इमेज कैप्शन, इस बीमारी को प्राइमरी अमीबिक मेनिंगोइन्सेफ़्लाइटिस (पीएएम) के नाम से जाना जाता है
केरल में ब्रेन ईटिंग अमीबा का मामला फिर से एक बार चर्चा में है. कई मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़, राज्य में सितंबर के मध्य तक इसके 60 से अधिक मामले पाए गए हैं जिनमें कम से कम 18 लोगों की मौतें हुई हैं.
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़, राज्य के विपक्षी गठबंधन यूडीएफ़ ने केरल सरकार पर आरोप लगाया है कि वह इस बीमारी के इतने बड़े पैमाने पर फैलने के बारे में कोई ठोस वैज्ञानिक स्पष्टीकरण देने में ‘नाकाम’ रही है.
विधानसभा में आईयूएमएल के नेता एन शम्सुद्दीन ने दावा किया कि यह बीमारी तेज़ी से फैल रही है और इसके मामले तिरुवनंतपुरम, कोल्लम, मलप्पुरम, त्रिशूर और पालक्कड समेत कई ज़िलों में पाए गए हैं.
हालांकि केरल सरकार का कहना है कि वह सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले को बेहद गंभीरता से देख रही है.
लगातार बढ़ते मामलों पर राजनीतिक बयानबाज़ी
लेफ़्ट विधायक टीआई मधुसूदानन ने विपक्ष के आरोपों को ख़ारिज करते हुए कहा है कि पिनराई विजयन की सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य को सबसे अधिक महत्व देती है.
साथ ही वर्तमान हालात को देखते हुए केरल के स्वास्थ्य विभाग ने हाल ही में इस बीमारी को लेकर विशेष दिशानिर्देश जारी किए थे.
केरल में साल 2023 से ब्रेन ईटिंग अमीबा के मामले लगातार सामने आ रहे हैं.
हाल ही में केरल की स्वास्थ्य मंत्री वीना जॉर्ज ने इन मामलों पर क़ाबू पाने में नाकामी के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूडीएफ़ सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया था.
न्यूज़ वेबसाइट डेक्कन हेराल्ड के मुताबिक़, स्वास्थ्य मंत्री ने लेफ़्ट सरकार का बचाव करते हुए कहा था कि उसने संक्रमण पर काबू पाने के उपाय किए हैं.
साथ ही उन्होंने पिछली यूडीएफ़ सरकार पर आरोप लगाया कि वह संक्रमण से जुड़ी शोध रिपोर्ट पर बैठी रही और उसको लेकर कोई काम नहीं किया.
लेकिन शोध रिपोर्ट साल 2018 में प्रकाशित हुई थी जब सीपीएम के नेतृत्व वाली एलडीएफ़ सरकार थी और केके शैलजा स्वास्थ्य मंत्री थीं. इसको लेकर वीना जॉर्ज की आलोचनाएं भी हुई हैं.
आख़िर यह बीमारी क्या है?
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इमेज कैप्शन, तेज़ सिरदर्द मेनिंगोइन्सेफ़्लाइटिस संक्रमण का लक्षण हो सकता है (फ़ाइल फ़ोटो)
असल में इस बीमारी को प्राइमरी अमीबिक मेनिंगोइन्सेफ़्लाइटिस (पीएएम) के नाम से जाना जाता है, जो कि नीग्लेरिया फ़ॉवलेरी अमीबा की वजह से होती है.
असल में यह एक प्रकार का दुर्लभ दिमाग़ी संक्रमण है. अधिकतर मामलों में स्वीमिंग पूल या तालाब में तैरने के दौरान एन. फ़ॉवलेरी अमीबा इंसानी शरीर में नाक के माध्यम से पहुंचता है और यहां से वो ब्रेन के नीचे मौजूद क्रिब्रिफ़ॉर्म प्लेट से होते हुए दिमाग़ में पहुंचता है.
बीबीसी के सहयोगी पत्रकार इमरान क़ुरैशी ने जुलाई 2024 में इस बीमारी से ज़िंदा बचे एक 14 वर्षीय किशोर पर रिपोर्ट की थी.
इस दौरान उनसे ख़ास बातचीत में कोझिकोड में बेबी मेमोरियल हॉस्पिटल में कंसल्टेंट पीडियाट्रिक्स इन्टेंसिविस्ट डॉ. अब्दुल रऊफ़ ने बताया था कि “यह एक पैरासाइट (परजीवी) है जो अलग-अलग केमिकल छोड़ता है और दिमाग़ को नष्ट करता है.”
इसके प्रमुख लक्षण हैं- बुख़ार, तेज़ सिरदर्द, गले में ख़राश होना, अचेत होना, दौरा पड़ना और कोमा के हालात. सिर में अत्यधिक दबाव के कारण कई मरीज़ों की मौत हो जाती है.
डॉ. रऊफ़ ने कहा, “यह ताज़े पानी वाली झीलों में पाया जाता है, ख़ासकर गर्म पानी वाली झीलों में. यह ध्यान रखना चाहिए कि लोगों को पानी में कूदना या फिर इसमें डुबकी लगानी नहीं चाहिए. इसी के ज़रिए अमीबा शरीर में प्रवेश करता है.”
“अगर पानी प्रदूषित है, अमीबा आपकी नाक के रास्ते शरीर में दाख़िल होता है. सबसे अच्छा है कि प्रदूषित जलाशयों और यहां तक कि स्वीमिंग पूल से दूर रहा जाए या फिर तैराकों को अपना मुंह पानी से ऊपर रखना चाहिए. पानी में क्लोरीन डालना बेहद ज़रूरी है.”
लेकिन कर्नाटक के मंगलूरु में कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज की ओर से जारी एक रिसर्च पेपर में नवजातों में एन. फ़ॉवलेरी अमीबा संक्रमण के मामलों का हवाला भी दिया गया है, जो पानी के स्रोतों से हुए. यहां नहाने वाला पानी भी इस बीमारी का स्रोत था.
इस बीमारी में मृत्यु दर लगभग 97 फ़ीसदी है.
अमेरिका की सेंटर्स फ़ॉर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन की तरफ़ से छपे एक रिसर्च पेपर के मुताबिक़, साल 1971 और 2023 के बीच इस जानलेवा बीमारी से ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, मैक्सिको और पाकिस्तान जैसे चार देशों में पीड़ित हुए कुल लोगों में से सिर्फ़ आठ लोग ही बच पाए. यह भी तब संभव हुआ जब बीमारी के बारे में 9 घंटे से पांच दिन के अंदर ही पता चल गया था.
सेंटर्स फ़ॉर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन, अमेरिका में अप्रैल 2024 में पाकिस्तान की एक टीम द्वारा प्रकाशित रिसर्च पेपर के अनुसार, इस बीमारी से बचने वालों की उम्र नौ साल से 25 साल के बीच है.
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क्या है इलाज?
डॉक्टरों का मानना है कि शुरुआत में ही अगर इस मर्ज़ का पता लग जाए तो मरीज़ के इलाज में बहुत आसानी हो सकती है और उसे बचाया जा सकता है.
इस बीमारी में आमतौर पर डॉक्टर लक्षण शुरू होने के 24 घंटे के अंदर लंबार ट्रीटमेंट और एंटी माइक्रोबियल दवाओं के कॉम्बिनेशन (एम्फ़ोटेरिसिन बी, रिफ़ाम्पिन और एज़िथ्रोमाइसिन) का इस्तेमाल करते हैं.
डॉ. रऊफ़ बताते हैं कि मरीज़ के सेरेब्रोस्पाइनल फ़्लूइड (सीएसएफ़) में एन. फ़ॉवलेरी का पता लगाने के लिए पीसीआर (पॉलीमरेज़ चेन रिएक्शन) टेस्ट किया जाता है.
वो कहते हैं कि मरीज़ को मिल्टेफ़ोसिन दवा दी जा सकती है, जो कि पहले मिलना मुश्किल होती थी. जब ऐसे मामले सामने आने लगे तो सरकार ने इसे जर्मनी से आयात किया. इस दवा का इस्तेमाल भारत में दुर्लभ बीमारियों के इलाज में किया जाता है लेकिन यह बहुत महंगी नहीं है.
मरीज़ के अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद भी कई मामलों में अगले एक महीने तक उसकी दवा चलती है.
हालांकि डॉक्टरों का मानना है कि इस बीमारी का सबसे बेहतर इलाज परहेज़ है, दूषित पानी वाले तालाब, कुओं और स्वीमिंग पूल में न नहाया जाए.
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित)