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अगर हमें पता चले कि हमारे पूर्वजों को किसी देश से जबरन पकड़कर ग़ुलाम बनाकर लाया गया था, तो अपने पूर्वजों के उस मूल देश से जुड़ने की संभावना के बारे में हमें कैसा महसूस होगा?
इस साल जुलाई में अमेरिकी गायिका लॉरेन हिल और सियेरा को पश्चिम अफ़्रीकी देश बेनिन की नागरिकता दी गई.
वहीं फ़िल्मकार स्पाइक ली और उनकी पत्नी टोन्या लूइस ली को अमेरिका में बेनिन के अफ़्रीकी-अमेरिकी समुदाय का राजदूत नियुक्त किया गया.
बेनिन की नई सरकार ने एक क़ानून बनाकर उन लोगों को देश की नागरिकता देना शुरू किया है जिनके पूर्वजों को अतीत में अमेरिका और यूरोप के ग़ुलामी के व्यापार के दौरान अफ़्रीका से पकड़कर बेचा गया था. इस क़ानून का नाम है ‘माय अफ़्रो ओरिजिन्स’ यानी मेरा अफ़्रीकी मूल.
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बेनिन का विडा बंदरगाह कभी ग़ुलामों के व्यापार का प्रमुख केंद्र हुआ करता था. यहाँ लाखों अफ़्रीकी ग़ुलामों को जहाज़ों में भरकर अमेरिकी महाद्वीप भेजे जाने से पहले बेड़ियों में जकड़कर रखा जाता था.
अफ़्रीका के घाना, सियेरा लियोन और गिनी-बिसाऊ जैसे देश भी अब अफ़्रीकी ग़ुलामों के वंशजों को नागरिकता दे रहे हैं.
बेनिन का उद्देश्य प्रतिभा और पूंजी को आकर्षित करते हुए अपनी संस्कृति और विरासत को दुनिया के सामने पेश करना है.
इसीलिए इस हफ़्ते दुनिया जहान में हम यही जानने की कोशिश करेंगे, क्या बेनिन अपने प्रवासियों को सचमुच वापस ला सकता है?
मिडल पैसेज
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सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी के मध्य तक, एक करोड़ से ज़्यादा लोगों को ज़बरदस्ती पकड़कर नौकाओं के ज़रिए अटलांटिक महासागर के पार भेजा गया.
इन ग़ुलाम बनाए गए लोगों को पश्चिम अफ़्रीका के इलाक़ों से पकड़कर लाया जाता था और ग़ुलामी का व्यापार करने वाले यूरोपीय लोगों के तटीय बंदीगृहों में रखा जाता था. इनमें से 90 प्रतिशत से ज़्यादा लोगों को कैरिबियाई द्वीपों और दक्षिण अमेरिका भेजा गया.
तत्कालीन डाहोमी साम्राज्य, जो अब वर्तमान बेनिन में है, ने इस व्यापार में पश्चिमी ग़ुलाम सौदागरों का सक्रिय साथ दिया था.
अमेरिका की एमोरी यूनिवर्सिटी में अफ़्रीकी-अमेरिकी अध्ययन की एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. बायो होल्सी बताती हैं, “डाहोमी साम्राज्य के सैनिक पड़ोसी देशों और जनजातियों से लोगों को बंदी बनाकर लाते थे.”
यह साम्राज्य पड़ोसी क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने के लिए लगातार हमले करता रहता था. उसके पास प्रशिक्षित और ताक़तवर सेना थी.
युद्ध में बंदी बनाए गए लोगों को राजा की संपत्ति माना जाता था. डाहोमी साम्राज्य इन बंदियों को सामग्री और हथियारों के बदले यूरोपीय ग़ुलाम व्यापारियों को बेच देता था.
डॉ. बायो होल्सी कहती हैं, “यूरोपीय लोगों द्वारा अफ़्रीका में बंदूकें और गोला-बारूद लाने के बाद अफ़्रीका में युद्ध का स्वरूप बदल गया. डाहोमी साम्राज्य ने यूरोपीय हथियारों का इस्तेमाल कर पड़ोसी क्षेत्रों पर कब्ज़ा करना शुरू किया और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को बंदी बनाकर पश्चिमी ग़ुलाम व्यापारियों को सौंपने लगा.”
“इससे दोनों पक्षों को फ़ायदा हुआ. इन हथियारों की मदद से डाहोमी साम्राज्य अपने समुदाय को ग़ुलाम बनने से भी बचाने में सक्षम हुआ और बड़ी संपत्ति जुटाने में कामयाब रहा.”

ग़ुलाम बनाए गए अफ़्रीकी लोगों को अमेरिका और लैटिन अमेरिका में खदानों में मज़दूरी करने, तंबाकू और गन्ने की खेती में काम करने के लिए भेजा जाता था. इन फसलों को बाद में यूरोप में बेचा जाता था.
ग़ुलामों को बंदी बनाकर समुद्र पार भेजने की इस प्रक्रिया को ‘मिडल पैसेज’ कहा जाता था.
डॉ. बायो होल्सी बताती हैं, “ग़ुलामों का व्यापार मुख्य रूप से यूरोपीय लोगों ने शुरू किया था. वही लोग अपनी नौकाओं में ग़ुलामों को बंदी बनाकर लाते-ले जाते थे.”
“इस ‘मिडल पैसेज’ पर यूरोपीय व्यापारियों का पूरा नियंत्रण था. बाद में इन ग़ुलामों को अमेरिका में दोबारा बेचा जाता था, जहां उनसे खेतों और बागानों में मज़दूरी करवाई जाती थी.”
सदियों तक चले इस ग़ुलामी व्यापार का पश्चिम अफ़्रीका पर गहरा असर पड़ा. स्वस्थ और युवा आबादी के जबरन उठा लिए जाने से वहाँ मज़दूरों की भारी कमी हो गई.
डॉ. बायो होल्सी बताती हैं, “जहाँ गुलामों का व्यापार बढ़ा, वहीं कपड़ा, बर्तन और अन्य पारंपरिक उद्योग धीरे-धीरे नष्ट हो गए. इस व्यापार ने समाज में हिंसा और युद्ध को बढ़ावा दिया.”
उन्नीसवीं सदी के मध्य में ग़ुलामी व्यापार पर रोक लगा दी गई, लेकिन इसके बाद यूरोपीय देशों ने अफ़्रीकी क्षेत्रों पर कब्ज़ा जमाने की मुहिम शुरू कर दी.
यह मुहिम दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत तक जारी रही. मुख्य रूप से ब्रिटेन और फ़्रांस ने अफ़्रीका के ज़्यादातर हिस्सों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया, जिससे वहाँ के समाज और अर्थव्यवस्था को भारी नुक़सान पहुँचा जिसका असर आज भी देखा जा सकता है.
अफ़्रीकी ग़ुलामों की वापसी

ज़्यादातर ग़ुलामों को अटलांटिक पार भेजा जाता था, लेकिन ग़ुलामों का सबसे बड़ा आयात ब्राज़ील करता था, जो उस समय पुर्तगाली उपनिवेश था.
एना लूसिया अराउजो, जो अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में इतिहास की प्रोफ़ेसर हैं और जिनका संबंध ब्राज़ील से है. वो बताती हैं, “ज़्यादातर ग़ुलामों को पहले ब्राज़ील लाया गया, और वहाँ से कई लोगों को कैरिबियाई द्वीपों और आज के हैती तक ले जाया गया.”
आज अफ़्रीका के बाहर अफ़्रीकी मूल के लोगों की सबसे बड़ी आबादी ब्राज़ील में है. वहाँ की लगभग आधी आबादी का कोई न कोई मूल अफ़्रीका से जुड़ा है. लेकिन वहाँ लाए गए लगभग 40 लाख ग़ुलामों में से कई अपने मूल देश लौटने में सफल रहे.
इसकी शुरुआत 1835 में हुए ग़ुलामों के विद्रोह से हुई थी, जिसने ग़ुलाम व्यापार पर रोक लगाने की दिशा में भी भूमिका निभाई. उन्नीसवीं सदी के अंत तक बड़ी संख्या में अफ़्रीकी ग़ुलाम स्वदेश लौट चुके थे.
एना लूसिया अराउजो कहती हैं, “जो लोग अफ़्रीका लौटे, उनके लिए घर वापसी आसान नहीं थी, क्योंकि अब उनकी संस्कृति बदल चुकी थी. वे अलग भाषा बोलते थे और स्थानीय लोगों से अलग दिखाई देते थे.”
“उनके पास नए कौशल थे और वे स्थानीय लोगों की तुलना में सामाजिक रूप से ऊँचे वर्ग में गिने जाते थे, जिससे टकराव शुरू हो गया. वहाँ यह सवाल भी उठने लगे कि ग़ुलामी के व्यापार में किसकी क्या भूमिका थी.”
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1 अगस्त 1960 को बेनिन फ़्रांस के औपनिवेशिक शासन से आज़ाद हुआ. शीत युद्ध के दौरान बेनिन सोवियत संघ के प्रभाव में रहा. 1990 के दशक में जब वह इस प्रभाव से बाहर आया, तब तक उसकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह डगमगा चुकी थी.
एना लूसिया अराउजो बताती हैं कि तब बेनिन के राष्ट्रपति ने सांस्कृतिक पर्यटन को देश की पुनर्बहाली का माध्यम बनाने का फ़ैसला किया. इसी योजना के तहत वूडू उत्सव की शुरुआत हुई, जिसे अब हर साल जनवरी में मनाया जाता है.
अराउजो कहती हैं, “वूडू पर्व मनाने के पीछे एक मकसद यह भी था कि लोगों का ध्यान असल समस्याओं से हटाया जा सके. इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो ग़ुलाम व्यापार के शिकार थे और वे भी जिन्होंने इस व्यापार में हिस्सा लिया था.”
इस योजना से बेनिन को आर्थिक फ़ायदा तो हुआ, लेकिन ग़ुलामी के व्यापार से समाज में पड़ी गहरी दरारें अब भी पूरी तरह नहीं भर पाईं.
एना लूसिया अराउजो कहती हैं, “कई परिवारों और समुदायों में तनाव अब भी बना हुआ है. जो लोग बेनिन लौट रहे हैं, उनमें वे भी शामिल हैं जो कभी ग़ुलाम व्यापार को बढ़ावा देने वाले डाहोमी शाही परिवार के वंशज हैं और वे भी, जिनके पूर्वज ग़ुलाम बनाए गए थे.”
इस ऐतिहासिक विभाजन को कम करने के लिए अब बेनिन अफ़्रीकी मूल की जानी-मानी हस्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है, जिनमें अर्थशास्त्री डॉ. लेनर्ड वांचेकॉन भी शामिल हैं.
अवसरों का नया युग
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डॉक्टर लेनर्ड वांचेकॉन बेनिन के अफ़्रीकन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के संस्थापक और प्रमुख हैं. वह अमेरिका की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफ़ेसर हैं.
वह कहते हैं कि बेनिन में अवसरों का एक नया युग शुरू होने जा रहा है.
“मेरा जन्म मध्य बेनिन के एक छोटे गांव में हुआ था जहां केवल 250 लोग रहते थे. मुझे गर्व है कि मैं वहां पैदा हुआ. मेरे गांव के चारों तरफ़ नदियां और तालाब थे. बेनिन में पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं. यहां कई ऐतिहासिक स्मारक और संग्रहालय हैं.”
बेनिन प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध देश है जहां पर्यटकों के देखने के लिए बहुत कुछ है जिसमें ग़ुलाम व्यापार से संबंधित कई म्यूज़ियम, स्मारक, यूरोपीय किले और शाही महल शामिल हैं.
हालांकि, अमेरिका, यूके और ऑस्ट्रेलिया सहित कई देशों ने सुरक्षा के कारणों से अपने नागरिकों को बेनिन ना जाने की सलाह दे रखी है.
इस पर डॉक्टर लेनर्ड वांचेकॉन कहते हैं, “इसमें निश्चित ही थोड़ी ज़्यादती है. ख़बरों में जो आता है उसके मुक़ाबले बेनिन कहीं अधिक सुरक्षित जगह है. बेनिन काफ़ी रोचक देश है.”
“यहां पांच बार सैनिक तख़्तापलट हुआ है लेकिन उसमें कोई खून-खराबा नहीं हुआ, वहीं देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काफ़ी विकास हुआ है. मेरे गांव से चालीस छात्र स्कूल जाते थे जिनमें से आज चौदह लोगों के पास पीएचडी की डिग्री है.”
शिक्षा के क्षेत्र में भले ही बेनिन ने तरक्की की है लेकिन उसकी अर्थव्यवस्था अभी भी कमज़ोर है और वह व्यापार के लिए अपने पड़ोसी देश नाइजीरिया पर निर्भर है जो अफ़्रीका की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है.
डॉक्टर लेनर्ड वांचेकॉन की राय है कि बेनिन सिर्फ़ पर्यटन पर निर्भर नहीं रह सकता बल्कि उसे अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए क्षेत्र के दूसरे देशों के साथ मिलकर काम करना होगा और सही मानसिकता अपनानी होगी.
डॉक्टर लेनर्ड वांचेकॉन कहते हैं कि बेनिन के पास प्रचुर प्राकृतिक संसाधन तो नहीं हैं लेकिन कृषि उद्योग में बड़ी संभावनाएं हैं. बेनिन को पर्यटन के साथ-साथ निजी उद्योगों को ख़ास तौर पर शिक्षित उद्यमियों को बढ़ावा देना चाहिए जिससे काफ़ी कुछ हासिल हो सकता है.
देश का भविष्य सुधारने के लिए बेनिन केवल पर्यटन पर निर्भर नहीं रहना चाहता बल्कि विदेशों में बसे बेनिन के प्रवासियों का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहा है.
विकास की ओर बढ़ते क़दम
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फ़िल्मकार और उद्यमी टोन्या लूइस ली उन लोगों की वंशज हैं जिन्हें कभी बेनिन से ग़ुलाम बनाकर लाया गया था.
बेनिन सरकार अब ऐसे ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करना चाहती है. इसी दिशा में इस साल जुलाई में सरकार ने टोन्या लूइस ली और उनके पति, प्रसिद्ध फ़िल्मकार स्पाइक ली, को अमेरिका में अफ़्रीकी-अमेरिकी समुदाय के लिए अपना राजदूत नियुक्त किया है.
टोन्या लूइस ली कहती हैं कि ग़ुलामी का व्यापार एक बड़ी त्रासदी थी, लेकिन यह भी ज़रूरी है कि उस त्रासदी के ज़ख़्मों को भरा जा सकता है.
वो कहती हैं, “मुझे उम्मीद है कि इस योजना के ज़रिए बेनिन अपनी कहानी कह सकेगा. वह बता सकेगा कि उसका अतीत क्या था और भविष्य में वह कहाँ पहुँचना चाहता है. सैकड़ों साल पहले जो लोग विस्थापित हो गए थे, उन्हें अब अपने घर लौटने का विकल्प दिया जा रहा है.”
“यह उन लोगों के बीच सुलह करवाने और पुराने ज़ख़्मों को भरने का प्रयास है, जो उस त्रासदी के शिकार थे और जिन्होंने उसे अंजाम देने में भूमिका निभाई थी. इससे बहुत कुछ अच्छा निकल सकता है.”
बेनिन सरकार से विदेशों में बसे अफ़्रीकी मूल के लोगों को अपने देश से जोड़ने की ज़िम्मेदारी मिलने पर टोन्या लूइस ली बेहद ख़ुश हैं.
उन्होंने कहा कि उनके और उनके पति स्पाइक ली के लिए यह एक अवसर है कि वे अमेरिका में लोगों को बताएं कि बेनिन अब उन लोगों के लिए एक जगह बना रहा है, जिनकी जड़ें अफ़्रीका से जुड़ी हैं.
टोन्या लूइस ली ने कहा कि अब उन लोगों के पास अफ़्रीका में एक ठिकाना होगा. उन्होंने बताया कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन्हें अमेरिका में जागरूकता बढ़ाने और बेनिन की पहल के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक जानकारी पहुँचाने की ज़रूरत होगी.
वह कहती हैं, “बेनिन ग़ुलामों के व्यापार में पूरी तरह शामिल था. अब वह अतीत के ज़ख़्मों को भरकर पीड़ितों और ग़ुलामी के व्यापार से जुड़े लोगों के वंशजों के बीच सुलह और सौहार्द कायम करना चाहता है.”
“मेरे ख़्याल से बेनिन के पास यह एक अच्छा मौका है, जब वह दुनिया को बता सके कि वो किस तरह ग़ुलामी के व्यापार में शामिल था और अब सैकड़ों सालों बाद सुलह के लिए क्या क़दम उठा रहा है, जिससे दुनिया को इंसानियत का सबूत दिया जा सके. मुझे उम्मीद है कि इस योजना से त्रासदी के ज़ख़्मों को भरकर बेहतर भविष्य की ओर बढ़ने में मदद मिलेगी.”
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टोन्या लूइस ली के पूर्वजों को सदियों पहले बेनिन से ग़ुलाम बनाकर अमेरिका ले जाया गया था. अब उनके परिवार की कई पीढ़ियां अमेरिकी नागरिक हैं.
उन्होंने बताया कि उनके पूर्वज 1700 के दशक से अमेरिका में रह रहे हैं. फिर भी वो इस बात से ख़ुश हैं कि अफ़्रीका में अब एक ऐसी जगह है जिसे वो अपना “घर” कह सकती हैं.
टोन्या लूइस ली को उम्मीद है कि बेनिन द्वारा उन्हें राजदूत बनाए जाने के बाद वो अपने जैसे अन्य अमेरिकी, लातिन अमेरिकी और कैरिबियाई लोगों को भी उनकी जड़ों से जुड़ने के लिए प्रेरित कर पाएंगी.
वह कहती हैं, “अपनी जड़ों से जुड़ने में हमें बहुत ख़ुशी मिलती है.”
टोन्या लूइस ली अफ़्रीकी मूल के प्रवासियों से संबंध मज़बूत करने की बेनिन की पहल के तहत 2024 में बेनिन गई थीं. वह कहती हैं कि उस यात्रा के दौरान उनके दिल में कई तरह की भावनाएं उमड़ रही थीं.
वह बताती हैं, “वह बहुत मुश्किल अनुभव था, जब मैंने याद किया कि सदियों पहले कैसे हमारे अपने ही लोगों ने मेरे पूर्वजों को ज़बरदस्ती ग़ुलाम बनाकर वहां से अमेरिका भेज दिया था. मेरे अंदर बहुत दुख और गुस्सा था. मुझे लगता है वहां लौट रहे अन्य अफ़्रीकी मूल के लोगों ने भी यही महसूस किया होगा.”
अब सवाल यह है, क्या बेनिन अपने प्रवासियों को सच में वापस ला सकता है?
जहां एक तरफ़ यूरोप और अमेरिका में राष्ट्रवादी सोच मज़बूत हो रही है, वहीं कई लोगों के लिए यह अपनी जड़ों की ओर लौटने का समय भी है.
टोन्या लूइस ली का मानना है कि बेनिन की यह योजना अफ़्रीकी प्रवासियों के लिए अतीत की त्रासदी के ज़ख़्मों को भरने का अवसर बन सकती है.
वह कहती हैं, “मेरे पूर्वजों को यहां से ज़बरदस्ती अमेरिका भेजा गया था और आज मैं अपने परिवार के साथ यहां लौट आई हूं. मैं लौटी तो हूं, लेकिन मैं अभी भी अमेरिकी भी हूं और अफ़्रीकी भी. मैं इन दोनों पहचानों को जोड़कर भविष्य के लिए कुछ अच्छा करने की कोशिश करूंगी. “
“जब मैं बेनिन के तट पर खड़ी समुद्र को देख रही थी, तो मैंने सोचा, हम उस त्रासदी से गुज़रे, लेकिन टिके रहे, बढ़ते रहे और आज फिर लौट आए. यह हमारे भीतर एक गहरी शक्ति का एहसास कराता है. मुझे लगता है, यह देखकर मेरे पूर्वज ज़रूर मुस्कुरा रहे होंगे.”
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