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23 सितंबर को अलग-अलग मंचों से दिए गए दो नेताओं के भाषण चर्चा का विषय बने.
ब्रिटेन में लिबरल डेमोक्रेट्स के प्रमुख ईडी डेवी ने कट्टर दक्षिणपंथी नेताओं पर कड़ा प्रहार किया और उन्हें “डार्क फ़ोर्स” बताया.
उनका इशारा निगेल फ़राज, टॉमी रॉबिन्सन और अरबपति एलन मस्क की ओर था, जो प्रवासियों के ख़िलाफ़ लगातार अभियान चला रहे हैं.
दूसरी ओर, न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए डोनाल्ड ट्रंप ने विपरीत संदेश दिया. उन्होंने कहा कि खुली सीमाओं ने यूरोप को संकट में डाल दिया है और चेतावनी दी कि ” ये देश बर्बाद हो रहे हैं.”
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दोनों नेताओं के बयानों ने एक बार फिर उदारवाद बनाम राष्ट्रवाद की बहस को तेज़ कर दिया.
ईडी डेवी ने कहा कि फ़राज, मस्क और ट्रंप ब्रिटेन को “ट्रंप का अमेरिका” बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने आरोप लगाया कि ये नेता सोशल मीडिया को नफ़रत फैलाने का अड्डा बना चुके हैं.
वहीं, ट्रंप ने लंदन के मुस्लिम मेयर सादिक़ ख़ान पर प्रत्यक्ष हमला किया. उन्होंने आरोप लगाया कि ख़ान शरीयत क़ानून लागू करने की कोशिश कर रहे हैं. मेयर ख़ान के दफ़्तर ने इन आरोपों को तुरंत खारिज करते हुए कहा कि ये “पक्षपातपूर्ण और घृणित” हैं.
इन बयानों ने एक बार फिर दिखा दिया कि माइग्रेशन को लेकर दुनिया के लोकतंत्र गहरे बंटे हुए हैं. यूरोप की सड़कों पर यह विभाजन सबसे साफ़ तौर पर दिखाई देता है.
सड़कों पर डर
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लंदन में दो हफ़्ते पहले प्रवासी-विरोधी प्रदर्शन हुआ. इसमें एक महिला का वीडियो वायरल हुआ, जो भीड़ से डरकर भाग रही थी.
उसके पीछे लोग नारे लगाते और झंडे लहराते नज़र आए. यह वीडियो लाखों बार देखा गया.
इसने साफ़ किया कि यह सिर्फ़ हंगामा नहीं था, बल्कि प्रवासियों के लिए एक संदेश था – वे यहां कभी पूरी तरह अपने नहीं हो सकते.
इस रैली में करीब डेढ़ लाख लोग जुटे थे, जिसे ब्रेग्ज़िट के बाद की सबसे बड़ी भीड़ माना जा रहा है.
यह कोई अकेली घटना नहीं थी. कुछ दिन बाद हेग में दंगाइयों ने पुलिस की गाड़ी जला दी. इसके बाद पुलिस को वॉटर कैनन का इस्तेमाल करना पड़ा.
यूरोप के कई देशों में सरकारें अब फिर से सीमा जांच लागू कर रही हैं और शरणार्थियों को लेकर कड़े कानून बना रही हैं.
इसके साथ ही ऑफ़शोर डिटेंशन की तैयारी भी चल रही है.
हालांकि, 2015 के संकट के बाद से माइग्रेशन कम हुआ है, लेकिन इसका असर आंकड़ों से ज़्यादा डर में दिखाई देता है.
दक्षिणपंथी राजनीति के लिए प्रवासी अब सबसे आसान निशाना बन गए हैं.
भारतीय प्रवासी, जिनकी संख्या दुनिया भर में 3.2 करोड़ से अधिक है, इन घटनाओं से परेशान हैं. ब्रिटेन में बसे भारतीयों ने भी नाराज़गी जताई है.
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लंदन में 14 साल से रह रहीं फिल्ममेकर श्रिमोयी चक्रवर्ती ने इंस्टाग्राम पर एक वीडियो पोस्ट किया.
वीडियो में उन्होंने कहा, “ये नस्लभेदी लोगों के लिए मेरा संदेश है. मैं यहां एक प्रवासी हूं, कड़ी मेहनत की है और ज़्यादा टैक्स चुकाया है. लेकिन अब जो नफ़रत फैल रही है, उसे देखकर दिल टूट गया है और मैं सदमे में हूं.”
भारतीय प्रवासी ब्रिटेन की स्वास्थ्य सेवा एनएचएस में डॉक्टर और नर्स के तौर पर काम करते हैं, जर्मनी में इंजीनियर हैं, एम्स्टर्डम में रेस्तरां चलाते हैं और मिलान में दुकानें संभालते हैं.
वे टैक्स भरते हैं, अपने परिवार पालते हैं और चुनावों में भी हिस्सा लेते हैं. इसके बावजूद उन्हें अक्सर यह ताना सुनना पड़ता है, “तुम हमारे नहीं हो.”
लंदन की 47 वर्षीय ब्रिटिश नागरिक नोरा हचिसन पहले हेल्थ एग्ज़िक्यूटिव थीं, लेकिन अब अस्थायी और छोटे काम कर रही हैं. उन्हें भारत पसंद है, लेकिन ब्रिटेन में बढ़ती भारतीय आबादी पर एतराज़ है.
नोरा का आरोप है कि कई “कमज़ोर कौशल वाले” भारतीय यूके में आ रहे हैं.
उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा, “हमें आप जैसे लोगों से दिक़्क़त नहीं है. लेकिन एनएचएस में कई डॉक्टर-नर्स ऐसे हैं जो अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट या डिजिटल एक्स-रे तक सही से नहीं पढ़ पाते. ऐसे लोगों को भारत के अस्पताल भी नौकरी पर नहीं रखते.”
अपराध और छवि
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नोरा चाहती हैं कि सभी अवैध प्रवासियों को वापस भेजा जाए.
उनका कहना है कि ब्रिटेन और अमेरिका में इनमें से कई भारतीय हैं, जबकि बड़ी संख्या में लोग अन्य देशों से भी आते हैं.
एसेक्स में यह तनाव सबसे अधिक नज़र आता है. यहां का बेल होटल, जो कभी रहने का एक साधारण ठिकाना था, अब महीनों से प्रदर्शन का केंद्र बना हुआ है.
यहां लोग लगातार नारे लगाते हैं, “उन्हें वापस भेजो.”
यह गुस्सा तब और बढ़ गया जब इथियोपियाई शरणार्थी हदुश केबाटु को ब्रिटेन आने के सिर्फ़ आठ दिन बाद 14 साल की लड़की से यौन हमले के आरोप में गिरफ़्तार किया गया.
अदालत ने बाद में उन्हें एक साल की सज़ा सुनाई. हालांकि, उन्होंने दावा किया कि वह निर्दोष हैं और अच्छे ईसाई हैं.
इस घटना को प्रवासी विरोधी लोग अपने तर्क का आधार बनाते हैं.
ब्रिटेन में फिलहाल 32 हज़ार शरणार्थी होटलों में रह रहे हैं. यह संख्या पिछले साल 51 हज़ार थी. कमी के बावजूद यह आंकड़ा अब भी सरकार के वादों से अधिक है.
ये होटल, जिनकी ऑनलाइन तस्वीरों में अच्छे कमरे और बाथरूम दिखते हैं, अब शरणार्थियों के लिए ठिकाना बन गए हैं.
यहां अव्यवस्था है और कई शरणार्थी अवैध कामगारों के साथ रह रहे हैं. इनमें से बहुत से लोग गिग इकॉनमी में डिलीवरी ब्वॉय के तौर पर काम कर रहे हैं.
कादिर इस समय एक होटल में रह रहे हैं. उनका कहना है कि वह बिना किसी कानून को तोड़े काम करना चाहते हैं.
इसके उलट, कुछ लोग जिन्हें हफ़्ते भर में सिर्फ 9.95 पाउंड मिलते हैं, मजबूरी में रोज़ 20 पाउंड की अवैध शिफ़्ट करते हैं.
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे मानव तस्करों से क़र्ज़ लेकर यहां आते हैं.
ऐसी संघर्ष की कहानियां अक्सर ख़बरों से गायब रहती हैं. सुर्ख़ियों में आते हैं तो सिर्फ़ केबाटु जैसे मामले, जो यह धारणा और मज़बूत करते हैं कि पूरा सिस्टम विफल हो चुका है.
विरोध की आवाज़ें
इसका असर ब्रिटेन से बाहर भी महसूस किया जा रहा है.
ऑस्ट्रेलिया में भारतीय मूल की सांसद मिशेल आनंदा-राजा ने कहा, “एक प्रवासी होने के नाते मुझे बार-बार अपने अस्तित्व को साबित करना पड़ता है और मैं बहुत थक गई हूं.”
आयरलैंड में हाल के हमलों में भारतीय मूल के लोग निशाना बने. यह वही देश है जिसने दो बार भारतीय मूल के शख़्स को प्रधानमंत्री चुना है.
ऑस्ट्रेलिया में पॉलिन हैनसन, जो कभी भारतीय प्रवासियों की तारीफ़ करती थीं, अब उन समूहों के साथ खड़ी हैं जो उनकी संख्या घटाने की मांग कर रहे हैं.
डेनमार्क में रहने वाले लेखक तबिश ख़ैर ने कहा, “समस्या प्रवासी या मजदूरों में नहीं है. असली परेशानी अरबों डॉलर में बाहर जाने वाला पैसा है और यह हर देश के कामगारों को प्रभावित करता है. इसे लेकर 1980 के दशक में उपाय करने के बजाय बढ़ावा दिया गया.”
भारतीयों को क्यों निशाना बनाया जाता है?
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दरअसल, भारतीय प्रवासी शिक्षा और पेशेवर तरक्की में सबसे आगे हैं. अमेरिका में उनकी औसत आय हर समुदाय से अधिक है.
ब्रिटेन में भारतीय मूल का व्यक्ति प्रधानमंत्री बना और कनाडा में बड़ी संख्या में भारतीय डॉक्टर, वकील और कारोबारी हैं.
अच्छे समय में उनकी खूब तारीफ़ होती है, लेकिन मुश्किल दौर आते ही उनके ख़िलाफ़ जलन और नाराज़गी बढ़ जाती है. और यह कोई नई बात नहीं है.
भारतीयों की मौजूदगी कई बार तनाव बढ़ा देती है.
उनके त्योहारों पर ट्राफ़लगर स्क्वायर और टाइम्स स्क्वायर को सजाया जाता है. उनका खाना हर हाई स्ट्रीट पर आसानी से मिलता है. बॉलीवुड और क्रिकेट स्टार दुनिया भर में मशहूर हैं.
अच्छे समय में इन्हें सफलता का प्रतीक माना जाता है, लेकिन मुश्किल दौर में यही विवाद का कारण बन जाते हैं.
एक विश्लेषक ने कहा, “जो प्रतीक मेल-जोल के होते हैं, वही तनाव के समय अलगाव की याद दिलाने लगते हैं.”
ट्रंप का नया अमेरिका
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यूरोप में नफ़रत सड़कों पर दिखती है, लेकिन अमेरिका में यह नीतियों और इसके नेताओं के भाषणों में झलकती है.
लोवी इंस्टीट्यूट से एक भारतीय टिप्पणीकार ने कहा कि ट्रंप की वापसी के बाद “अमेरिका में भारतीयों के ख़िलाफ़ नस्लवाद का नया दौर शुरू हुआ.”
भारतीय मूल के अधिकारी निशाने पर आ गए हैं. यहां तक कि उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की भारतीय मूल की पत्नी भी ऑनलाइन नस्लभेदी हमलों का शिकार हुई हैं.
ट्रंप ने हाल ही में एच-1बी वीज़ा की फ़ीस 1,500 डॉलर से बढ़ाकर एक लाख डॉलर (करीब 88 लाख रुपये) करने की घोषणा की है.
भारत के लिए यह बड़ा झटका है क्योंकि एच-1बी वीज़ा पाने वालों में 70 प्रतिशत हिस्सा भारत का है. अमेरिका की छोटी कंपनियां और स्टार्टअप इतनी भारी राशि नहीं चुका पाएंगी.
विशेषज्ञों का कहना है कि अब विदेशी कंपनियां भारत से कर्मचारियों को नौकरी पर रखने से बचेंगी.
इसका असर यह होगा कि भारतीय इंजीनियर और आईटी प्रोफ़ेशनल या तो भारत में ही रुकेंगे या अन्य देशों में रोज़गार तलाशेंगे.
असलियत यह है कि अमेरिका को भारतीय और चीनी छात्रों की ज़रूरत है.
अमेरिकी छात्र इंजीनियरिंग कम चुनते हैं, जबकि भारतीय और चीनी छात्र ही अमेरिकी लैब्स में काम करते हैं, इनसे ही सिलिकॉन वैली चलती है. ऐसे में इस तरह का उपाय अमेरिका को ही कमज़ोर बनाता है.
लेकिन विरोध लगातार तेज़ हो रहा है. हाल ही में एक स्थानीय युवक ने दक्षिणपंथी लेखक चार्ली किर्क की हत्या कर दी.
इस घटना से पहले ही चार्ली किर्क ने सोशल मीडिया पर लिखा था, “अमेरिका को भारत को और वीज़ा नहीं देना चाहिए. भारतीयों ने अमेरिकी मज़दूरों को सबसे ज़्यादा विस्थापित किया है. अब बहुत हुआ, हम भर चुके हैं.”
कनाडा में सीनियर आईटी मैनेजर सौरभ शर्मा ने कहा, “मैं कनाडा में हूं, लेकिन मेरे दोस्त और सहकर्मी अमेरिका में हैं. वे अपनी स्थिति को लेकर हमेशा डरे रहते हैं और भविष्य के बारे में असमंजस में हैं. हर समय विस्थापन का डर लेकर जीना आसान नहीं है.”
योगदान और दाग़
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भारतीय प्रवासियों को पूरी तरह से बेदाग़ कहना सही नहीं होगा. वीज़ा धोखाधड़ी, शोषण और पॉलिटिकल ओवररीच जैसी खामियां भी मौजूद हैं.
लेकिन करोड़ों लोगों का आंकलन इस आधार पर करना सही नहीं है. भारतीयों ने अपने रहन-सहन और कामकाज से कई देशों को बहुत बदल दिया है.
ब्रिटेन में ऋषि सुनक और अमेरिका में कमला हैरिस, नोबेल और बुकर पुरस्कार विजेता लेखक, अस्पतालों से लेकर आईटी कंपनियों तक. हर जगह उनका योगदान साफ़ दिखाई देता है.
डेनमार्क में रहने वाले लेखक तबिश ख़ैर ने कहा, “पश्चिम और बाकी विकासशील दुनिया के बीच एक दीवार खड़ी हो रही है. भारत को पश्चिम पर भरोसा नहीं करना चाहिए. उसे दूसरे देशों के साथ मिलकर काम करना होगा. हम पश्चिम का नहीं, बल्कि ‘बाकी दुनिया’ का हिस्सा हैं और भारत वहां नेतृत्व कर सकता है.”
कठिन हो रही है राह
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भारतीय प्रवासियों के लिए हालात लगातार मुश्किल हो रहे हैं.
यूरोप में रैलियां नस्लवाद का रूप ले रही हैं. ऑस्ट्रेलिया में नेता प्रवासियों को लेकर अब विरोधी बातें कर रहे हैं.
अमेरिका में वीज़ा फ़ीस बहुत बढ़ाई जा चुकी है. भारतीयों की राजनीतिक ताक़त के बावजूद कनाडा का भारत के साथ तनाव असुरक्षा को और बढ़ा रहा है.
भारत में बैठकर देखने से हमें भले ही यह लगता है कि प्रवासी वहां मौज का जीवन जी रहे हैं लेकिन सच यह है कि इसके पीछे डर और असुरक्षा भी है.
यूं तो यहां अपनापन गहरा दिखाई देता है, लेकिन यह बेहद नाज़ुक होता है और अचानक बदल सकता है.
वैश्विक सवाल
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अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मेज़बान देश माइग्रेशन पर ईमानदारी से बहस कर पाएंगे?
क्या वे पूरे समुदाय को दोष देने से बचेंगे? और क्या वे उनकी रक्षा करेंगे जो उनके ही अस्पताल, यूनिवर्सिटी और टेक्नोलॉजी सेक्टर को चलाते हैं?
दुनिया में प्रवासियों का सबसे बड़ा देश भारत क्या उनकी आवाज़ उठा पाएगा? यह केवल नफ़रत से जुड़े अपराधों के बाद मदद देने से नहीं, बल्कि वैश्विक बहसों में स्पष्ट और साहसपूर्वक हिस्सा लेने से संभव होगा.
कुछ भारतीय मानते हैं कि प्रवासी समुदाय को भी आत्मचिंतन करना चाहिए, क्योंकि सफलता से पहचान मिलती है और पहचान से सवाल उठते हैं.
ये भारतीय कहते हैं कि भारत सरकार प्रवासियों को ताक़त और प्रभाव के लिए तो आगे करती है, लेकिन प्रवासियों को सीधे प्रभावित करने वाली नीतियों और उनकी नकारात्मक सोच के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोलती है.
भारतीय प्रवासियों की ज़िंदगी लगातार मुश्किल होती जा रही है.
ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, जर्मनी, कनाडा, सिलिकॉन वैली और सिडनी हर जगह हालात बदल रहे हैं. अब यह सिर्फ़ सफलता की कहानी नहीं, बल्कि जीने और सम्मान बचाने की लड़ाई भी बन गई है.
भारत के सामने बड़ा सवाल है कि क्या वह अपने प्रवासियों को नफ़रत से बचाने के लिए आवाज़ उठाएगा?
या फिर चुपचाप देखता रहेगा कि उनकी बनाई दुनिया हर दिन और असुरक्षित होती जा रही है?
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