साल 2024 ने जाते-जाते दो तस्वीरें मेरे सामने खड़ी कर दी हैं.
एक है, फ़्रांस की ज़ीज़ेल पेलीको की. इन्होंने अपने पूर्व पति और पचास दूसरे मर्दों के ख़िलाफ़ सामूहिक बलात्कार का केस जीता. यही नहीं, मीडिया के सामने ज़ीज़ेल ने कहा कि अपनी पहचान के साथ यौन हिंसा के ख़िलाफ़ इस लड़ाई को लड़ने के फ़ैसले पर उन्हें कभी अफ़सोस नहीं होगा.
इस सुनवाई की शुरुआत में ज़ीज़ेल ने कहा था कि मैं अगर चंद दिन भी यह सब बर्दाश्त कर सकूँ तो बहुत होगा.
हालाँकि, इस पूरे क़ानूनी संघर्ष को उन्होंने साढ़े तीन महीने तक अदालत में लगातार जिया और जीत कर ही निकलीं.
और दूसरा है, एक समारोह में कवि कुमार विश्वास का चुटकी लेकर ये कहना, “…अपने बच्चों को नाम याद कराइए सीता जी की बहनों के, भगवान राम के भाइयों के. एक संकेत दे रहा हूँ, जो समझ जाएँ, उनकी तालियाँ उठें. अपने बच्चों को रामायण सुनवाइए, गीता पढ़वाइए. अन्यथा ऐसा न हो कि आपके घर का नाम तो रामायण हो और आपके घर की श्री लक्ष्मी को कोई और उठा कर ले जाए…”
उनके इस बयान पर एक-दो दिन हंगामा हुआ. प्रतिक्रियाएँ आईं. फिर हम सब कहीं और मसरूफ़ हो गए.
लेकिन ज़रूरत है, कुमार विश्वास जैसे बयानों पर थोड़ा रुक कर ग़ौर करना. ज़ीज़ेल पेलीको जैसी स्त्रियों के मन और साहस को समझना.
यह भी समझना कि दरअसल दोनों ही मामले, एक ही तरह की मानसिकता से जुड़े हैं.
वह मानसिकता इन सवालों से जुड़ी है- क्या लड़की कोई भोग की वस्तु है जिसे किसी को दिया जा सकता है? जिसे कोई कहीं भी, उसकी मर्ज़ी के बिना ले जा सकता है? क्या लड़की माँ-बाप या ख़ानदान की जायदाद है जिसकी ज़िंदगी पर उनका कब्ज़ा है? क्या लड़की के तन-मन का मालिक कोई मर्द होगा? क्या लड़की की कोई आज़ाद शख़्सियत नहीं होती है?
कवि का संकेत समझने में किसे दिक़्क़त हुई
देखिए हुआ क्या. कुमार विश्वास के कार्यक्रम में मौजूद दर्शकों ने उनके कहे का संकेत समझा. तालियाँ भी बजाईं.
यही नहीं, इस संकेत को समाचार के अलग-अलग मंचों, समाचार चैनलों, सोशल मीडिया पर मौजूद लोगों ने भी ख़ूब समझा.
किसी ने ख़बर बनाई तो किसी ने हिमायत में कुछ और जोड़ा तो कोई ग़ुस्सा हो गया.
संकेत अपने मक़सद में कामयाब रहा. सबने समझा कि संकेत मशहूर फ़िल्म अभिनेता और राजनेता शत्रुघ्न सिन्हा और उनकी बेटी अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा की ओर है.
शत्रुघ्न सिन्हा के घर का नाम ‘रामायण’ है. सोनाक्षी ने जिनसे शादी की, उस साथी का नाम ज़हीर इक़बाल है.
‘श्री लक्ष्मी’ कौन है और क्या लड़की वस्तु है?
‘श्री लक्ष्मी’ का संकेत तो घर की बेटी की ओर ही है.
तो यह बात अब बहुत साफ़ हो जानी चाहिए कि बेटी या कोई भी स्त्री, वस्तु नहीं है.
उसे वस्तु की तरह ख़रीदा-बेचा नहीं जा सकता. उसका आदान-प्रदान नहीं हो सकता.
बालिग़ लड़की के फ़ैसलों के बारे में बात उससे ही हो सकती है, उसके परिवारजनों से नहीं.
लड़की क्या माँ-बाप की जायदाद है?
कवि जब ‘श्री लक्ष्मी’ को किसी और के ‘उठा कर’ ले जाने की चेतावनी देते हैं तो उनकी दबी ख़्वाहिश है कि माँ-बाप अपनी बेटियों को अपने कब्ज़े में रखें. जैसा चाहें, वैसा उसके साथ सुलूक करें. उसे अपनी मन-मर्ज़ी का तो बिल्कुल करने न दें.
तो हम सबको अपने दिमाग़ में कुछ बातें साफ़ कर लेनी चाहिए.
सिर्फ़ इसलिए कि माँ-बाप ने किसी संतान को पैदा किया है, वह उसकी जायदाद नहीं हो जाती. हालाँकि, बेटों की ज़िंदगी पर माँ-बाप का वैसा नियंत्रण नहीं होता, जैसा बेटियों पर होता है… और जैसा हमारा समाज है, वह तो बेटियों की हर साँस पर क़ब्ज़ा चाहता है.
ऐसी सोच न सिर्फ़ ग़लत है बल्कि यह मानवाधिकार के ख़िलाफ़ है. और तो और कई बेटियाँ अब इसके लिए एकदम तैयार नहीं हैं. इसे जितनी जल्दी मान लिया जाए, उतना बेहतर है.
लड़की की आज़ाद शख़्सियत नहीं है?
ऐसे विचार हैं और लोग भी, जो मानते हैं कि स्त्री की आज़ाद शख़्सियत नहीं होती. वे मानते हैं कि ये तो बनी ही हैं क़ब्ज़े के लिए. बाप, भाई, पति, बेटा और कोई भी मर्द… बस इन पर क़ब्ज़ा कर सकता है.
तब ही तो हमारा घर-परिवार, समाज बेटियों की ज़िंदगी के बारे में ताउम्र फ़ैसला लेता रहता है. उसे मानने पर मजबूर करता रहता है.
हर इंसान जन्म से आज़ाद है. स्त्रियाँ भी इंसान हैं. इसलिए वे भी आज़ाद शख़्सियत हैं. वे अपनी ज़िंदगी के बारे में फ़ैसले ख़ुद ले सकती हैं.
फ़ैसले अच्छे-बुरे मर्दों के भी होते हैं. उनके भी हो सकते हैं. इसलिए बालिग़ होने के बाद, वे किसके साथ ज़िंदगी गुज़ारेंगी, यह फ़ैसला लेने का भी उन्हें पूरा हक़ है. यह उनकी निजता का भी सवाल है.
अपनी पसंद का साथी चुनना गुनाह है?
पसंद और चयन- ये दो शब्द हैं जो किसी इंसान के हक़ से जुड़े हैं.
इसी से जुड़ा है, शादी जैसी संस्था में पसंद और चयन के हक़ का इस्तेमाल.
यह हक़ जितना लड़कों को है, उतना ही लड़कियों को. ऐसा नहीं है कि सोनाक्षी सिन्हा पहली लड़की हैं, जिनकी पसंद पर सरेआम बहस हो रही है.
कुछ महीनों पहले अभिनेत्री स्वरा भास्कर के साथ भी ऐसा ही हुआ था.
दोनों के साथी, उनके धर्म के नहीं हैं. उनकी पसंद और चयन धर्म की दीवारों से परे है.
हमारा समाज लड़कियों और स्त्रियों को जाति, धर्म, समुदाय की पहचान के तौर पर देखता है.
इसके लिए उसकी यौनिकता पर नियंत्रण बनाए रखना चाहता है. इसीलिए जब वह किसी और जाति, धर्म या समुदाय में शादी करती है तो मर्दों के समाज को यह नाक़ाबिले बर्दाश्त होता है.
इस मामले में हर जाति, धर्म या समुदाय का मर्दाना विचार एक है. इसलिए कवि कोई अकेले व्यक्ति नहीं हैं.
ज़रूरत है, इस मानसिकता को समझना और स्त्रियों की ज़िंदगी से इनकी पहरेदारी ख़त्म करना.
मोहब्बत किसी साज़िश का नतीजा नहीं हो सकती. साज़िश से पार एक दुनिया है, जिस दुनिया में मोहब्बत परवान चढ़ती है.
तन-मन स्त्री का, तो मालिक कौन?
जैसे ही मर्दाना समाज लड़की को वस्तु में बदलता है, वह उसके तन-मन का मालिक बन बैठता है.
तब ही तो उसकी आज़ाद रज़ामंदी, उसकी इच्छा-अनिच्छा का कोई मतलब नहीं समझा जाता.
मर्दाना समाज को लगता है कि स्त्री उसके लिए है और उसी की है. इसीलिए तो कोई मर्द ऐसे जुर्म करने का साहस करता है कि वह न सिर्फ़ ख़ुद पत्नी का बलात्कार करता है बल्कि दूसरे मर्दों को भी बुलाता है.
मर्दों को इसमें कोई शक़ नहीं होना चाहिए कि तन-मन अगर स्त्री का है तो मालिक भी वही है.
ज़ीज़ेल पेलीको हों या सोनाक्षी सिन्हा – दरअसल स्त्रियाँ अब अपना विरोध स्वर ढूँढ रही हैं. कई ढूँढ भी चुकी हैं.
ज़ीज़ेल का अपने साथ हुई यौन हिंसा के ख़िलाफ़ अदम्य साहस के साथ लड़ना हो या सोनाक्षी सिन्हा या स्वरा भास्कर का अपनी मर्ज़ी से शादी करने का फ़ैसला और तमाम विरोध, हर रोज़ के ट्रोल, अपमानजनक टिप्पणियों के सामने चट्टान की तरह खड़े रहना – ये बातें एक बार फिर यही कहती हैं कि स्त्री के भीतर एक ज़बरदस्त ताक़त है.
कई बार इस ताक़त की कल्पना वह ख़ुद भी नहीं कर पाती.
इसी ताक़त से वह पहाड़ चढ़ जाती है, धरती नाप लेती है. उन्हें इस ताक़त पर और अपने ऊपर और भरोसा करने की ज़रूरत है. ताकि फ़्रांसीसी मर्द हों या भारतीय, वे स्त्रियों को अपनी जागीर समझने की हिमाक़त करना छोड़ दें.
अब स्त्रियाँ शर्मिंदा होने से इनकार कर रही हैं. मर्द शर्मिंदा करना बंद करें.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.