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- Author, जाफ़र रिज़वी
- पदनाम, पत्रकार, लंदन
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“मारना नहीं…कोई ग़लत काम नहीं करो…जो भी मुक़दमे हैं, उसे (अदालत) में पेश करो. एनकाउंटर नहीं करना.” आसिफ़ ज़रदारी ने रहमान (डकैत) को हिरासत में लेने वाले पुलिस अधिकारी चौधरी असलम से यह बात कही.
इस्लामाबाद बल्कि ‘रावलपिंडी’ तक पहुंच रखने वाले यह राजनेता पाकिस्तान से बाहर हुई एक मुलाक़ात में मुझे रहमान डकैत की कहानी सुना रहे थे.
चाहे आप पीपल्स अमन कमेटी के संस्थापक सरदार अब्दुल रहमान बलोच कहें या कराची अंडरवर्ल्ड का डॉन रहमान डकैत… यह ऐसे किरदार की कहानी है जिसने आंख तो शहर के पिछड़े इलाक़े में खोली मगर ल्यारी गैंग के इस ‘क्राइम लॉर्ड’ की पहुंच पुलिस और सेना की ख़ुफ़िया संस्थाओं के शीर्ष अधिकारियों तक ही नहीं बल्कि देश के राष्ट्रपति तक भी रही.
वह नेता जिन्होंने मुझे यह कहानी सुनाई ख़ुद भी कई सरकारों का हिस्सा रहे मगर वो कराची ‘अंडरवर्ल्ड’ के बारे में भी बहुत कुछ जानते हैं.
फ़िल्म ‘धुरंधर’ में अक्षय खन्ना ने इसी रहमान डकैत की भूमिका निभाई है जिसकी इस वक़्त हर ओर चर्चा हो रही है.
18 जून 2006 को क्वेटा से रहमान डकैत को आख़िरी बार ग़िरफ़्तार किया गया. हालांकि सरकारी तौर पर इस ग़िरफ़्तारी को कभी ज़ाहिर नहीं किया गया.
इस दौरान ख़ुद रहमान बलोच (रहमान डकैत) ने तफ़्तीश करने वाले अधिकारियों के सामने क़बूल किया कि वो अपनी मां की हत्या समेत 79 वारदातों में शामिल था.
बीबीसी को रहमान बलोच पर मिली तफ़्तीशी रिपोर्ट बेहद ख़ुफ़िया सरकारी दस्तावेज़ थी जो केवल उनके अपराध ही उजागर नहीं करती बल्कि राजनीति और अपराध के घिनौने गठजोड़ को भी ज़ाहिर करती है.
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इस रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र है कि कैसे 13 साल की उम्र से अपराध की शुरुआत करके रहमान बलोच ‘अंडरवर्ल्ड डॉन’ बना. इस दौरान कैसे उसने बड़े-बड़े नेताओं, जातीय संगठनों और बिज़नेसमैन से संबंध बनाए.
कराची बंदरगाह के दोनों ओर अलग-अलग दुनिया आबाद है. एक तरफ़ मौलवी तमीज़ुद्दीन ख़ान रोड है और दूसरी तरफ़ एमए जिन्ना रोड.
मौलवी तमीज़ुद्दीन ख़ान रोड पार कर ली जाए तो शहर की सबसे अमीर आबादी और सबसे महंगे मनोरंजन स्थल हैं.
इस बंदरगाह के दूसरी तरफ़ एमए जिन्ना रोड के पीछे ल्यारी है. ग़रीबी के साथ बेरोज़गारी के माहौल में बनने वाला अपराध का गढ़.
शहर के दक्षिण से पश्चिम तक कराची की सबसे पुरानी लेकिन बेहद ग़रीब दर्जनों बस्तियां फैली हैं. यहां पर अपराध का बड़ा साम्राज्य पनपता है.
वैसे दिलचस्प यह है कि इसी ल्यारी से ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो और उनकी बेटी बेनज़ीर भुट्टो प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे तो वहीं बाबू डकैत और रहमान बलोच अपराध की दुनिया में शीर्ष तक पहुंचे.
रहमान डकैत का परिवार
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पाकिस्तान सरकार के दस्तावेज़ों के अनुसार अब्दुल रहमान (या रहमान डकैत) का जन्म 1976 में दाद मोहम्मद उर्फ़ दादल के घर हुआ. रहमान की मां दादल की दूसरी बीवी थीं.
रहमान के एक फ़र्स्ट कज़न ने मुझे बताया कि रहमान के पिता चार भाई थे. दाद मोहम्मद (दादल), शेर मोहम्मद (शेरू), बेक मोहम्मद (बेकल) और ताज मोहम्मद.
उनका कहना था कि दादल ने ल्यारी में कई कल्याणकारी काम भी किए.
‘बच्चों के लिए लाइब्रेरी, बड़ों के लिए ईदगाह, महिलाओं के लिए सिलाई-कढ़ाई सेंटर और युवाओं के लिए बॉक्सिंग क्लब बनाए’.
लेकिन तफ़्तीशी दस्तावेज़ और पुलिस, सेना और ख़ुफ़िया संस्थाओं के अधिकारी कुछ और ही कहानी सुनाते हैं.
कराची पुलिस के एक पूर्व प्रमुख ने मुझे बताया कि दादल और उनके भाई शेरू दोनों ही ड्रग्स के धंधे से जुड़े रहे. पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार शेरू हिस्ट्रीशीटर भी था.
लेकिन शेरू दादल गैंग ल्यारी में ड्रग्स के धंधे या दूसरे अपराधों का अकेला ठेकेदार बिल्कुल नहीं था. इक़बाल उर्फ़ बाबू डकैत का गैंग भी पास के मोहल्ले कलरी में ड्रग्स के धंधे का बड़ा नेटवर्क चलाता था और तीसरी ओर था हाजी लालू का गिरोह जो जहांबाद, शेरशाह क़ब्रिस्तान और पुराना गोलीमार जैसे इलाक़ों में रंगदारी, ड्रग्स और उगाही का धंधा चलाता था.
ल्यारी के पूर्व एसपी फ़ैयाज़ ख़ान का कहना था, “एक ही धंधे से जुड़े उन बहुत से गिरोहों के बीच धंधे में प्रतिद्वंद्विता भी थी और क्षेत्र का विवाद भी. इन गिरोहों के परस्पर विरोध कई बार ख़ूनी झड़पों में भी बदल जाते थे. ऐसी ही एक झड़प में रहमान बलोच का चाचा ताज मोहम्मद विरोधी गिरोह बाबू डकैत के हाथों मारा गया था.”
रहमान की कहानी सुनाने वाले नेता ने बताया, “तब रहमान की दोस्ती दो भाइयों रऊफ़ नाज़िम और आरिफ़ से हुई जिनके पिता हसन उर्फ़ हसनूक भी ड्रग्स के धंधे में थे. ड्रग्स और अपराध से जुड़ी पृष्ठभूमि रखने वाले उन सभी युवाओं की दोस्ती धीरे-धीरे एक आपराधिक गिरोह में ढल गई जिसका सरगना था आरिफ़ नाज़िम. रहमान तो बाद में सरगना बना, लेकिन मूल रूप से यह आरिफ़ का गैंग था.”
ड्रग्स के धंधे से हुई थी शुरुआत
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कराची के पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक 13 साल की उम्र में रहमान ने 6 नवंबर 1989 को कलाकोट के हाजी पिक्चर रोड पर स्थित ग़ुलाम हुसैन की दुकान के पास पटाखा फोड़ने से मना करने पर मोहम्मद बख़्श नाम के व्यक्ति को छुरा मारकर घायल कर दिया.
एक अधिकारी ने बताया कि यह रहमान का अपराध की दिशा में पहला क़दम था.
पुलिस के अनुसार 1992 में ड्रग्स के धंधे में रहमान का झगड़ा नदीम अमीन और उसके साथी नन्नू से हुआ. यह दोनों ड्रग्स के सप्लायर थे.
पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार नदीम अमीन भी हिस्ट्रीशीटर था और उस पर लगभग तीस मुक़दमे दर्ज थे. रहमान और आरिफ़ ने नदीम और नन्नू दोनों की गोली मारकर हत्या कर दी. यह रहमान के हाथों हत्या की पहली वारदात थी.
रहमान के कज़न ने मुझे बताया कि 1988 में राशिद मिन्हास रोड से लगे इलाक़े डालमिया में ज़मीन के विवाद पर रहमान के चचेरे भाई फ़तेह मोहम्मद बलोच की हत्या हुई. इस हत्या का आरोप लगा ल्यारी की संगौ लेन के सुलेमान बिरोही के बेटे ग़फ़ूर पर.
कुछ पुलिस अधिकारियों के मुताबिक सुलेमान बिरोही का सिंध के पूर्व मुख्यमंत्री जाम सादिक़ से कारोबारी रिश्ता था लेकिन रहमान ने 1998 में सुलेमान बिरोही को नॉर्थ नाज़िमाबाद में डीसी सेंट्रल ऑफ़िस के पास मार डाला.
इस हत्या ने रहमान को ल्यारी की आपराधिक दुनिया में वर्चस्व स्थापित करने के रास्ते पर डाल दिया.
हाजी लालू डॉन से मिला संरक्षण
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रहमान के कज़न ने बताया कि इस बदले के लिए लालू के परिवार ने रहमान के परिवार की ज़बर्दस्त मदद की. मेरी पड़ताल के अनुसार जब बाबू डकैत के हाथों रहमान के चाचा ताज मोहम्मद की हत्या हुई तो लालू ने रहमान को अपने संरक्षण में ले लिया.
हाजी लालू अंडरवर्ल्ड डॉन था. ल्यारी और ट्रांस ल्यारी में जुर्म कोई भी हो और कैसा भी हो लालू के बिना नहीं हो सकता था. रहमान भी जो कुछ बना उसमें लालू के संरक्षण का बहुत बड़ा हाथ था.
उनके अनुसार, “लालू ने रहमान का संरक्षण इसलिए किया क्योंकि बाबू डकैत धंधे में लालू का दुश्मन था और बाबू से निपटने के लिए लालू को युवा और साहसी साथियों की ज़रूरत थी.”
जब रहमान के युवा गैंग के अपराध बढ़ने लगे तो बढ़ते दबाव के बीच पुलिस ने इस गैंग को निपटाने की योजना बनाई.
पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक 18 फ़रवरी 1995 को जब आरिफ़ और रहमान अपने साथियों के साथ उस्मानाबाद मिल्स एरिया में पाक पाइप मिल्स की ख़ाली इमारत में मौजूद थे, तब पुलिस ने उन्हें घेर लिया. पुलिस की गोली से आरिफ़ तो मारा गया मगर रहमान दीवार फांद कर भाग निकला. सरकारी रिपोर्ट में रहमान ने भी इस घटना को क़बूल किया है.
मां की भी हत्या की
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इस घटना के कुछ ही महीनों बाद रहमान ने 18 मई 1995 को थाना कलाकोट की सीमा में अपनी मां ख़दीजा बीबी की भी हत्या कर दी.
रहमान ने अधिकारियों को बताया कि उसने ‘अपनी मां को अपने ही घर में गोली मार दी.’
पुलिस के मुताबिक़ उसे शक़ था कि मां पुलिस की मुख़बिर बन चुकी हैं.
इस रिपोर्ट के उलट मेरे सूत्रों का कहना है कि हत्या की वजह असल में रहमान का ‘अपनी मां के चरित्र पर शक’ था और उसने अपनी मां की हत्या दुश्मन गिरोह के किसी सदस्य से ‘संबंधों के कारण की थी.’
सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार 1995 में अर्द्धसैनिक बल रेंजर्स ने रहमान को अवैध हथियार और ड्रग्स रखने के आरोप में गोलीमार से गिरफ़्तार कर लिया. इस केस में रहमान ढाई साल तक जेल में रहा.
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 10 जून 1997 को रहमान बलोच को कराची सेंट्रल जेल से ल्यारी के पास ही स्थित सिटी कोर्ट लाया गया, जहां से वह फ़रार हो गया और बलूचिस्तान के इलाक़े हुब जा पहुंचा.
पाकिस्तान के सरकारी दस्तावेज़ के अनुसार रहमान ने फ़रज़ाना, शहनाज़ और सायरा बानो नाम की तीन महिलाओं से अलग-अलग समय में शादियां भी कीं.
इन तीन बीवियों से उसके 13 बच्चे हुए.
सन 2006 तक रहमान कराची और बलूचिस्तान के कई इलाक़ों में 34 दुकानों, 33 घरों, 12 प्लॉट्स और डेढ़ सौ एकड़ खेती की ज़मीन का मालिक बन चुका था.
उसने कुछ जायदाद ईरान में भी ख़रीद ली. हालांकि कई अधिकारियों का दावा है कि 2006 के बाद की जायदाद इससे कहीं अधिक हैं.
रहमान के राजनीतिक गलियारों और बलूचिस्तान के राजनीतिक और जातीय संगठनों से भी संपर्क बढ़े.
ल्यारी गैंगवॉर की कहानी
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रहमान ने पूछताछ में बताया था कि उसने हुब में पुलिस की ‘इजाज़त’ से जुए का अड्डा भी खोला था और अफ़ीम (जिसे ल्यारी वाले ‘विषहर’ कहते हैं) और चरस जैसे ड्रग्स का धंधा भी ‘ऊपर वालों’ की भरपूर मदद और इजाज़त से चलता रहा.
ल्यारी के पूर्व एसपी फ़ैयाज़ ख़ान ने बताया कि उसी ज़माने में रहमान, हाजी लालू और उसके बेटों ने मिलकर ड्रग्स औरअपराध का धंधा चरम पर पहुंचा दिया.
कई बड़े पुलिस अधिकारियों के मुताबिक इसी दौरान रहमान को अंदाज़ा होने लगा कि लालू के प्रभाव में रहते हुए वह जुर्म की दुनिया में अपना अलग स्थान नहीं बना सकता तो आख़िरकार एक दिन उसकी खटपट लालू और उसको बेटों से हो गई.
जल्दी ही यह खटपट ‘ख़ूनी जंग’ में बदल गई और इसकी शुरुआत रहमान बलोच के ख़ास आदमी मामा फ़ैज़ मोहम्मद उर्फ़ फ़ैज़ू के अपहरण और हत्या से हुई.
फ़ैज़ मोहम्मद रहमान का रिश्तेदार भी था और अज़ीज़ बलोच का पिता भी. वही अज़ीज़ बलोच जो रहमान के बाद ल्यारी अंडरवर्ल्ड का डॉन बना.
फ़ैज़ू की इस हत्या से एक ऐसी जंग की शुरुआत हुई जिसे ‘ल्यारी गैंगवॉर’ के नाम से जाना जाता है.
मीडिया की रिपोर्टों से पता चलता है कि रहमान और पप्पू के बीच ल्यारी गैंगवॉर में इतनी हत्याएं और हिंसा हुई कि इसने उस इलाक़े को अंतरराष्ट्रीय चर्चा में ला दिया.
शोधकर्ता और पत्रकार अज़ीज़ संगहूर का संबंध भी ल्यारी से है. उनका दावा है कि कई साल जारी रहने वाली ल्यारी गैंगवॉर में कुल मिलाकर सभी गिरोहों से संबंध रखने वाले लगभग साढ़े तीन हज़ार लोग मारे गए थे.
रहमान के आतंक पर अंकुश की कोशिशें
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जब ल्यारी गैंगवॉर ने हज़ारों जानों की भेंट ले ली तो इलाक़े के प्रमुख लोगों ने इस हत्या और हिंसा पर रोक लगाने की कोशिश की.
कई स्थानीय नेताओं ने ल्यारी की सीट का प्रतिनिधित्व करने वाले पीपुल्स पार्टी के प्रमुख आसिफ़ ज़रदारी से मुलाक़ातें कीं.
ज़रदारी के एक परिचित ने कहा कि लालू से बात कर सकते हैं कि उनकी ओर से रहमान के ख़िलाफ़ कार्रवाई या हमला नहीं होगा मगर रहमान की गारंटी कौन लेगा?
इस स्थिति में सबने बलोच एकता आंदोलन के नेता अनवर भाईजान से अनुरोध किया कि वह मध्यस्थ बनें और दोनों गिरोहों में समझौते की कोशिश करें.
अनवर भाईजान लालू के बेटे पप्पू की बीवी के मामा थे. ल्यारी में उनका विशेष सम्मान था लेकिन अभी यह सब तय हो ही रहा था कि रहमान ने अनवर भाईजान को ही मार डाला.
रहमान ने अनुसंधानकर्ताओं को बताया कि उसने 8 जनवरी 2005 को अनवर भाईजान की उस वक़्त हत्या की जब वह एक जनाज़े में शामिल होने के लिए मेवा शाह रोड से गुज़र रहे थे. पूछताछ के दौरान रहमान का कहना था कि पप्पू से रिश्तेदारी की वजह से ‘अनवर भाईजान लालू गैंग की तरफ़ झुकाव रखते थे और उनकी मध्यस्थता निष्पक्ष नहीं थी.’
इस हत्याकांड से मध्यस्थता की कोशिशें तुरंत बंद हो गईं. फिर आसिफ़ ज़रदारी भी यह कह कर किनारे हो गए कि रहमान ने तो मध्यस्थ की ही हत्या कर डाली.
पुलिस अधिकारियों के अनुसार रहमान ने शहर के कई महत्वपूर्ण व्यापारिक क्षेत्रों और रास्तों को भी ‘भत्ते’ की कमाई का ज़रिया बना लिया.
उदाहरण के तौर पर कराची के बंदरगाह से निकलने और केमाड़ी से गुज़रने वाला हर कंटेनर रहमान के नेटवर्क को ‘भत्ता’ (रंगदारी) दिए बिना नहीं गुज़र सकता था.
कमाई का एक ज़रिया और भी था और वह था गुटखा. रहमान गैंग ने ल्यारी में अवैध ढंग से गुटखा बनाने के कारख़ाने खुलवा दिए. इसके बाद गुटखा ड्रग्स से भी ज़्यादा फ़ायदे का धंधा बन गया.
रॉबिनहुड की छवि में रहमान
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कई राजनीतिक व सरकारी लोगों से बातचीत से पता चला कि शहर के दूसरे इलाक़ों में मज़बूत होता रहमान उस समय तक ल्यारी का बेताज बादशाह बन चुका था.
सन 2002 तक तो ल्यारी और आसपास के इलाक़ों में रहमान के प्रभाव का हाल यह हो चुका था कि उन इलाक़ों से कौन राज्य या राष्ट्रीय असेंबली का सदस्य बनेगा और कौन टाउन मैनेजर होगा, यह फ़ैसला वही करता था.
और अब वह पीपुल्स अमन कमेटी का प्रमुख ‘सरदार अब्दुल रहमान बलोच’ कहलाने लगा था. उस वक़्त तक ल्यारी के कुछ क्षेत्रों के लिए रहमान रॉबिन हुड जैसा किरदार बनता जा रहा था. अब वह राजनीतिक तौर पर नाम कमाने वाला काम करने लगा था, जैसे कि स्कूल और दवाख़ाना खोलना.
राज्य मंत्रिमंडल से संबंध रखने वाले एक ब्यूरोक्रेट के अनुसार जब रहमान ने मलेर, बर्न्स रोड, गुलिस्तान-ए-जौहर और दूसरे मोहल्ले में अमन कमेटियां बनाईं तो एमक्यूएम ने उसे एक राजनीतिक चुनौती के तौर पर देखा.
इस तरह एमक्यूएम की सरकार रहमान को कुचलने के लिए सक्रिय हुई और पार्टी में यह सोच पैदा हुई कि रहमान का रास्ता रोका जाए ताकि राजनीतिक धड़े को जो ख़तरा है उससे निपटा जा सके.
सरकारी अधिकारियों के अनुसार, “इस अवसर पर पीपुल्स पार्टी के एक नेता और उस समय आसिफ़ ज़रदारी के क़रीबी साथी को लगा कि रहमान उनके लिए फ़ायदेमंद साबित हो सकता है तो उन्होंने पर्दे के पीछे उसका समर्थन शुरू कर दिया.”
इन अधिकारियों का कहना है कि रहमान एमक्यूएम के राजनीतिक निशाने पर आया तो एमक्यूएम ने रहमान के लंबे समय से जानी दुश्मन अरशद पप्पू का समर्थन शुरू कर दिया.
एमक्यूएम लंदन की कोऑर्डिनेशन कमेटी के संयोजक रहे मुस्तफ़ा अज़ीज़ाबादी ल्यारी गैंगवॉर या रहमान बलोच के मामले से एमक्यूएम के किसी भी तरह के संबंध से इनकार करते रहे.
उनका कहना था, “यह तो पाकिस्तान बनने से पहले से ही ड्रग्स के धंधेबाज़ों की पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली दुश्मनी का सिलसिला था. हमारा इन सबसे कोई लेना-देना नहीं था.”
पाकिस्तान की ख़ुफ़िया संस्था के एक अधिकारी ने बताया, “अरशद पप्पू को राजनीतिक समर्थन से शक्ति मिलने लगी और राजनीतिक शक्तियां भी नाराज़ हुईं तो ल्यारी में रहमान के लिए एक बार फिर जीना दूभर होने लगा. तब रहमान ने बलूचिस्तान चले जाने में ही अपनी भलाई समझी मगर इस बार हुब जाने के बजाय उसने क्वेटा के सैटलाइट टाउन में एक ख़ुफ़िया ठिकाने पर शरण ले ली.”
जब ज़रदारी के फ़ोन ने बचाया
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बीबीसी को मिली बेहद ख़ुफ़िया रिपोर्ट से पता चलता है कि गोपनीय जानकारी मिलने पर 18 जून 2006 को चौधरी असलम के नेतृत्व में ल्यारी टास्क फ़ोर्स ने क्वेटा के सैटलाइट टाउन में रहमान के उस ख़ुफ़िया अड्डे पर अचानक छापा मार दिया.
‘धुरंधर’ फ़िल्म में चौधरी असलम का क़िरदार संजय दत्त ने निभाया है.
छापे के दौरान गिरफ़्तारी से बचने के लिए छत से कूद कर भागने की कोशिश में रहमान की टांग टूट गई.
एक सूत्र ने बताया कि घायल रहमान को दबोच लिया गया मगर यह गिरफ़्तारी कभी सरकारी रिकॉर्ड पर नहीं दिखाई गई.
रहमान की कहानी बताने वाले नेता ने बताया कि हो सकता था कि ‘मुठभेड़’ की नौबत आ ही जाती मगर तभी एक नाटकीय बात हुई और चौधरी असलम के फ़ोन की घंटी बजने लगी.
इस मामले की पूरी जानकारी रखने वाले राजनेता ने दावा किया कि चौधरी असलम ने उन्हें ख़ुद बताया था कि वह रहमान जैसे ख़तरनाक मुजरिमों के ख़िलाफ़ ऐसी कार्रवाई में कभी अपना व्यक्तिगत फ़ोन लेकर नहीं जाते थे क्योंकि मुठभेड़ की स्थिति में कॉलर डेटा रिकॉर्डिंग (सीडीआर) या फिर जिओ फ़ेंसिंग से अदालत में साबित हो सकता था कि चौधरी असलम उस समय कहां थे.
इस नेता ने कहा कि इसलिए चौधरी ऐसे अवसर के लिए एक ऐसा फ़ोन इस्तेमाल करते थे जिसका नंबर केवल तीन या चार सबसे शीर्ष अधिकारियों के अलावा किसी की जानकारी में नहीं होता था.
उनके अनुसार रहमान की इस (कभी न ज़ाहिर की जाने वाली) गिरफ़्तारी के समय भी चौधरी असलम यही ख़ुफ़िया फ़ोन इस्तेमाल कर रहे थे और केवल ‘शीर्ष अधिकारी’ से संपर्क में थे.
उस नेता के मुताबिक़, “चौधरी असलम ने मुझे बताया कि जैसे ही उन्होंने रहमान को हिरासत में लिया तो अचानक उस फ़ोन पर एक अजनबी नंबर से कॉल आई.”
“चौधरी असलम ने फ़ोन उठाया तो दूसरी तरफ़ थे आसिफ़ ज़रदारी. वह हैरान रह गए कि यह ख़ुफ़िया नंबर ज़रदारी साहब तक कैसे पहुंचा.”
चौधरी असलम और आसिफ़ ज़रदारी की बातचीत की जानकारी रखने वाले नेता ने दावा किया कि ज़रदारी साहब ने चौधरी असलम से कहा कि, “मारना नहीं. कोई ग़लत काम नहीं करो. जो भी मुक़दमे हैं उसको (अदालत में) पेश करो …एनकाउंटर नहीं करना.”
सिंध में तैनात रहने वाले एक शीर्ष अधिकारी का कहना था, “इस स्थिति से निपटने के लिए तुरंत यह फ़ैसला हुआ कि न तो पुलिस गोली चलाएगी और न ही रहमान की यह गिरफ़्तारी अभी रिकॉर्ड पर लाई जाएगी. उसे कराची तो भेज दिया जाएगा मगर उसे गिरफ़्तार किए जाने की घोषणा सरकारी तौर पर नहीं होगी.”
एक और ख़ुफ़िया सरकारी दस्तावेज़ के अनुसार, ‘इस तफ़्तीश के बाद यह समस्या हुई कि रहमान को अब कहां रखा जाए क्योंकि गिरफ़्तारी तो ज़ाहिर की ही नहीं गई थी. उच्च अधिकारियों ने यह फ़ैसला किया कि रहमान को पहले कुछ दिन ल्यारी टास्क फ़ोर्स के अधिकारी इंस्पेक्टर नासिर उल हसन के गार्डन पुलिस लाइंस में स्थित घर पर रखा जाएगा. फिर उस समय कलरी के एसएचओ बहाउद्दीन बाबर के मेट्रोविल स्थित निजी आवास पर भेज दिया जाएगा.’
रहमान इंस्पेक्टर बाबर के घर से ‘नाटकीय ढंग’ से फ़रार हो गया. ख़ुफ़िया रिपोर्ट में रहमान के फ़रार होने की तारीख़ 20 अगस्त 2006 दर्ज है.
इसके अनुसार 20 अगस्त 2006 की रात को पांच हथियारबंद लोगों हमला करके रहमान को छुड़ा लिया.
रहमान के फ़रार होने से पुलिस और दूसरी संस्थाओं के शीर्ष अधिकारियों में खलबली मच गई. इधर रहमान ने फ़रार होते ही यह बात मशहूर कर दी कि वह “पैसे देकर छूट गया है.”
रहमान की कहानी जानने वाले राजनेता और कुछ पुलिस अधिकारियों के अनुसार सैनिक अधिकारियों को शक था कि रहमान के फ़रार होने में बाबर की मिलीभगत थी. इंस्पेक्टर बाबर चूंकि 31 दिसंबर 2013 को ख़ुद एक हमले में मार दिए गए इसलिए उनका पक्ष नहीं मालूम हो सका.
फ़रार होने के बाद रहमान ने ल्यारी पहुंचकर फिर हत्या और हिंसा का बाज़ार गर्म कर दिया.
अब रहमान ने पीपुल्स पार्टी के लिए भी मुश्किलें पैदा करनी शुरू कर दीं.
मीडिया की पड़ताल से साफ़ है कि एक वक़्त ऐसा आया कि ल्यारी में टाउन मैनेजर के लिए पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवार मलिक मोहम्मद ख़ान की हार हुई और रहमान के समर्थन वाले आज़ाद उम्मीदवार कामयाब हो गए.
जब सन 2008 में पीपुल्स पार्टी की सरकार आई और आसिफ़ ज़रदारी पहली बार देश के राष्ट्रपति बने तो रहमान के प्रभाव वाले स्थानीय नेताओं और पीपुल्स पार्टी के बीच खटपट होने लगी.
जिससे पीपुल्स पार्टी और रहमान के बीच विवाद हो गया.
रहमान से पीपुल्स पार्टी की यह नाराज़गी पूरे ‘सिस्टम’ में दर्ज ज़रूर हो गई. तभी एक दिन सिंध के उस समय के गृह मंत्री और आसिफ़ ज़रदारी के क़रीबी साथी ज़ुल्फ़िक़ार मिर्ज़ा सिंध के गवर्नर डॉक्टर इशरतुल इबाद के पास पहुंचे.
डॉ इशरतुल इबाद ने बताया कि ज़ुल्फ़िक़ार मिर्ज़ा ने कहा कि ल्यारी के मामले संगीन हो गए हैं. “हत्या और हिंसा बढ़ रही है. सरकार की ओर से पुलिस को निर्देश दिया जाए कि ल्यारी के गिरोहों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाए.”
पूर्व गवर्नर ने बताया, “मैंने डॉक्टर साहब से कहा कि राज्य के गृह मंत्री तो आप ही हैं. आप आदेश जारी करें. उन पर ही पुलिस को निर्देश दिया जा सकता है. इसके बाद ज़ुल्फ़िक़ार मिर्ज़ा के जारी आदेश पर पुलिस को निर्देश दिया गया कि ल्यारी ही नहीं पूरे राज्य में क़ानून व्यवस्था हर क़ीमत पर बनाई रखी जाए और कार्रवाई तेज़ की जाए.”
कैसे पुलिस ने रहमान को पकड़ा
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अब रहमान तीन तरफ़ से घिर चुका था. एक तरफ़ एमक्यूएम ‘ रंगदारी भत्ते’ और राजनीतिक पकड़ से नाराज़ थी.
दूसरी तरफ़ पीपुल्स पार्टीभी नाराज़ थी.
तीसरी तरफ़ पुलिस अधिकारी के घर से फ़रार होने और यह मशहूर करने पर कि वह पुलिस वाले को पैसे देकर भागा है, सारी पुलिस और विशेष तौर पर चौधरी असलम भी रहमान से नाराज़ थे.
हर तरफ़ से यही नाराज़गी रहमान को महंगी, बल्कि बहुत महंगी पड़ी.
नेता ने बताया कि ख़तरे में घिर जाने का एहसास इतना ज़्यादा था कि अचानक 8 अगस्त 2009 को रहमान ने अपने क़रीबी और भरोसेमंद साथियों को बुलाया और कहा कि फ़िलहाल आना-जाना कम किया जाए. ‘अगर बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी हो तो आने-जाने के लिए गाड़ी के बजाय मोटरसाइकिल का इस्तेमाल किया जाए.’
“इधर रहमान की तलाश में बेहद सक्रिय चौधरी असलम एक मुख़बिर तक पहुंच गए. अगले ही दिन 9 अगस्त 2009 को ख़ुद रहमान ने बलूचिस्तान जाने की कोशिश की तो चौधरी असलम को उनके मुख़बिर के ज़रिए रहमान के कराची से निकलने की कोशिश का पता चल गया.”
इस नेता के अनुसार रहमान और उसके तीन नज़दीकी साथी अक़ील बलोच, नज़ीर बलोच और औरंगज़ेब बलोच मोटरसाइकिल पर पुराना गोलीमार पहुंचे जहां से एक गाड़ी में यह सब बलूचिस्तान के इलाक़े मंद की ओर रवाना हुए.
नेता ने दावा किया कि जब तक चौधरी असलम को मुख़बिर से जानकारी मिली तब तक रहमान कराची की सीमा से निकल चुका था. अब असलम और उनकी टीम के सदस्य रहमान की तलाश में निकले.
चूंकि रहमान और उसके साथी बहुत दूर जा चुके थे, इसलिए असलम को मददगार ख़ुफ़िया एजेंसियों ने वापस होने की राय दी. जब चौधरी असलम और उनकी टीम वापसी के सफ़र में गडानी और वंदर के बीच पहुंची तो उस समय रहमान और उसके साथी एक बार फिर कवरेज एरिया में आ गए और फ़ोन मॉनिटर करने वालों को उनका सुराग़ मिल गया.
हुआ यह कि रहमान के साथी नज़ीर बलोच ने अपनी बीवी को फ़ोन करके घर पहुंचने की जानकारी देते हुए पसंदीदा खाना बनाने की फ़रमाइश की और यही फ़रमाइश उनके लिए मुसीबत बन गई.
नज़ीर बलोच की बीवी ने उसी क़ाफ़िले में रहमान के साथी की बीवी को भी फ़ोन किया कि मेहमान (रहमान और उसके साथी) आ रहे हैं और पसंदीदा खाना खाने की फ़रमाइश भी कर रहे हैं.
नेता के अनुसार यह सूचना चौधरी असलम को दी गई कि रहमान और उसके साथी आ रहे हैं इसलिए उनके पीछे जाया जाए.
चौधरी असलम और उनकी टीम उस जगह पहुंची जिसे ज़ीरो पॉइंट कहते हैं और जहां से एक रास्ता ग्वादर कोस्टल हाईवे और दूसरा क्वेटा की ओर जाता है.
पुलिस की टीम वहां खड़ी हुई जहां यह रास्ता अंग्रेज़ी के शब्द वाई (Y) जैसी शक्ल ले लेता है ताकि रहमान और उसके साथी जिस ओर से भी आएं उनका सामना पुलिस से हो और यही हुआ.
आख़िरकार, एक काली टोयोटा गाड़ी में रहमान और उसके साथी आते दिखाई दिए.
नेता ने मुझे बताया, “उस वक़्त तक असलम की टीम के कुछ सदस्यों ने पुलिस की वर्दी के बजाय वहां तैनात कोस्ट गार्ड की वर्दी पहन ली थी ताकि रहमान और उसके साथी कराची पुलिस की वर्दी, विशेष कर चौधरी असलम को देखकर कुछ और न कर डालें और उन्हें अनजाने में ही दबोच लिया जाए.”
बहरहाल, चौधरी असलम तो देख रहे थे कि रहमान आ गया है मगर ख़ुद रहमान को अंदाज़ा नहीं हुआ कि वह असलम के घेरे में आ गया है. जब गाड़ी रोकी गई तो रहमान के साथियों ने विरोध भी नहीं किया.
पहचान पत्र मांगे जाने पर रहमान ने फ़र्ज़ी पहचान पत्र दिखाया. उस पर उसका नाम शोएब लिखा था मगर योजना के अनुसार रहमान को वहां कोस्ट गार्ड की वर्दी में तैनात पुलिस अधिकारियों ने कहा कि आप जाकर अपना पहचान पत्र गाड़ी में बैठे कर्नल साहब को दिखाएं.
यह साहब थे चौधरी असलम, और जैसे ही रहमान ने काले शीशे वाली वीवो का दरवाज़ा खोला तो उसका सामना चौधरी असलम से हो गया. इससे पहले कि भागने का कोई ख़्याल रहमान के दिल में आता उसके पीछे खड़े पुलिस अधिकारी मलिक आदिल ने उसे अंदर धक्का दिया और ख़ुद भी गाड़ी में सवार हो गए.
नेता के अनुसार संभावित पुलिस एनकाउंटर की स्थिति में मौत नज़र आने लगी तो रहमान ने असलम को पेशकश की कि कुछ ले देकर बात बनाई जा सकती है मगर असलम ने कहा कि, “जब नहीं लिया था तो इतना बदनाम किया था कि ख़ुफ़िया संस्थाओं की तफ़्तीश भुगतनी पड़ी और अब ले लूं तो क्या करोगे.”
नेता ने यह दावा भी किया कि वहां (ज़ीरो पॉइंट) से उन सब को नेशनल हाईवे स्टील टाउन ले जाया गया और नॉर्दर्न बाईपास से होते हुए यह क़ाफ़िला लिंक रोड पहुंचा और रहमान वहां पुलिस एनकाउंटर में तीनों साथियों समेत मारा गया.
उनके इस दावे की पुष्टि कई अधिकारियों ने निजी बातचीत में तो की लेकिन ऑन रिकॉर्ड रहमान ‘डकैत’ की मौत के बारे में कराची पुलिस की सरकारी विज्ञप्ति 10 अगस्त 2009 के सभी अखबारों में छपी.
अंग्रेज़ी अख़बारों ‘डॉन’ और ‘दी नेशन’ ने इस सरकारी विज्ञप्ति का हवाला देते हुए बताया कि रहमान डकैत और उनके तीन साथी पुलिस से झड़प में मारे गए.
सरकारी विज्ञप्ति में बताया गया कि पुलिस ने रहमान डकैत की गाड़ी रोकने की कोशिश की मगर मुलज़िमों के फ़रार होने पर पुलिस को मजबूरी में गोली चलानी पड़ी.
पुलिस एनकाउंटर पर सवाल
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विज्ञप्ति में कहा गया, “रहमान हत्या और फिरौती के लिए अपहरण के 80 से अधिक वारदातों में वॉन्टेड था.”
कराची पुलिस के प्रमुख वसीम अहमद ने भी पत्रकारों को बताया कि उसकी मौत कराची पुलिस की एक बहुत बड़ी कामयाबी है.
सिंध के पूर्व गवर्नर डॉक्टर इशरतुल इबाद का भी कहना है कि यह एक ‘असली’ पुलिस एनकाउंटर था.
“चूंकि यह ऑपरेशन चौधरी असलम कर रहे थे शायद इसलिए कुछ लोगों को शक हुआ हो लेकिन इस मामले में तो नहीं कहा जा सकता कि फ़र्ज़ी मुठभेड़ हो गई. ऐसा मुमकिन नहीं कि इस केस में घर से निकाला हो और मार दिया गया हो.”
इस पुलिस मुठभेड़ को अदालत में चुनौती दी गई. ‘डॉन’ ने अपनी 14 अक्तूबर 2009 की रिपोर्ट में बताया कि रहमान की विधवा फ़रज़ाना ने अपने वकीलों अब्दुल मुजीब पीरज़ादा और सैयद ख़ालिद शाह के ज़रिए सिंध हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस सरमद जलाल उस्मानी की अदालत में अर्ज़ी दी कि उनके पति को फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारा गया है.
अदालत में इस पर राज्य के गृह सचिव समेत कराची पुलिस और सिंध पुलिस के प्रमुखों को अदालत में तलब भी किया मगर रहमान के परिवार के क़रीबी सूत्रों का कहना है कि वह आज तक मुक़दमे का फ़ैसला होने का इंतज़ार कर रहे हैं.
ऐसा लगता है कि रहमान डकैत राजनीतिक विरोध और सिस्टम की नाराज़गी के कारण मारा गया तो सिस्टम उससे किस लिए नाराज़ था?
ल्यारी की उर्दू आर्ट्स यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफ़ेसर (रिटायर्ड) तौसीफ़ अहमद का कहना है कि ल्यारी गैंगवॉर के पर्दे के पीछे की सच्चाई कुछ और थी. “जो मारामारी आपने लयारी में देखी उसका सिरा आपके यहां नहीं मिलेगा. सिरा ढूंढ़ने बलूचिस्तान जाना पड़ेगा.”
प्रोफ़ेसर तौसीफ़ अहमद की राय यह है कि बलूचिस्तान के जातीय आंदोलन को ल्यारी से अलग करने के लिए राज्य और उसकी संस्थाओं ने क्षेत्र में राजनीति से जुर्म की जड़ को ख़त्म करने के बजाय हमेशा यह मौक़ा दिया कि जुर्म सियासत पर हावी रहे.
“1973 में बलूचिस्तान में जब सैनिक कार्रवाई शुरू हुई तो डर था कि ल्यारी कहीं बलोच प्रतिरोध आंदोलन का केंद्र ना बन जाए तो ल्यारी को अलग रखने के लिए राज्य के कर्ताधर्ताओं ने उसे जुर्म की भट्टी में धकेल दिया.”
प्रोफ़ेसर तौसीफ़ ने कहा, “सेना ने ल्यारी को गैंगवॉर के हवाले किया और पीपुल्स पार्टी इसमें शामिल हो गई. पीपुल्स पार्टी राजनीतिक वारिस थी लयारी की. उन्होंने जद्दोजहद का रास्ता नहीं अपनाया, आसान रास्ता अपनाया. उन्होंने विभिन्न दौर में उन गैंगस्टर्स को संरक्षण दिया.”
सरदार अब्दुल रहमान बलोच कहें या रहमान डकैत मगर एक बात ज़रूर है कि उसका जनाज़ा ल्यारी के इतिहास के बड़े जनाज़ों में से एक था.
इसके पांच साल बाद जनवरी 2014 में चौधरी असलम तालिबान के आत्मघाती दस्ते के शिकार बने.
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित)