“जब मैं 16 साल की उम्र में अकेली अमेरिका आई तो जेब में पैसे नहीं थे और अब मैं अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में चुनी जाने वाली भारतीय मूल की पहली महिला हूँ.”
जब भारत में केरल की प्रमिला जायपाल ने अमेरिका के फ़िलाडेल्फिया में भारतीय अमेरिकी के बीच ये कहा, तो तालियों की गड़गड़ाहट में उनकी बाक़ी बात डूब गई.
प्रमिला कह रही थीं, “मैं पहली हूँ पर आख़िरी नहीं.”
नवंबर 2016 में जब प्रमिला जायपाल हाउस ऑफ रिप्रेज़ेंटेटिव्स में चुनी गईं, तभी कमला हैरिस ने भी अमेरिकी सीनेट में अपनी जगह बनाई. यानी हाउस ऑफ रिप्रेज़ेंटेटिव्स और सीनेट से बने अमेरिकी कांग्रेस में चुनी जाने वालीं भारतीय मूल की महिलाएं.
हैरिस उसके बाद उपराष्ट्रपति बनीं और अब राष्ट्रपति पद के लिए लड़ रही हैं.
वहीं जायपाल चार बार लगातार वॉशिंगटन स्टेट के सातवें डिस्ट्रिक्ट से चुने जाने के बाद अब पांचवी बार हाउस ऑफ रिप्रेज़ेंटेटिव्स के चुनाव में खड़ी हैं.
साल 2024, ना सिर्फ़ भारतीय मूल के लोगों के लिए बल्कि भारतीय मूल की महिलाओं के लिए अमेरिकी राजनीति में महत्वपूर्ण साबित हो रहा है.
अमेरिका के इतिहास में पहली बार इस साल के राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी की दौड़ में तीन भारतीय मूल के अमेरिकी, जिनमें दो महिलाएं हैं, ने दांव लगाया.
रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवारी की रेस में निकी हेली और विवेक रामास्वामी को डोनाल्ड ट्रंप ने हरा दिया पर डेमोक्रेटिक पार्टी की कमला हैरिस ने अपनी पार्टी का नामांकन हासिल कर लिया.
लेकिन भारतीय मूल की इन औरतों को ये मुकाम बहुत मुश्किल से मिला है.
प्रमिला जायपाल ने फ़िलाडेल्फिया के एक प्रचार कार्यक्रम में हमसे बातचीत में कहा, “जब मैं पहली बार चुनाव में खड़ी हुई और प्रचार में मदद के लिए भारतीय अमेरिकी समुदाय, जिनमें ज़्यादातर पूंजी मर्दों के पास है, उन्हें संपर्क किया, तो वो कह देते कि हमें नहीं लगता आप जीत पाएंगी.”
पर औरतें ही नहीं, भारतीय मूल के लोग अमेरिका की राजनीति में सही मायनों में अपनी जगह पिछले 10 साल में ही बना पाए हैं.
वैसे तो अमेरिकी कांग्रेस में पहला क़दम 1957 में डेमोक्रेट दलीप सिंह सौंद ने रखा था. लेकिन उनके बाद 50 सालों तक सन्नाटा रहा.
इस सन्नाटे को 2005 में रिपब्लिकन पार्टी के बॉबी जिंदल ने तोड़ा. लेकिन वो ख़ुद को अमेरिकी पहले और भारतीय मूल का बाद में बताते आए हैं.
साल 2015 में जब वो राष्ट्रपति पद के लिए रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवारी की दौड़ में आए तो कहा, “हम भारतीय-अमेरिकी, अफ़्रीकी-अमेरिकी, आइरिश-अमेरिकी, अमीर अमेरिकी या ग़रीब अमेरिकी नहीं हैं. हम सब अमेरिकी हैं.”
रफ़्तार इतनी धीमी क्यों?
कैलिफ़ोर्निया के छठे डिस्ट्रिक्ट से पिछले 10 साल से कांग्रेस के लिए जीतते आ रहे अमी बेरा के मुताबिक़ ये पीढ़ियों की बात है और अमेरिका में भारतीय प्रवासी समुदाय अब भी काफ़ी नया है.
वॉशिंगटन में हुई मुलाक़ात में उन्होंने कहा, “मैं जब अमेरिका में पला-बढ़ा उस वक़्त केवल 10,000 भारतीय यहाँ थे, आज आप एक पूरी पीढ़ी देख रहे हैं, जो यहाँ के हिसाब से यहीं पली-बढ़ी. मेडिसिन और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हम आगे हैं पर अब ये नई पीढ़ी सरकार में प्रतिनिधित्व चाहती है.”
सरकार में किसी पद पर होने के अलावा भारतीय मूल के अमेरिकी अब प्रमुख पार्टियों के लिए पैसे इकट्ठा करने में भी अहम भूमिका निभा रहे हैं.
भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के दौर में साल 2015 में बनी रिपब्लिकन हिंदू कोअलिशन (आरएचसी) इसका उदाहरण है.
ट्रंप और भारतीय मूल के वोटर
शिकागो में रहने वाले आरएचसी के संस्थापक शलभ शैली कुमार ने कई आयोजनों में डोनाल्ड ट्रंप को बुलाया, जहाँ उन्होंने भारतीय अमेरिकी समुदाय को संबोधित किया.
इसी दौरान पारंपरिक तौर से डेमोक्रेट रहे भारतीय मूल के वोटर रिपब्लिकन पार्टी की तरफ़ आकर्षित होने लगे. लेकिन इस बार के चुनाव प्रचार में उनकी आवाज़ धीमी रही है.
आरएचसी के संस्थापक शलभ शैली कुमार के मुताबिक़, इसकी वजह पार्टी का बदलता रुख़ है.
उन्होंने कहा, “हिंदू अमेरिकी समझते थे कि ये व्हाइट अमेरिकियों की पार्टी है. राष्ट्रपति ट्रंप ने उन तक हाथ बढ़ाकर इस सोच को 2016 में ख़त्म किया था. लेकिन पिछले सालों में पार्टी के कैम्पेन मेनेजर्स वापस पुराने ढर्रे पर चले गए हैं.”
इस बार ‘लोटस फ़ॉर पोटस’ यानी अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए कमला कहने वाले भारतीय ज़्यादा दिखाई पड़ रहे हैं.
इनमें से कई डेमोक्रेटिक पार्टी और उसके सहयोगी संगठनों के साथ वॉलंटियर कर घर-घर जाकर दक्षिण एशियाई वोटरों से बात कर रहे हैं.
घर-घर प्रचार
वॉल स्ट्रीट की एक कंपनी में वाइस प्रेज़िडेंट, सुबा श्रीनी और उनकी दोस्त शुभ्रा सिन्हा भी प्रचार के लिए निकले हैं.
हम उनके साथ दस घरों में जाते हैं. आठ घरों में कोई नहीं मिलता. एक घर में डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक और एक में रिपब्लिकन. रिपब्लिकन उनसे बात करने से भी मना कर देते हैं.
सुबा के मुताबिक ये औसत है, “ये बहुत मुश्किल काम है. वक़्त लगता है और 20 प्रतिशत लोग ही घर पर मिलते हैं पर अगर इस पूरी कवायद में हम एक व्यक्ति का मन बदलने में भी कामयाब हो जाएं तो काफ़ी है.”
कैम्पेन ऑफ़िस इन वॉलंटियर्स को मतदाताओं के घरों की लिस्ट देता है.
वो लोगों से बात तो करते ही हैं, साथ ही उनकी राजनीतिक पसंद के बारे में वापस पार्टी को बताते हैं.
पास के मोहल्ले में सोफी भी घर-घर जा रही हैं. एक घर में रिपब्लिकन समर्थक से लंबी बातचीत के बाद वो बताती हैं, “मैंने उन्हें अपना और अपने परिवार का अनुभव बताया, पिछली सरकार की कमियों की वजह से हम पर क्या असर पड़ा, पर हमें सम्मानजनक रहना होता है. ये अमेरिका है, सबको अपनी पसंद से वोट करने की आज़ादी है.”
इन वॉलंटियर्स को जोड़ने वाला प्रमुख संगठन है, साल 2016 में बना ‘इंडियन अमेरिकन इम्पैक्ट’, जो भारतीय मूल के अमेरिकी नेताओं के लिए फंड जुटाता है, प्रचार में मदद करता है और आम भारतीय अमेरिकी को वोट डालने के लिए प्रेरित करता है.
इस वक़्त ये अमेरिका की अलग-अलग बैटलग्राउंड स्टेट्स में प्रचार कर रहा है, जहाँ के वोटर्स ने अब तक किसी एक पार्टी को वोट देने का मन नहीं बनाया है.
इम्पैक्ट ग्रुप कर रहे प्रचार
बैटलग्राउंड स्टेट पेनसिल्वेनिया के फिलेडेल्फिया शहर में ‘इंडियन अमेरिकन इम्पैक्ट’ के कार्यकारी निदेशक चिंतन पटेल से हुई.
मुलाकात में उन्होंने बताया कि हाल में संगठन ने बैटलग्राउंड स्टेट्स में दक्षिण-एशियाई मतदाताओं का एक अनूठा सर्वे किया.
चिंतन के मुताबिक, “सर्वे में राष्ट्रपति पद के चुनाव पर उनका नज़रिया और अहम मुद्दे पूछे गए और हमने पाया कि उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस का समर्थन करने वाले दक्षिण एशियाई मतदाताओं और बाक़ी के बीच में 50 पॉइंट का फ़ासला है.”
चिंतन पटेल का ये भरोसा कितना सही है, इसका पता तो पांच नवंबर को ही चल पाएगा.
लेकिन ये साफ़ है कि डेमोक्रेटिक पार्टी दक्षिण एशियाई मतदाताओं का समर्थन पाने के लिए इम्पैक्ट जैसे संगठनों की मदद से वॉलंटियर्स जुटाने की हर संभव कोशिश कर रही है.
भारतीयों की ज़्यादा तादाद वाले पेनसिल्वेनिया के फ़िलाडेल्फिया के इस आयोजन में ख़ास मेहमान बुलाए गए थे.
भारतीय मूल की पद्मा लक्ष्मी और बांग्लादेशी गायिका अरी अफसर भी आईं.
लेखिका, टीवी प्रोड्यूसर और मॉडल पद्मा लक्ष्मी के मुताबिक़, राष्ट्रपति पद की ये दौड़ नस्ल, मूल और जेंडर की तो है पर बात उससे भी आगे बढ़ गई है.
उन्होंने कहा, “ये ज़रूर है कि अगर कमला हैरिस काली होतीं तो सर्वेक्षणों में आगे होतीं. लेकिन ये चुनाव हम सब पर असर डालेगा. तो मैं बस आगाह कर सकती हूँ. कह सकती हूँ कि चुनाव प्रक्रिया से जुड़िए क्योंकि ये अमेरिका की आनेवाली कई नस्लों को प्रभावित करेगा.”
अमेरिकी जनगणना ब्यूरो के अनुसार, 2022 में अमेरिका में भारतीय अमेरिकी लोगों की संख्या 48 लाख थी.
प्यू सर्वे के अनुसार, 68 प्रतिशत रजिस्टर्ड भारतीय अमेरिकी वोटर खुद को डेमोक्रेटिक पार्टी से जुड़ा हुआ मानते हैं या इस पार्टी की तरफ़ जुड़ाव रखते हैं.
सिर्फ़ 29 प्रतिशत का ही झुकाव रिपब्लिकन पार्टी की तरफ़ है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित