महाराष्ट्र में बीजेपी के नेतृत्व वाला गठबंधन ‘महायुति’ बड़ी जीत की तरफ बढ़ रहा है.
राज्य की कुल 288 विधानसभा सीटों के नतीजों और रुझानों में महायुति गठबंधन 230 से ज़्यादा सीटों पर जीती है या आगे चल रही है, वहीं ‘महाराष्ट्र विकास अघाडी’ का आंकड़ा 50 से नीचे सिमट सकता है.
नतीजों में उद्धव ठाकरे की शिवसेना बुरी तरह से पिछड़ती हुई नजर आ रही है.
2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उद्धव ठाकरे की अविभाजित शिवसेना, बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए का हिस्सा थी. उस वक्त पार्टी ने 124 सीटों पर चुनाव लड़कर 56 सीटों पर जीत हासिल की थी.
पार्टी में टूट होने के बाद भी उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने लोकसभा चुनाव 2024 में अच्छा प्रदर्शन किया था. पार्टी ने राज्य की कुल 48 लोकसभा सीटों में से 9 पर जीत दर्ज की थी.
चुनाव से पहले ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के चुनावी रण में बड़े खिलाड़ी बनकर उभरेंगे, लेकिन नतीजों ने इन सब पर विराम लगा दिया है.
अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की राजनीति का अंत हो रहा है?
उद्धव की शिवसेना का भविष्य क्या है? क्या उन्होंने शिवसैनिकों के ‘सेनापति’ का ताज खो दिया है? और इस हार के पीछे सबसे बड़ी वजह क्या है?
मुख्यमंत्री की कुर्सी और पार्टी में टूट
साल 2019 के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने महाराष्ट्र की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया.
राज्य में ऐसी राजनीतिक उठापटक हुई कि कई नेताओं ने अपने सियासी पाले बदल लिए. उस वक्त उद्धव ठाकरे बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चलाने के लिए तैयार नहीं हुए.
बीजेपी में बेचैनी बढ़ी तो पार्टी ने एनसीपी के अजीत पवार के साथ सरकार बना ली और देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बने, हालांकि ये सरकार 80 घंटे से ज्यादा नहीं चल पाई.
बीजेपी के साथ दशकों पुराना साथ छोड़कर उद्धव ठाकरे ने राज्य में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के सहयोग से सरकार बना ली.
करीब ढाई साल बाद यानी जून 2022 में शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे ने राजनीतिक भूचाल ला दिया. उद्धव ठाकरे के विश्वासपात्र एकनाथ शिंदे ने पार्टी के 40 से ज्यादा विधायकों को साथ लिया और शिवसेना पर अपना दावा ठोक दिया.
शिवसेना में दो फाड़ के बाद बीजेपी के सहयोग से एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए. इतना ही नहीं कुछ दिन बाद एनसीपी में भी टूट हो गई और शरद पवार के भतीजे अजित पवार बीजेपी नेतृत्व वाली ‘महायुति’ सरकार में शामिल हो गए.
इतना ही नहीं जब असली शिवसेना को लेकर फैसले का समय आया तो महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर और चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे के पक्ष में फैसला सुनाया.
अब शिवसेना पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह एकनाथ शिंदे के पास है. हालांकि इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है, जिस पर अभी फैसला नहीं आया है.
उद्धव ठाकरे का भविष्य
विधानसभा चुनाव 2024 में उद्धव ठाकरे की शिवसेना के 95 उम्मीदवार मैदान में थे, जिसमें से फिलहाल 18 ही जीतते हुए नजर आ रहे हैं.
वरिष्ठ पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों को उद्धव ठाकरे के लिए आखिरी निर्णय नहीं मानते हैं.
वे कहते हैं, “उद्धव ठाकरे ने चुनाव में बार-बार कहा था कि इस बार जनता असली और नकली शिवसेना का फैसला करेगी. ऐसा लगता है कि ये फैसला हो गया है. जनता ने उद्धव की शिवसेना की बजाय एकनाथ की शिवसेना का चुना है.”
अनुराग चतुर्वेदी कहते हैं, “मुंबई, शिवसेना का गढ़ रहा है. यहां विधानसभा की करीब 36 सीटें आती हैं. इन चुनावों में खराब प्रदर्शन के बाद भी उद्धव ठाकरे अपना गढ़ बचाने में कामयाब रहे हैं. वे यहां करीब दर्जन से ज्यादा सीटों पर आगे चल रहे हैं.”
वे कहते हैं, “पिछले करीब दो दशकों से शिवसेना ने मुंबई से निकलकर ठाणे, कल्याण, कोंकण और मराठवाड़ा जैसे क्षेत्रों में फैलाव किया था, लेकिन इस बार इन क्षेत्रों में पार्टी को नुकसान हुआ है. उद्धव ठाकरे की छवि महाराष्ट्र के किसी एक इलाके तक सीमित नहीं थी, लेकिन नतीजों के बाद उनकी पैन महाराष्ट्र वाली छवि को नुकसान पहुंचा है.”
अनुराग कहते हैं कि आने वाले मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के नतीजे, उद्धव ठाकरे की राजनीति का भविष्य तय करेंगे.
ऐसी ही बात वरिष्ठ पत्रकार जयदेव डोले भी करते हैं. वे कहते हैं कि शिवसेना का जो मूल करेक्टर है वो अभी भी उद्धव ठाकरे के पास है.
वे कहते हैं, “पांच साल भले उद्धव ठाकरे सत्ता से दूर रहें लेकिन जब महाराष्ट्र में नगर पालिका और जिला परिषद के चुनाव होंगे तो असल में पता चलेगा कि शिवसैनिक किस तरफ खड़े हैं, क्योंकि विधानसभा चुनावों में एकनाथ शिंदे के साथ बीजेपी जैसी पार्टी का साथ है, जिनकी आर्थिक ताकत के सामने उद्धव ठाकरे बहुत कमजोर हैं.”
वहीं दूसरी तरफ वरिष्ठ पत्रकार सुधीर सूर्यवंशी कहते हैं कि कोई भी पार्टी एक चुनाव में खत्म नहीं होती है.
सुधीर कहते हैं, “अगर एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बनते हैं तो उद्धव ठाकरे की राजनीति खत्म हो जाएगी. मुख्यमंत्री ना रहने की स्थिति में शिंदे के पास वो ताकत नहीं रह जाएगी, जिसके चलते शिवसैनिक नाराज हो सकते हैं और वापस उद्धव ठाकरे का रुख कर सकते हैं.”
महाराष्ट्र की राजनीति में इस वक्त सबसे बड़ा सवाल यह है कि महायुति सरकार में मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा? क्या एकनाथ शिंदे पर फिर से भरोसा किया जाएगा?
नतीजों के बाद मतदाताओं को आभार व्यक्त करते हुए एकनाथ शिंदे ने कहा, “जिस तरह हमने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, उसी तरह तीनों दल एक साथ बैठेंगे और फैसला करेंगे.”
वरिष्ठ पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी कहते हैं कि अगर बीजेपी ने ‘यूज एंड थ्रो’ पॉलिसी के तहत एकनाथ शिंदे के कद को छोटा किया तो शिवसैनिक नाराज हो जाएंगे.
वे कहते हैं, “शिवसैनिकों का मिजाज है कि वे एक बार शिखर पर पहुंचकर घाटी में नहीं आना चाहते, वे चाहते हैं कि कुर्सी एकनाथ के पास रहे, जबकि बीजेपी एडजस्टमेंट करती है. वहां फडणवीस मुख्यमंत्री के बाद उप मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं.”
हिंदुत्व वोट बैंक में सेंधमारी
महाराष्ट्र की राजनीति में एक दौर ऐसा था जब शिवसेना अपने दबदबे के लिए जानी जाती थी. शिवसेना संस्थापक बालासाहेब ठाकरे ने कभी चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन ऐसा माना जाता है कि 1995 में बनी शिवसेना-बीजेपी गठबंधन सरकार को वे रिमोट कंट्रोल से चलाते थे.
अपने बेबाकी और कट्टर हिंदुत्व की राजनीति के चलते उनकी लोकप्रियता का दायरा ना सिर्फ मुंबई बल्कि महाराष्ट्र के बाहर भी था.
लेकिन साल 2019 में बीजेपी का साथ छोड़ने के बाद उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस और एनसीपी का हाथ पकड़ा और अपनी शिवसेना की उस कट्टर हिंदुत्व वाली छवि को बदलने का प्रयास किया, जहां ‘मुस्लिम वोटों की परवाह नहीं’ की जाती थी.
चुनाव प्रचार के दौरान जब उद्धव ठाकरे चेंबूर की मुस्लिम बस्ती पहुंचे थे तो उन्होंने कहा था, “मैं शायद पहली बार आपके सामने आया हूं, क्योंकि हमारे बीच एक दीवार थी. हम एक-दूसरे से लड़ाई करते थे.”
वरिष्ठ पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी मानते हैं कि इस छवि की वजह से जो हिंदुत्व का वोट था, वह कई हिस्सों में बंट गया.
वे कहते हैं, “महाराष्ट्र में हिंदुत्व का वोट उद्धव ठाकरे की शिवसेना, बीजेपी, एकनाथ शिंदे की शिवसेना और राज ठाकरे के बीच बंटा. हिंदुत्व का जो झंडा उद्धव ने उठाया हुआ था, उसका रंग थोड़ा उतर गया था, जिसका कुछ नुकसान उन्हें हुआ है. हालांकि कांग्रेस के पास जाने से उन्हें मुस्लिम वोट भी पड़े हैं.”
चतुर्वेदी कहते हैं कि विधानसभा चुनावों में राज ठाकरे ने 119 उम्मीदवार खड़े किए जबकि उनका बेटा तक अपनी सीट नहीं बचा पाया है. ऐसा सिर्फ मराठी अस्मिता और हिंदुत्व के नाम पर मिलने वाले वोटों को काटने के लिए किया गया.
माहिम विधानसभा सीट पर उद्धव ठाकरे की पार्टी के उम्मीदवार महेश सावंत ने राज ठाकरे के बेटे अमित राज ठाकरे को हरा दिया है. स्थिति यह है कि वे तीसरे नंबर पर आए हैं.
वहीं वरिष्ठ पत्रकार सुधीर सूर्यवंशी कहते हैं कि महाराष्ट्र की राजनीति में हिंदुत्व वोट बैंक सीमित है, लेकिन बीजेपी की बड़ी मशीनरी की वजह से उसका फैलाव ज्यादा हुआ है.
वे कहते हैं, “उद्धव ठाकरे के पास कोई खास जाति या समुदाय का वोट नहीं है. बीजेपी ने ओबीसी राजनीति के साथ साथ हिंदुत्व का तड़का लगाया है, जिससे उन्हें इतनी बड़ी जीत मिली है.”
महाराष्ट्र की हिंदुत्व का वोट बैंक सीमित था, लेकिन बीजेपी की मशीनरी की वजह से वो बढ़ी. केंद्र और राज्य में सत्ता होने से उनका फुटप्रिंट बढ़ा और उद्धव सीमित होते गए.
उद्धव ठाकरे के पास खास जाति और समुदाय का वोट बैंक नहीं है. बीजेपी ने ओबीसी राजनीति और ऊपर से हिंदुत्व का तड़का और इसके साथ पैसा. ये बंपर जीत की एक बड़ी वजह हो सकती है.
‘बटेंगे तो कटेंगे’ का असर
महाराष्ट्र की राजनीति में इस बार ‘बटेंगे तो कटेंगे’ का नारा खूब सुनाई दिया. ये नारा उछलते ही बीजेपी के प्रचार अभियान का हिस्सा बन गया, जिसे लेकर काफी खींचतान भी रही.
इस नारे की आलोचना बढ़ी तो बीजेपी ने ‘एक हैं तो सेफ है का नारा दिया’. इन नारों को ध्रुवीकरण की राजनीति से जोड़कर देखा गया.
लेकिन वरिष्ठ पत्रकार जयदेव डोले कहते हैं कि महाराष्ट्र में इस बार कहीं कोई हिंदू-मुसलमान नहीं था, बल्कि इन नारों का इस्तेमाल बीजेपी ने ओबीसी वर्ग को मराठों के खिलाफ एकजुट करने के लिए किया.
वे कहते हैं, “ये नारे ओबीसी समाज के लिए थे कि आप लोग मराठों के खिलाफ खड़े हो जाओ. देवेंद्र फडणवीस तो यहां तक कहने लगे थे कि बीजेपी के डीएनए में ओबीसी चलता है. ये नारे ओबीसी की राजनीति को चलाने के लिए इस्तेमाल किए गए थे, जिनका लाभ बीजेपी को मिला.”
जयदेव कहते हैं, “महाराष्ट्र में मराठों की राजनीति को नेस्तनाबूद करने के लिए बीजेपी ने ओबीसी को पकड़कर जो चाल चली थी, वे उसमें कामयाब हुए हैं और अब महाराष्ट्र मराठों के हाथ से पूरा निकल गया है.”
वहीं अनुराग चतुर्वेदी कहते हैं कि ये बीजेपी के लिए स्वर्णिम महाराष्ट्र है, लेकिन अभी सबसे बड़ा सवाल मुख्यमंत्री को लेकर है.
उनका कहना है कि इस सवाल का जवाब मिलने के बाद राज्य की राजनीति में उठापटक की चिंगारी फिर से सुलग सकती है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित