भले ही टूटे हुए रिश्ते भावनात्मक रूप से परेशान करते हैं लेकिन इसका अपने आप यह मतलब नहीं होता कि आत्महत्या के लिए उकसाया गया है और अगर कोई इरादा ना हो तो यह मामला दण्डनीय अपराध के अंतर्गत नहीं आता। वहीं यह बात शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कही।
पीटीआई, नई दिल्ली। भले ही टूटे हुए रिश्ते भावनात्मक रूप से परेशान करते हैं, लेकिन इसका अपने आप यह मतलब नहीं होता कि आत्महत्या के लिए उकसाया गया है और अगर कोई इरादा ना हो तो यह मामला दण्डनीय अपराध के अंतर्गत नहीं आता। यह बात शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कही।
इसके साथ ही अदालत ने कर्नाटक हाई कोर्ट के उस आदेश को भी खारिज कर दिया जिसमें कमरुद्दीन दस्तगीर सनादी को आइपीसी के अंतर्गत धोखा देने और आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में दोषी करार दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह टूटे हुए रिश्ते का मामला है ना कि आपराधिक कृत्य।
सनादी के ऊपर आइपीसी की धारा 417 (धोखा), 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) और 376 (दुष्कर्म) के आरोप लगाए गए थे। पुलिस एफआइआर में एक महिला ने आरोप लगाया था कि उसकी 21 वर्षीय बेटी आठ वर्षों से प्रेम में थी और आरोपित के शादी के वादे से मुकर जाने के बाद उसने अगस्त 2007 में आत्महत्या कर ली।
जमानत याचिकाएं खारिज करते हुए मुकदमे के निपटारे के लिए समय तय करना ठीक नहीं : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने जमानत याचिकाएं खारिज करते हुए मुकदमे की सुनवाई पूरी करने का समय तय करने के उच्च न्यायालयों के निर्देशों पर आपत्ति जताई और कहा कि इन्हें लागू करना कठिन है। इनसे वादियों में झूठी उम्मीद जगती है। ऐसे निर्देशों से निचली अदालतों के कामकाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, क्योंकि कई निचली अदालतों में एक ही तरह के पुराने मामले लंबित हो सकते हैं।जस्टिस अभय एस. ओका और आगस्टीन जार्ज मसीह की पीठ ने कहा कि हम हर दिन देख रहे हैं कि विभिन्न उच्च न्यायालय जमानत याचिकाएं खारिज करते हुए मुकदमों के निपटारे के लिए समयबद्ध कार्यक्रम तय कर रहे हैं। शीर्ष अदालत ने यह आदेश एक व्यक्ति को जमानत देते हुए पारित किया, जो जाली नोटों के मामले में ढाई साल से जेल में है।
कहा कि मुकदमा उचित समय में पूरा होने की संभावना नहीं है और अपीलकर्ता इस स्थापित नियम के अनुसार जमानत पर रिहा किए जाने का हकदार है कि जमानत नियम है और जेल अपवाद है। प्रत्येक अदालत में आपराधिक मामले लंबित हैं, जिनका कई कारणों से शीघ्र निपटारा आवश्यक है।पीठ ने 25 नवंबर के अपने फैसले में कहा कि केवल इसलिए कि कोई व्यक्ति हमारी संवैधानिक अदालतों में याचिका दायर करता है, उसे बिना बारी के सुनवाई का मौका नहीं दिया जा सकता। अदालतें शायद जमानत याचिकाएं खारिज करते हुए मुकदमे के लिए समयबद्ध कार्यक्रम तय करके आरोपित को कुछ संतुष्टि देना चाहती हैं। ऐसे आदेशों को लागू करना मुश्किल है।