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रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के दौरे से ठीक पहले भारत में जर्मनी, फ़्रांस के राजदूत और ब्रिटेन की उच्चायुक्त के साझे लेख को लेकर विवाद हो रहा है.
एक दिसंबर को भारत में जर्मनी के राजदूत फ़िलिप एकरमैन, फ़्रांस के राजदूत थिरी मथोउ और ब्रिटेन की उच्चायुक्त लिंडी कैमरुन ने टाइम्स ऑफ इंडिया में एक आर्टिकल लिखा था.
इस लेख का शीर्षक है- दुनिया चाहती है कि यूक्रेन युद्ध का अंत हो लेकिन रूस शांति को लेकर गंभीर नहीं दिख रहा है.
इस आर्टिकल की शुरुआत में लिखा गया है, ”पिछले तीन वर्षों से भी अधिक समय से यूक्रेन के लोगों ने अपने देश की रक्षा.. साहस और प्रबल संकल्प के साथ की है. रूस अपनी सेना वापस बुलाकर और अपने अवैध आक्रमण को समाप्त करके या कम से कम युद्धविराम पर सहमत होकर, वार्ताओं में शामिल होकर तत्काल युद्ध समाप्त कर सकता है.”
”लेकिन 2025 में रूसी हमलों में तेज़ी से वृद्धि हुई है और शांति वार्ताओं की शुरुआत के बाद से राष्ट्रपति पुतिन ने यूक्रेन पर पूरे युद्ध के दौरान 22 सबसे बड़े हमले शुरू किए हैं.”
पूरे लेख में यूक्रेन युद्ध के लिए रूस को ज़िम्मेदार ठहराया गया है. पीएम मोदी का ज़िक्र करते हुए एक पैरा में लिखा गया है, ”दुनिया इस बात पर सहमत है कि युद्ध ख़त्म होना चाहिए. इस मामले में भारत भी स्पष्ट है. पीएम मोदी ने कहा था कि किसी भी समस्या का समाधान युद्ध के मैदान में नहीं मिल सकता है.”
जर्मनी, रूस और ब्रिटेन के राजनयिकों के इस आर्टिकल को एक्स पर रीपोस्ट करते हुए रूस में भारत के राजदूत रहे और भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने तीखी आलोचना की है.
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क्या प्रोटोकॉल का उल्लंघन है?
कंवल सिब्बल ने लिखा है, ”पुतिन की भारत यात्रा से ठीक पहले रूस के ख़िलाफ़ यह उग्र लेख प्रकाशित करके राजनयिक मानकों का उल्लंघन किया गया है. यह भारत का अपमान भी करता है. यह एक अत्यंत मित्रवत देश के साथ भारत के घनिष्ठ संबंधों पर प्रश्न उठाता है.”
”यह हमारे आंतरिक मामलों में दखलंदाज़ी है क्योंकि इसका उद्देश्य भारत में यूरोपीय समर्थित हलकों में रूस-विरोधी भावनाओं को बढ़ावा देना और रूस के साथ हमारे संबंधों की नैतिकता पर सवाल खड़े करना है. इन तीनों देशों के प्रतिनिधि भारत के विदेश मंत्रालय को अपनी राय आधिकारिक विरोध-पत्र के माध्यम से दे सकते हैं लेकिन खुली बयानबाज़ी उचित नहीं है.”
”टाइम्स ऑफ इंडिया का इस लेख को प्रकाशित करना पूर्णतः ग़लत है. यह जानबूझकर हमारी कूटनीति और राष्ट्रीय हित के ख़िलाफ़ काम करना है. भारत के विदेश मंत्रालय को इन तीनों प्रतिनिधियों की ओर से राजनयिक मानकों के उल्लंघन पर सार्वजनिक रूप से अपनी असहमति व्यक्त करनी चाहिए.”
न्यूज़ वेबसाइट फ़र्स्टपोस्ट में सीनियर एडिटर श्रीमॉय तालुकदर ने लिखा है, ”पुतिन की यात्रा के वक़्त यह लेख किसी भारतीय मीडिया आउटलेट में प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए था. यह लेख भारत की विदेश नीति में हस्तक्षेप का स्पष्ट प्रयास है और इसे रूसी राष्ट्रपति के आगमन से पहले भारत को शर्मिंदा करने के इरादे से लिखा गया है.”
”राष्ट्रपति पुतिन राजकीय दौरे पर आ रहे हैं, भारत और रूस के बीच रणनीतिक साझेदारी है. भारत यूरोप की रूस-विरोधी नैतिक बयानबाज़ी का मंच नहीं है. यह लेख बेहद ख़राब और अनुचित है और किसी भारतीय प्रकाशन द्वारा इसे स्थान देने का निर्णय भी उतना ही अनुचित है.”
श्रीमॉय की इस टिप्पणी पर द हिन्दू की डिप्लोमैटिक अफे़यर्स एडिटर सुहासिनी हैदर ने लिखा है, ”यहाँ मीडिया को आड़े हाथों क्यों लिया जा रहा है? इसका फ़ैसला विदेश मंत्रालय करेगा कि प्रोटोकॉल का उल्लंघन हुआ है या नहीं.”
नेपाल और वियतनाम में भारत के राजदूत रहे रंजीत राय से पूछा कि वाक़ई यह लेख डिप्लोमैटिक प्रोटोकॉल का उल्लंघन है? इसके जवाब में रंजीत राय कहते हैं, ”मुझे नहीं लगता है कि किसी तरह के डिप्लोमैटिक प्रोटोकॉल का उल्लंघन है लेकिन इतना ज़रूर है कि हमारे मेहमान आ रहे हैं और आप उनके आने से ठीक पहले ऐसी बातें कर रहे हैं.”
”इसे गुड टेस्ट में तो नहीं लिया जाएगा. यूरोप को रूस से समस्या है लेकिन यूरोप की समस्या पूरी दुनिया की समस्या नहीं हो सकती है. इसके बावजूद मुझे लगता है कि एक लोकतांत्रिक देश में किसी का स्वागत और विरोध में कुछ कहने या लिखने की आज़ादी होनी चाहिए.”
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मीडिया से नाराज़गी
पुतिन के भारत दौरे पर समाचार एजेंसी एएनआई ने भारत में जर्मनी के राजदूत से बात की है. इसे लेकर भी कंवल सिब्बल ने नाराज़गी जताई है.
कंवल सिब्बल ने लिखा है, ”यह समझ से परे है कि पुतिन की यात्रा से ठीक पहले एएनआई ने जर्मन राजदूत को रूस-विरोधी बयानबाज़ी करने का अवसर देने की विशेष कोशिश क्यों की. हमारे प्रेस का मानसिक ढांचा किसी बनाना रिपब्लिक जैसा प्रतीत होता है.”
”जर्मन राजदूत को यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि हमारे नेता पुतिन से क्या कहें. हम यूक्रेन युद्ध के ख़िलाफ़ हैं लेकिन हम यह भी जानते हैं कि यूरोप शांति केवल सैन्य शक्ति के माध्यम से ही चाहता है. राजदूत से उल्टा यह पूछा जाना चाहिए था कि जर्मनी यूक्रेन को हथियार और वित्तीय सहायता क्यों दे रहा है और अतीत में नाज़ी जर्मनी द्वारा रूस के साथ किए गए अत्याचारों के बावजूद वह फिर से रूस के साथ टकराव के रास्ते पर क्यों है?”
फ़्रांस में भारत के राजदूत रहे एक डिप्लोमैट ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ”यह किसी प्रोटोकॉल का उल्लंघन नहीं है लेकिन गुड टेस्ट में नहीं है. मान लीजिए कि मैं अमेरिका में भारत का राजदूत हूँ और वहाँ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अपने सेना प्रमुख के साथ पहुँच रहे हैं.”
”अब हमारी सरकार तो चाहेगी कि इनके ख़िलाफ़ कुछ माहौल बनाया जाए. अब हम वहां के मीडिया का इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे. अगर हमें कोई अख़बार जगह देने को तैयार हो जाता है तो उनके ख़िलाफ़ लेख लिख देंगे. अब यह दूसरा सवाल है कि राष्ट्रपति पुतिन के मामले में भारतीय मीडिया को यूरोप के राजनयिकों को स्पेस देना चाहिए था या नहीं.”
सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी को लगता है कि पुतिन का भारत दौरा पश्चिम के लिए एक संदेश है.
चेलानी ने एक्स पर एक पोस्ट में लिखा है, ”प्रतिस्पर्धी गुटों में बँटती दुनिया में 4–5 दिसंबर को पुतिन की नई दिल्ली यात्रा कोई सामान्य राजनयिक पड़ाव नहीं है; यह एक शक्तिशाली जियोपॉलिटिकल संकेत है. यह यात्रा महत्वपूर्ण समझौतों को जन्म दे सकती है, जिनमें नए पेमेंट चैनल भी शामिल हैं. स्विफ्ट प्रणाली को दरकिनार करने और अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व को कम करने के लिए भी यह अहम है.”
”भारत देख रहा है कि कैसे पश्चिमी नीतियों ने प्रतिबंधों के साथ स्विफ्ट के अलावा अन्य वित्तीय उपकरणों के हथियारीकरण ने रूस को चीन की गोद में धकेल दिया है. फिर भी पुतिन की यह यात्रा, जो यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद उनकी भारत की पहली यात्रा है, दर्शाती है कि रूस के पास चीन से परे भी विकल्प मौजूद हैं और वह ख़ुद को चीन का ‘जूनियर साझेदार’ बनने नहीं देगा.”
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‘यूरोप की समस्या पूरी दुनिया की समस्या नहीं’
चेलानी ने लिखा है, ”उधर भारत भी अपना एक कड़ा संदेश दे रहा है. जब ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका भारत के साथ अपमानजनक व्यवहार कर रहा है, तब नई दिल्ली न तो रूस को अलग-थलग करने और न ही पश्चिमी प्रतिबंधों की लाइन में चल रहा है जो उसकी रणनीतिक स्वायत्तता को नुक़सान पहुँचाते हैं. पुतिन की मेज़बानी करके भारत यह साफ़ कर रहा है कि वह पश्चिम से थोपे गए ‘या तो हमारे साथ या हमारे ख़िलाफ़’ वाली नीति को स्वीकार नहीं करता और अपनी स्वतंत्र राह चुनेगा.”
जून 2022 में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्लोवाकिया की राजधानी ब्रातिस्लावा में एक कॉन्फ़्रेंस में कहा था, ”यूरोप इस मानसिकता के साथ बड़ा हुआ है कि उसकी समस्या पूरी दुनिया की समस्या है, लेकिन दुनिया की समस्या यूरोप की समस्या नहीं है.”
जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल के प्रोफ़ेसर प्रभाष रंजन ने तब जयशंकर की इस टिप्पणी को तीन नवंबर, 1948 में संयुक्त राष्ट्र आमसभा में नेहरू के भाषण से जोड़ा था.
नेहरू ने कहा था, ”यूरोप की समस्याओं के समाधान में मैं भी समान रूप से दिलचस्पी रखता हूँ. लेकिन मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि दुनिया यूरोप के आगे भी है. आप इस सोच के साथ अपनी समस्या नहीं सुलझा सकते हैं कि यूरोप की समस्या ही मुख्य रूप से दुनिया की समस्या है. समस्याओं पर बात संपूर्णता में होनी चाहिए. अगर आप दुनिया की किसी एक भी समस्या की उपेक्षा करते हैं तो आप समस्या को ठीक से नहीं समझते हैं. मैं एशिया के एक प्रतिनिधि के तौर पर बोल रहा हूँ और एशिया भी इसी दुनिया का हिस्सा है.”
जयशंकर की इस टिप्पणी का हवाला देते हुए जर्मनी के तत्कालीन चांसलर ओलाफ़ शॉल्त्स ने फ़रवरी 2023 में म्यूनिख सिक्यॉरिटी कॉन्फ़्रेंस में कहा था, ”भारतीय विदेश मंत्री की टिप्पणी में दम है. लेकिन यह केवल यूरोप की समस्या नहीं रहेगी, अगर अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नियमों का पालन सख़्ती से किया जाए.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.