- Author, अंशुल सिंह
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ब्राज़ील में हुए जी-20 शिखर सम्मलेन से इतर चीन के विदेश मंत्री वांग यी से मुलाक़ात की है.
यह मुलाक़ात ऐसे समय में हुई है जब दोनों देश अपने रिश्तों में पुरानी कड़वाहट को भुलाकर बेहतरी की बात कर रहे हैं और इसको लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग बैठक कर चुके हैं.
मुलाक़ात के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक्स पर लिखा, “हमने भारत-चीन सीमा क्षेत्रों में चल रही हालिया डिसइंगेजमेंट को लेकर बातचीत की और हमारे द्विपक्षीय संबंधों में अगले क़दमों पर विचार साझा किए. साथ ही वैश्विक स्थिति पर भी चर्चा की.”
जयशंकर-वांग यी की मुलाक़ात के बाद दोनों देशों ने बयान जारी किया है, लेकिन इन बयानों में अंतर है. हालांकि अंतर के पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि ऐसे बयान अक्सर संयुक्त नहीं होते हैं. कूटनीतिक मामलों में संयुक्त बयान में सब कुछ शब्दश: एक जैसा होता है.
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अलग-अलग बयान कैसे?
भारत ने अपने बयान की शुरुआत सीमा पर सैनिकों की वापसी (डिसइंगेजमेंट) से शांति और स्थिरता बताकर की है, जबकि चीन की तरफ़ से जारी बयान में डिसइंगेजमेंट और बॉर्डर का ज़िक्र तक नहीं किया है.
भारत के बयान में ‘सहमति’ पर ज़ोर दिया गया है जबकि वांग यी के बयान में ‘कॉमन अंडरस्टैंडिंग’ की बात कही गई है.
भारत ने बताया कि बातचीत में कैलाश मानसरोवर तीर्थ यात्रा को फिर से शुरू करने, दोनों देशों से गुज़रने वाली नदियों से जुड़े आंकड़े साझा करने, भारत और चीन के बीच सीधी उड़ानें और पत्रकारों की एक-दूसरे देशों में आवाजाही को लेकर हुई चर्चा की बात शामिल है.
चीन ने बयान में दोनों देशों के बीच उड़ानें, पत्रकारों की आवाजाही की बात कही है, लेकिन नदियों से जुड़ा डेटा और कैलाश मानसरोवर यात्रा का कोई ज़िक्र नहीं है.
रक्षा विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर लिखा है, “भारत और चीन ने सैन्य तनाव कम करने की एक जटिल प्रक्रिया में केवल पहला कदम उठाया है, लेकिन बीजिंग पहले से ही अपनी राजनीतिक और व्यापारिक मांगों पर दबाव डाल रहा है.”
2017 में बाढ़ से आंकड़े इकट्ठा करने वाले केंद्रों को हुए नुक़सान का कारण बताकर चीन ने हाइड्रोलॉजिकल (जल विज्ञान संबंधी) डाटा साझा करने की प्रक्रिया रोक दी थी. हालांकि बीच-बीच में कुछ समय के लिए डाटा देना चालू किया गया था लेकिन सीमा पर तनाव होने के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था.
चीन ने अपने बयान में जल्द से जल्द वीज़ा की सुविधा देने में व्यावहारिक प्रगति करने की बात कही, जबकि भारत के बयान में वीज़ा के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
रक्षा मामलों के विशेषज्ञ और येल यूनिवर्सिटी के लेक्चरर सुशांत सिंह मुलाक़ात के बाद बीजिंग के रवैये पर सवाल उठा रहे हैं.
सुशांत सिंह लिखते हैं, “वांग-जयशंकर की मुलाक़ात के एक दिन बाद चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है वो बीजिंग की तरफ से दिल्ली के लिए बहुत ‘दोस्ताना’ नहीं है. किसी मुद्दे पर कुछ मानना या समझौता करने को तैयार रहना तो दूर की बात है.”
‘एकतरफ़ा दृष्टिकोण के ख़िलाफ़ भारत’
चीन ने अपने बयान में दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ाने को महत्व दिया है जबकि भारत का फ़ोकस पहले रिश्ते सामान्य करने पर ज़्यादा है.
विदेश मंत्री जयशंकर ने बयान में कहा कि भारत प्रभुत्व स्थापित करने के लिए एकतरफ़ा दृष्टिकोण के ख़िलाफ़ हैं और भारत अपने संबंधों को अन्य देशों के नज़रिए से नहीं देखता है.
शिव नादर यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर और चीनी मामलों के विशेषज्ञ जबिन टी जैकब जयशंकर के इस बयान को चीनी प्रभुत्व को चुनौती देने वाला मानते हैं.
जबिन टी जैकब कहते हैं, “चीन का मानना है कि भारत को अमेरिका से व्यापारिक रिश्ते कम कर देने चाहिए. चीन चाहता है कि अमेरिका के ख़िलाफ़ चीन की लड़ाई में भारत उसका साथ दे, लेकिन भारत को यह किसी क़ीमत पर स्वीकार नहीं होगा. इसलिए जयशंकर ने ऐसा बयान दिया है.”
भारत ने अपने बयान में बहुध्रुवीय एशिया समेत बहुध्रुवीय दुनिया के लिए प्रतिबद्धता की बात कही है जबकि चीन ने अपने बयान में एशिया का कोई ज़िक्र नहीं किया बल्कि सिर्फ़ बहुध्रुवीय दुनिया की बात कही है.
जब कज़ान में मोदी-शी की मुलाक़ात हुई थी तब भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति थी. तब चीन ने अपने बयान में बहुपक्षीय दुनिया की बात कही थी लेकिन भारत ने बहुपक्षीय एशिया पर ध्यान दिया था.
जबिन टी जैकब कहते हैं, “भारत की फिलहाल दुनियाभर की तुलना में एशिया में ज़्यादा दिलचस्पी है. लेकिन चीन एशिया के स्तर पर टॉप देशों में है और फिलहाल उसकी नज़र अमेरिका और पश्चिमी देशों को चुनौती देने पर है.”
चीन दुनिया भर में अमेरिका के दबदबे को ख़ारिज करता रहा है इसलिए बहुपक्षीय एशिया की बात करता है जबकि भारत का मानना है चीन एशिया में दबदबा बढ़ा रहा है इसलिए बहुपक्षीय एशिया ज़रूरी है.
दूसरी तरफ़ चीन ने अपने बयान में ख़ुद को ग्लोबल साउथ से जोड़कर दिखाया है वहीं भारत ने चीन को ग्लोबल साउथ के रूप में नहीं बताया है.
जाने-माने रक्षा विश्लेषक प्रवीण साहनी का कहना है, “जयशंकर ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत बहुध्रुवीय एशिया में चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करेगा. इसका उदाहरण ब्राज़ील के जी20 शिखर सम्मेलन में देखने को मिला जहां पीएम मोदी द्वारा ग्लोबल साउथ लीडरशिप का नेतृत्व करने की कोशिश की गई. वास्तविकता यह है कि चीन के पैसे, समर्थन और तकनीक के बिना वैश्विक दक्षिण देशों का विकास गति खो देगा.”
प्रवीण साहनी आगे लिखते हैं, “अगर भारत चीन के साथ संबंधों को सामान्य बनाता है तो 19 ट्रिलियन डॉलर की चीनी अर्थव्यवस्था के सामने 4 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था का भारत ख़ुद को ग्लोबल साउथ लीडर के रूप में पेश नहीं कर पाएगा. प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं कि उनकी वास्तविकता की परवाह किए बगैर उनका मूल्यांकन ड्राइवर की सीट पर किया जाए. इस तरह भारत-चीन के बीच सामान्य संबंधों को ख़ारिज कर दिया जाता है, ठीक उसी तरह जैसे भारत-पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता नहीं होगी.”
भारत-चीन के बीच सीमा विवाद
1949 में माओत्से तुंग ने पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का गठन किया. एक अप्रैल 1950 को भारत सरकार ने इसे मान्यता दी और राजनयिक संबंध स्थापित किया. चीन को इस तरह तवज्जो देने वाला भारत पहला ग़ैर-कम्युनिस्ट देश बना.
1954 में भारत ने तिब्बत को लेकर भी चीनी संप्रभुता को स्वीकार कर लिया. मतलब भारत ने मान लिया कि तिब्बत चीन का हिस्सा है. तब ‘हिन्दी-चीनी, भाई-भाई’ का नारा भी लगा था.
जून 1954 से जनवरी 1957 के बीच चीन के पहले प्रधानमंत्री चाउ एन लाई चार बार भारत के दौरे पर आए और अक्टूबर 1954 में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी चीन गए.
इस दौरे में नेहरू की मुलाक़ात ना केवल प्रधानमंत्री से हुई, बल्कि पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के प्रमुख माओ से भी हुई.
दूसरी तरफ़ तिब्बत की हालत लगातार ख़राब हो रही थी और चीन का आक्रमण बढ़ता जा रहा था.
1950 में चीन ने तिब्बत पर हमला शुरू कर दिया और उसे अपने नियंत्रण में ले लिया. तिब्बत पर चीनी हमले ने पूरे इलाक़े की जियोपॉलिटिक्स को बदल दिया.
चीनी हमले से पहले तिब्बत की नज़दीकी चीन की तुलना में भारत से ज़्यादा थी और आख़िरकार तिब्बत एक आज़ाद देश नहीं रहा.
भारतीय इलाक़ों में भी अतिक्रमण की शुरुआत चीन ने 1950 के दशक के मध्य में शुरू कर दी थी. 1957 में चीन ने अक्साई चिन के रास्ते पश्चिम में 179 किलोमीटर लंबी सड़क बनाई.
सरहद पर दोनों देशों के सैनिकों की पहली भिड़ंत 25 अगस्त 1959 को हुई.
चीनी गश्त दल ने नेफ़ा फ्रंट्रियर पर लोंगजु में हमला किया था. इसी साल 21 अक्टूबर को लद्दाख के कोंगका में गोलीबारी हुई. इसमें 17 भारतीय सैनिकों की मौत हुई थी और चीन ने इसे आत्मरक्षा में की गई कार्रवाई बताया था.
भारत ने तब कहा था कि ‘उसके सैनिकों पर अचानक हमला कर दिया गया.’
2020 में दोनों देशों के बीच एक बार फिर सीमा विवाद खड़ा हो गया और इस दौरान भारत-चीन के सैनिक आमने-सामने आ गए थे. अब चार साल बाद बाद दोनों देश सीमा समझौते पर राज़ी हुए और बातचीत का दौर जारी है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित