॉर्म भरने में बीएलओ और सहायक सेवक मदद कर रहे हैं. सुबह से शाम तक हर रोज़ दर्जनों लोग मतदाता सूची की प्रक्रिया से जुड़े सवालों के साथ कैंप में आते हैं.
सीएए की बैकडोर एंट्री
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साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़ मालदा में मुस्लिम आबादी 51.27% है. ज़िले में मुस्लिम समुदाय को डर है कि अगर उनका नाम साल 2002 की वोटर लिस्ट में नहीं मिला तो यह नागरिकता खोने की तरफ एक क़दम है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एसआईआर को एनआरसी (नेशनल सिटिजन्स रजिस्टर) करवाने की “बैकडोर एंट्री” कहा है.
गयेशबाड़ी गांव की हथिपुर आलम ने बीबीसी को कहा, “हमारे बीएलओ की मदद हम नहीं करेंगे तो उसका काम नहीं होगा. यहां सबको डर है कि एनआरसी होगा.”
गांववालों का कहना है जब सीएए-एनआरसी की बात चल रही थी तो उन्होंने अपने सारे दस्तावेज़ इकट्ठा कर लिए थे. पर मालदा ज़िले में बीबीसी की टीम एक ऐसे भी गांव गई जहां ज़्यादातर लोगों के नाम साल 2002 की वोटर लिस्ट में नहीं थे.
गंगा किनारे हज़ारों लोग ऐसे भी रहते हैं जिनके गांव साल 2002 के बाढ़ में बह गए. उनमें से सैकड़ों लोग तब से जहिदटोला में बसे हैं. अब इनके पास पहचान संबंधी दस्तावेज़ तो हैं पर आवासीय प्रमाण पत्र नहीं हैं. बीएलओ खिदिर बख़्श के मुताबिक़ बूथ के 600 लोगों के नाम 2002 की लिस्ट में नहीं आए.
उन्होंने कहा, “इनका 2003 की लिस्ट में नाम है पर 2002 लिस्ट में नहीं है.”
जहानुल बीबी और उनके परिवार के पांच लोगों का नाम फ़िलहाल नहीं है. उनका कहना है, “हम यहां बाढ़ के बाद 2002 में आए थे. हमने वोट भी दिया था. हमारा नाम बाक़ी हर लिस्ट में है. पर इस गांव में सबका नाम कट गया. पता नहीं क्या करें. रात को नींद नहीं आती.”
आजकल दर्जनों लोग खिदिर के घर के बाहर पुरानी वोटर लिस्ट से जुड़े सवाल पूछ रहे हैं.
उनका कहना है, “हम समाधान कैसे सोचें, यह तो सरकार का काम है. हमें तो साल 2002 की लिस्ट के आधार पर आगे बढ़ना है.”
क्या बांग्लादेश से आए हिंदू सीएए का रास्ता चुन रहे हैं?
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पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना और नदिया ज़िले में बांग्लादेश से आए मतुआ हिंदुओं की संख्या अधिक है. तृणमूल कांग्रेस सांसद ममता ठाकुर का अनुमान है कि एसआईआर की प्रक्रिया का 1.5 करोड़ मतुआ हिंदुओं पर असर होगा.
उन्होंने बीबीसी हिन्दी से कहा, “एसआईआर के तहत हर वोटर के माता-पिता, दादा-दादी या नाना-नानी में से किसी भी एक का दस्तावेज़ काफ़ी है. सीएए के लिए बांग्लादेश में जारी पहचान पत्र को भी स्वीकार किया जा रहा है. लेकिन बांग्लादेश से आए लोगों में ढेरों ऐसे भी हैं जिनके पास ऐसे दस्तावेज नहीं हैं.”
भारतीय जनता पार्टी के अनुसार इसका समाधान यह है कि हिंदुओं का सीएए (नागरिकता संशोधन क़ानून) के तहत आवेदन करना. भारतीय जनता पार्टी का दावा था कि वह बांग्लादेश से आए हिंदुओं के लिए पूरे राज्य में 1,000 सीएए कैंप लगाएंगे. जिनका नाम लिस्ट में नहीं है वे लोग इस कैंप के ज़रिए सीएए से आवेदन करके भारतीय नागरिकता ले सकते हैं.
नदिया जिले के बरबरिया गांव में अखिल भारतीय मतुआ महासंघ उपदेशक सुधांशु गोसाईं ने कहा, “हम सीएए नहीं मानेंगे. अगर हम सीएए मानेंगे तो उसके साथ हम अपनी नागरिकता कैसे रखेंगे? लोग बांग्लादेश से भाग के आए हैं, इनके पास कुछ नहीं है.”
“जो साल 2002 के बाद आए हैं उनको डर है उनका नाम लिस्ट से कट जाएगा. इन लोगों को बोला जा रहा है कि अगर सीएए के लिए आवेदन अभी करोगे तो अगले साल के चुनाव में वोट नहीं दे सकते. बोला जा रहा है कि बाद में वोट दे पाएंगे. पर हम इस पर भरोसा कैसे करें?”
मतुआ हिंदू प्रशांत मजूमदार ने कहा, “सीएए फ़ॉर्म में सरेंडर करना पड़ेगा कि आप यहां के नहीं हो. सरेंडर के बाद सीएए भर सकते हो. उस देश के दस्तावेज़ भी चाहिए. पर हम लोग बहुत साल पहले आए उस देश के कागज़ कैसे होंगे.”
हिंदू पुष्टि कार्ड बनवा रहे हैं लोग
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बीबीसी हिन्दी ने भारत और बांग्लादेश की सीमा पर स्थित बरबरिया गांव में बीजेपी और आरएसएस के बनाए हुए सीएए कैंप का दौरा किया. वहां पर काम करने वाले आरएसएस कार्यकर्ता ने बताया कि काफ़ी लोग डर की वजह से सीएए का आवेदन नहीं कर रहे.
एक ऐसे कैंप में काम कर रहे निखिल बिश्वास ने बताया, “30 फ़ीसदी हिंदू ही आ रहे हैं. तृणमूल कांग्रेस के लोकल लीडर लोगों को डरा रहे हैं कि अगर आप बांग्लादेश का डॉक्यूमेंट दोगे तो सरकार आपको वापस भेज देगी.”
हालांकि सीमावर्ती ज़िलों में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सीएए करवाने से पहले अलग-अलग हिंदू संगठनों से हिंदू पुष्टि कार्ड (हिंदू कार्ड्स) भी बनवा रहे हैं.
तृणमूल कांग्रेस की सांसद ममता ठाकुर ने एसआईआर के ख़िलाफ़ 11 दिन भूख हड़ताल की थी. तबीयत बिगड़ने पर उनको अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था.
ममता ठाकुर कहती हैं, “बहुत सारे लोगों के पास 11 डॉक्यूमेंट हैं ही नहीं. सरकार ने साल 2002 के बाद क्यों वोटर अधिकार दिया? माइग्रेशन सर्टिफिकेट भी थे, पर इन लोगों के पास अब यह सब नहीं है. यह अब सीएए क्यों ज़रूरी कर रहे हैं. साल 2019 से 2025 तक उन्होंने सीएए क्यों नहीं किया. एक बार लिस्ट से नाम कट जाए, तो क्या कभी वापस आएगा?”
इस बीच, टीएमसी के नेताओं की एक टीम दिल्ली में चुनाव आयोग भी पहुंची जहां उन्होंने दावा किया कि यह प्रक्रिया मतदाताओं को काटने के लिए की जा रही है. पार्टी का यह भी दावा है कि पश्चिम बंगाल में एसआईआर के काम के दबाव में 40 बीएलओ की मौत हुई है.
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बीजेपी एसआईआर को अवैध प्रवासियों की पहचान करने और उन्हें वोटर लिस्ट से हटाने, और निर्वासित करने की प्रक्रिया मानती है.
पश्चिम बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष शमिक भट्टाचार्य ने मीडिया से बातचीत में कहा है, “पश्चिम बंगाल की 2,200 किलोमीटर से ज्यादा सीमा बांग्लादेश के साथ है. स्पष्ट दिखता है कि अवैध प्रवासी इस सीमा के ज़रिए आते हैं.”
पश्चिम बंगाल में विपक्षी दल जैसे, कांग्रेस ने एसआईआर प्रक्रिया को असंवैधानिक बताया है. वामपंथी दलों ने एसआईआर की जल्दबाज़ी पर चिंता जताई है.
चुनाव आयोग ने बताया कि पश्चिम बंगाल की मौजूदा मतदाता सूची में क़रीब 26 लाख मतदाताओं के नाम साल 2002 की मतदाता सूची से मेल नहीं खाते हैं. हालांकि, आयोग ने स्पष्ट किया कि मेल न खाने का मतलब यह नहीं है कि इन नामों को अंतिम मतदाता सूची से हटा दिया जाएगा.
आयोग ने यह दावा ख़ारिज कर दिया कि पश्चिम बंगाल में 40 लोगों की मौत हुई है. चुनाव आयोग ने विपक्षी दलों को चेतावनी भी दी कि वह इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप न करे.
(आत्महत्या एक गंभीर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्या है. अगर आप भी तनाव से गुजर रहे हैं तो भारत सरकार की जीवनसाथी हेल्पलाइन 18002333330 से मदद ले सकते हैं. आपको अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से भी बात करनी चाहिए.)
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.