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गुरुवार को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का जहाज़ जब नई दिल्ली में उतरा तो भले ही मौसम में दिसंबर की हल्की ठंड का असर रहा हो लेकिन भारत और रूस के संबंधों की गर्मजोशी भी हवा में लोग महसूस कर पा रहे थे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद एयरपोर्ट पर राष्ट्रपति पुतिन का स्वागत किया. रेड कार्पेट पर स्वागत के साथ ही रूसी राष्ट्रपति को ‘गार्ड ऑफ़ ऑनर’ दिया गया.
इसके बाद राष्ट्रपति भवन में अगली सुबह औपचारिक भव्य स्वागत. यानी हर तरह से भारत की ओर से यह संकेत साफ़ तौर पर दिया जा रहा था कि भारत और रूस की दोस्ती ख़ास है.
यह इतिहास के पन्नों से निकली और समय की कसौटी पर परखी गई दोस्ती है.
दोनों देशों के संबंधों को अगर आंकड़ों की नज़र से देखें तो पता चलता है कि दोनों देशों के बीच का व्यापार जो 5 साल पहले 8 अरब डॉलर का था अब 68 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है.
प्रतिबंधों के बावजूद भारत का रूस से कच्चा तेल खरीदना जारी है. भारतीय सेना आज भी रूस से मिले हथियारों पर भरोसा करती है.
इससे पहले जब रूसी राष्ट्रपति पुतिन लगभग 4 साल पहले भारत आए थे, तब से अब की दुनिया में काफ़ी बदलाव आ चुका है. उस यात्रा के बाद रूस ने यूक्रेन पर हमला किया और इसकी वजह से वह दुनिया में काफी अलग-थलग पड़ा.
अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की राष्ट्रपति के रूप में वापसी हुई. भारत के साथ अमेरिका के रिश्ते तनाव भरे दौर में हैं और रूस के चीन से रिश्ते काफ़ी मजबूत हुए हैं.
ऐसे हालात में जब पश्चिमी देश रूस को अलग-थलग करने में लगे हैं तब भारत क्यों उसके इतना क़रीब खड़ा है, यह यात्रा इतनी अहम क्यों मानी गई? इस दौरे का सबसे बड़ा हासिल क्या था? अमेरिका इस दौरे को कैसे देख रहा होगा?
क्या रूस सचमुच में अलग-थलग हो रहा है या वो दुनिया की राजनीति के भविष्य में एशिया को देखते हुए काम कर रहा है? रूस और चीन की नजदीकी के संदर्भ में भारत और रूस के संबंधों का भविष्य क्या होगा? और क्या यूक्रेन के मुद्दे पर चुप्पी रखकर यह संबंध आगे बढ़ाए जा सकते हैं?
बीबीसी हिन्दी के साप्ताहिक कार्यक्रम, ‘द लेंस’ में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म मुकेश शर्मा ने इन्हीं सब सवालों पर चर्चा की.
इस चर्चा में शामिल हुए दो ख़ास मेहमान. ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में एडजंक्ट प्रोफ़ेसर डॉक्टर अनुराधा मित्रा चेनॉय और मॉस्को से इस कार्यक्रम में जुड़े वरिष्ठ पत्रकार विनय शुक्ला.
इतनी अहम क्यों है यह यात्रा?

यह यात्रा भारत और रूस दोनों के लिए ही इतनी अहम क्यों है, इस पर अनुराधा मित्रा चेनॉय कहती हैं, “मेरे ख़्याल से रूस के लिए यह इसलिए अहम है क्योंकि वह दिखाना चाहते हैं कि वह आइसोलेटेड नहीं हैं. भले ही पश्चिमी देश उन्हें अलग-थलग करना चाहते हैं लेकिन यह रणनीति कामयाब नहीं रही. क्योंकि पश्चिम से बाहर के देशों भारत, चीन या अफ़्रीका और वेस्ट एशिया के ग्लोबल साउथ वाले देशों में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का आना स्वागत योग्य है. इसकी वजह यह है कि रूस ने बहुत लंबे समय तक इन देशों का साथ दिया है और अब ये देश उसका साथ दे रहे हैं. रूस के लिए यह ज़रूरी है.”
“भारत के लिए भी यह ज़रूरी है. दरअसल भारत 10 साल से यह कोशिश कर रहा था और उसने बहुत इन्वेस्ट किया है कि अमेरिका से रणनीतिक साझेदारी विकसित हो जाए. लेकिन जब से डोनाल्ड ट्रंप का दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ है तब से भारत का दर्जा रणनीतिक रूप से घटाया गया है. इसकी एक वजह तो यह है कि वह द्विपक्षीय संबंधों को बराबरी के दर्जे पर नहीं रखना चाहते. यहां तक कि यूरोप भले ही उनका पुराना साथी है लेकिन फिर भी वो उससे बराबरी का संबंध नहीं रख रहे, उनको हुक्म दे रहे हैं.”
“भारत ने उनके इस रवैये को स्वीकार नहीं किया. वह बार-बार कहते रहे कि भारत-पाकिस्तान के बीच जो चार दिन का संघर्ष था उसे उन्होंने रुकवाया है. भारत ने यह बात नहीं मानी. भारत ने कहा कि ‘यह दावा ग़लत है.’ क्योंकि वह (ट्रंप) एक बहुत अहंकारी व्यक्ति हैं तो उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगी.”
अनुराधा मित्रा कहती हैं, “दूसरी बात यह है कि वह (ट्रंप) ब्रिक्स के ख़िलाफ़ हैं. वह चाहते हैं कि वह फिर से दुनिया के बॉस बन जाएं, यूनिलैटरलिज़्म फिर से हासिल कर लें. उन्हें लगता है कि उनका ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का जो स्लोगन है, उसमें ब्रिक्स आड़े आ रहा है. उसमें भारत, चीन, इंडोनेशिया, तुर्की, दक्षिण अफ़्रीका आड़े आ रहे हैं.”
“बेशक वह यह भी चाहते हैं कि रूस पर भारत के माध्यम से दबाव डाला जाए. भारत रूस से तेल लेना बंद कर दे लेकिन रूस का तेल भारत के उद्योगों की रीढ़ है. एनर्जी के बिना आप आगे कैसे बढ़ सकते हैं? आप देख सकते हैं कि भारत ने पिछले 4 साल से रूस का डिस्काउंटेड तेल लिया है और हमारी तेल बास्केट बढ़ी है उसके साथ-साथ हमारी जीडीपी ग्रोथ दिख रही है. इसीलिए भारत उनके प्रेशर में नहीं आना चाहता.”

सबसे बड़ा हासिल क्या?
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इस यात्रा का सबसे बड़ा हासिल क्या रहा है, इस सवाल के जवाब में मॉस्को से वरिष्ठ पत्रकार विनय शुक्ला कहते हैं, “रूस अलग-थलग नहीं पड़ा है. दुनिया के दो सबसे बड़े देश भारत और चीन में उनका स्वागत होता है. और सिर्फ इस यात्रा की बात नहीं है. पिछले साल प्रधानमंत्री (मोदी) मॉस्को आए थे. भारत और रूस के बीच संगठनों के स्तर पर संबंध हैं. कई जॉइंट कमीशन हैं, जो चलते रहे हैं और चलते रहेंगे.”
“बहुत सारे लोगों को उम्मीद थी कि कोई घोषणा होगी, कोई बड़ी डिफ़ेंस डील या ऐसा ही कुछ. लेकिन यह सब काम चुपके से होते हैं. मुझे याद है की सुखोई एसयू-30 एमकेआई की डील संडे को और बहुत दूर, जहां फैक्ट्री है वहां हुई थी. यह बहुत बड़ी डील थी उस समय की.”
विनय शुक्ला कहते हैं कि एक समय पर विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा था कि हमें भारत पर यकीन नहीं है कि वह कल अमेरिका के पक्ष में जा सकता है.
वह कहते हैं, “तो इस यात्रा में जिस तरह के बयान दिए गए हैं तो उनसे रूस को भी आश्वस्त किया गया कि देखो हम अपनी स्वायत्तता पर कायम हैं. इस तरह यह एक प्रतीकात्मक यात्रा भी है. फिर राष्ट्रपति पुतिन आए हैं तो 6 घंटे के लिए नहीं बल्कि 30 घंटे के लिए आए हैं. यह दिखाने के लिए कि वह भी भारत का उतना ही आदर करते हैं, जितना भारत की तरफ़ से हो रहा है. वह भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का समर्थन करते हैं.”
अमेरिका क्या सोच रहा होगा?

अमेरिका के साथ व्यापार को लेकर बातचीत अभी चल रही है. ऐसे में अमेरिका इस यात्रा को कैसे देख रहा होगा?
अनुराधा कहती हैं, “तीन-चार सालों से अमेरिका ने बहुत कोशिश की है कि वह भारत पर दबाव डाले. वह दो चीजों पर दबाव डाल रहे हैं. एक तो वह कह रहे हैं कि आपके संबंध चीन के साथ बहुत ठीक नहीं हैं, तो उसमें हम ही आपकी मदद कर सकते हैं. यानी कि आप हमारे प्रॉक्सी बन जाओ क्योंकि चीन से हमें ख़तरा सबसे ज़्यादा है.”
“भारत यह नहीं चाहता. भारत का कहना है कि उसके चीन के साथ कुछ विवाद हैं लेकिन उन्हें हम दोनों मिलकर निपटाएंगे. इसमें हमें किसी तीसरे पक्ष, चाहे वह आप हों या कोई और, की ज़रूरत नहीं है. दरअसल सारी दुनिया ने देख लिया है और उनका प्रॉक्सी बनकर कोई भी यूक्रेन नहीं बनना चाहता.”
वह आगे कहती हैं, “दूसरा प्रेशर रूस को लेकर है कि आप उन्हें छोड़िए और हमारे कैंप में आ जाइए. अमेरिका को स्ट्रैटेजिक ऑटोनॉमी या रणनीतिक स्वायत्तता की कोई समझ ही नहीं है. वह एक एकांगी, श्रेष्ठतावादी और वर्चस्ववादी शक्ति है. वह अब भी सबसे बड़ी ताकत है. तो उसे लगता है कि जो उसके पास आएंगे उसे फ़ायदा होगा.”
“जब भारत नहीं आया उसके पक्ष में तो उसने सोचा कि फिर से पाकिस्तान को साथ जोड़ लो. वह तो था ही पहले हमारे साथ. लेकिन अब फिर से पाकिस्तानी आर्मी अमेरिका के लिए फ़ायदेमंद है. उसके ज़रिए वह ईरान, वेस्ट एशिया, सेंट्रल एशिया, अफ़गानिस्तान में अपने हित साध सकता है. इसलिए अब वह पाकिस्तान से सीधी बात कर रहा है…कुछ महीनों में आसिम मुनीर दो बार मिल चुके हैं.”
अमेरिका की नीति या ट्रंप की?
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इसी से एक सवाल यह भी उभरता है कि इसे अमेरिका की नीति के रूप में देखना चाहिए या फिर डोनाल्ड ट्रंप की नीति के रूप में क्योंकि वह बहुत खास तरह से अपनी नीतियां चलाते हैं? और अगर कल को डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति नहीं रहे तो क्या चीज़ें बदलेंगीं?
अनुराधा मित्रा इस सवाल को बहुत ही महत्वपूर्ण बताते हुए कहती हैं, “भारत में भी बहुत सारे लोग यह सोच रहे हैं कि 4 साल में सब ठीक हो जाएगा, अब तो तीन साल रह गए हैं. लेकिन मेरा मानना अलग है. दरअसल दो-तीन दिन पहले, अमेरिका का नेशनल सिक्योरिटी अपग्रेड 2025, आया है. उसके अनुसार यह एक स्ट्रक्चरल चेंज है.”
“ट्रंप बोलते हैं लेकिन नीति वह नहीं बनाते हैं. यह अमेरिकन डीप स्टेट है उसमें हज़ारों लाखों एडवाइज़र्स हैं, पेंटागन और दूसरे सिस्टम हैं. यह एक सिस्टम की बात है. मेरे ख्याल से यह एक लॉन्ग टर्म स्ट्रैटेजिक इंटरेस्ट है जो उनको भारत से दूर कर रहा है.”
अनुराधा कहती हैं, “अगर भारत उनकी बात सुने और चीन के ख़िलाफ़ उनको एक बेस बनाने दे… जो कि जापान कर सकता है या साउथ कोरिया कर सकता है तो बात अलग होगी. लेकिन अगर भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखते हुए रूस के साथ संबंध कायम रखे, चीन के साथ अपने स्तर पर द्विपक्षीय बातचीत करता रहे तो फिर उन्हें लगता है कि भारत का उन्हें कोई फ़ायदा नहीं है.”
एशिया पर दांव लगा रहा है रूस?
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यूक्रेन युद्ध को देखते हुए यूरोप और रूस के बीच में एक दूरी दिखाई पड़ती है. अमेरिका लगातार कोशिश कर रहा है कि सीज़फ़ायर हो जाए लेकिन उसमें सफलता मिलती नहीं दिख रही. इस बीच रूस और चीन के संबंध और गहरे हुए हैं. रूस भारत के संबंध अच्छे बनाए रख रहा है… तो क्या रूस एशिया पर या जिसे ग्लोबल साउथ कहते हैं, उस पर अपना दांव लगा रहा है, क्योंकि कहा जाता है कि भविष्य एशिया का है.
विनय शुक्ला इससे सहमति जताते हैं, “पुतिन की पॉलिसी लुक ईस्ट या एशिया के समर्थन वाली है. हालांकि कुछ लोग उसके ख़िलाफ़ हैं. ये पैसे वाली क्लास है जो पॉलिटिकली तो चुप रहते हैं और जो क्रेमलिन करता है उसे करने देते हैं लेकिन उनके परिवार यूरोप और अमेरिका में सैटल हैं. इसलिए वह इस सबसे खुश नहीं रहते.”
“रूस अब अधिनायकवादी देश नहीं रह गया है और अब आपको इंटरनेट, रेडियो में कई तरह के विचार, आर्टिकल दिखते हैं. इनमें कहा जाता है कि हमें एशिया से क्या मिलेगा, टेक्नोलॉजी उनके पास है नहीं और वैसे भी सांस्कृतिक रूप से हम यूरोप का हिस्सा है.”
शुक्ला कहते हैं, “पुतिन अपने पर्सनल रिलेशन राष्ट्राध्यक्षों के साथ बनाकर रखते हैं. वह खाड़ी के देशों में भी जा रहे हैं वहां के प्रमुख भी आते हैं मॉस्को. जैसे कि सऊदी अरब को न्यूक्लियर प्लांट बनाने में मदद करने का प्रस्ताव दिया है. पुतिन चाहते हैं कि तुर्की और उससे आगे एशिया तक उनका प्रभाव हो.”
संतुलन साधने की चुनौती
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भारत और अमेरिका के बीच जो अभी व्यापार वार्ताएं चल रही हैं, यानी कि भारत चाहता है कि अमेरिका के साथ व्यापार वार्ताएं चलती रहें और जो टैरिफ़ है वह मैनेजेबल लिमिट में रहे. अमेरिका भी संबंध बनाए हुए है. ऐसे में अमेरिका और रूस दोनों के साथ संबंध बनाकर रखना भारत के लिए चुनौती है?
अनुराधा मित्रा कहती हैं, “अमेरिका की कोशिश है कि रूस से भारत में तेल न आए. दूसरा, अमेरिका चाहता है कि हम अपना कृषि क्षेत्र, जिसमें डेयरी, कॉर्न और सोया शामिल है, को अमेरिका के लिए खोल दे. लेकिन जब अमेरिका के जेनेटिकली मोडिफ़ाइड एग्रीकल्चर उत्पाद बड़े पैमाने पर भारत में आ जाएंगे तो भारत के किसानों का क्या होगा? इसी वजह से व्यापार वार्ताएं रुकी हुई हैं.”
“भले ही रूस के साथ हमारी साझेदारी विशेष और ऐतिहासिक है, इसमें स्थायित्व भी है लेकिन फिर भी इसमें बड़ी घोषणा नहीं हुई. दरअसल वह चाहते हैं अमेरिका और रूस दोनों के साथ भी कुछ न कुछ संबंध बने रहें. इसमें अनिश्चितता लगती है लेकिन दोनों के बीच संतुलन बनाकर चलने की कोशिश है.”
हमने मौका गंवा दिया, चीन ने लपक लिया

भारत और रूस का व्यापार रूस के पक्ष में झुका हुआ है. भारत की कोशिश है कि वह रूस को निर्यात बढ़ाए ताकि ट्रेड बैलेंस हो सके. क्या दोनों देशों के बीच इसकी गुंजाइश है?
विनय शुक्ला कहते हैं, “बिल्कुल है. करीब 20 साल हो गए हमने बहुत सारे मौके गंवा दिए, जिन्हें चीनियों ने लपक लिया. रूस के पास बहुत सारी खाली ज़मीन है लेकिन वहां लोग नहीं हैं और मार्केट भी नहीं है. साउथ रूस में और साइबेरिया में ग्रीन हार्वेस्टिंग का बहुत स्कोप है.”
“एक ज़माने में यह बात हुई थी कि भारत कुछ जमीन लेना चाहता था जहां हम अपनी ज़रूरत की फ़सलों को उगा सकें. चीन ने यही काम सुदूर पूर्व में किया है.”
शुक्ला कहते हैं, “डेयरी फार्मिंग में रूस में बहुत स्कोप है. आप घंटों तक चलते रहेंगे तो कोई आदमी नहीं मिलेगा लेकिन वहां गाय आराम से चर सकती हैं, दूध हो सकता है, घी-मक्खन बनाया जा सकता है, भारत भेजा जा सकता है.”
“इसके अलावा रूस का डिफ़ेंस सेक्टर बहुत एडवांस है. स्पेस टेक्नोलॉजी उनके पास अमेरिका से भी पहले थी. उन्होंने भारत को हाइ एंड टेक्नोलॉजी देने का ऑफ़र किया था.”
भारत और रूस के संबंधों की बात करें तो एक किरदार स्वाभाविक रूप से है वह चीन. रूस के संबंध पिछले कुछ समय में चीन के साथ जिस तरह से बढ़े हैं उसे देखते हुए यह भी कहा जाता है कि चीन को संतुलित करने के लिए भारत ने रूस के साथ अपने संबंध अच्छे रखे हैं.
चीन-भारत के संबंध और रूस की भूमिका
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पिछले समय जब तीनों देशों के नेता एक साथ दिखे तो उस समय की तस्वीर की भी बात हुई थी लेकिन जब हम इन तीनों देशों को अलग-अलग देखते हैं तो भारत की कोशिश होती है कि वह चीन के साथ संबंधों में खुद को मजबूत देश के रूप में दिखाए और उसे बैलेंस करने की कोशिश हो. इसमें रूस की भूमिका क्या है इस समय?
अनुराधा मित्रा कहती हैं, “रूस और चीन बहुत करीब हैं बहुत सारे स्तर पर. सिर्फ़ द्विपक्षीय संबंधों की बात नहीं है, मिलिट्री पॉवर और टेक्नोलॉजी में भी. इसके अलावा जो पावर ऑफ़ साइबेरिया, जो डायरेक्ट गैस पाइपलाइन है साइबेरिया से चीन के लिए और अब ये दूसरी पाइपलाइन पॉवर ऑफ साइबेरिया-2 बना रहे हैं. दूसरी तरफ़ रूस का मार्केट अटा हुआ है चीनी सामान से.”
“कई बार भारत के रणनीतिकारों को लगता है कि चीन और रूस इतने करीब हो गए हैं तो भारत का क्या होगा? लेकिन रूस का यह कहना है कि वह इस संबंध को एक-दूसरे से जुड़ा हुआ नहीं मानता. जैसे कि हम लोग अमेरिका के करीब होना चाहते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम रूस को छोड़ देंगे. रूस का यह भी मानना है कि भारत चीन और रूस के बीच में एक बैलेंस का भी काम करता है क्योंकि उन्हें भी चीन को लेकर कुछ संदेह हैं. चाहे कितनी भी बातचीत हो जाए लेकिन रूस को लगता है कि यह एक बहुत ही दबाव बनाने वाला देश है और यह लगातार आगे बढ़ता ही जाएगा.”
वह आगे कहती हैं, “अब भारत और चीन, रूस और चीन के बीच में बहुत ज्यादा फ़र्क आ गया है. अब यह एक असमान संबंध है. अब अमेरिका और चीन के संबंध एकसमान हैं और अमेरिका यह बात हजम नहीं कर पा रहा है. इसलिए यह जियो पॉलिटिकल सिचुएशन है, जहां हमें देखना होगा कि रूस और चीन की इक्वेशन से हमारा कोई नुकसान नहीं होगा क्योंकि रूस एक बहुत स्वतंत्र देश है और वह चीन का पिछलग्गू नहीं हो सकता. मुझे लगता है कि हमारे संबंध बढ़ सकते हैं. पहले भी इससे भारत और रूस को फ़ायदा हुआ है और आगे भी हो सकता है.”
रिश्तों को गति देने की कोशिश
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भारत और रूस के संबंधों का एक इतिहास रहा है. आज के हालात में इस यात्रा को देखा जाए… जो रिश्ता चल रहा था उसे वैसे ही जारी रखा जा रहा है, यह यात्रा उसी की अगली कड़ी है या जो रिश्ता था, यह यात्रा उसे एक नई गति देने की कोशिश है?
अनुराधा मित्रा कहती हैं, “भारत-रूस के संबंध में रीसेट की ज़रूरत नहीं है. चाहे वह प्रधानमंत्री हों या रक्षा मंत्री हों, वो कह रहे हैं कि पिछले 25 साल में, जब से पुतिन आए हैं यह संबंध बढ़ते ही जा रहे हैं. यह एक लगातार चल रही प्रक्रिया है. इसमें एक अस्थिरता दिख रही है और मुझे लगता है कि ये और बढ़ेगी.”
“आप अगले एक-दो साल में देखेंगे कि कुछ रक्षा क्षेत्र से जुड़ी कुछ बड़ी घोषणाएं होंगी, स्मॉल न्यूक्लियर पॉवर आएगी, लेबर मोबिलिटी आएगी… जो फ़्रेमवर्क है, उसमें सिर्फ रूस नहीं बल्कि यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन के साथ फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट होने जा रहा है. इसी तरह वीज़ा और लेबर मोबिलिटी में बात आगे बढ़ेगी.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.