संयुक्त राष्ट्र के अनुसार जल सुरक्षा का मुद्दा विश्व में शांति के रास्ते में एक बड़ी अड़चन रहा है.
दुनिया की लगभग 40 प्रतिशत आबादी साझा जल सीमाओं के निकट रहती है. मगर पानी के न्याय संगत इस्तेमाल को लेकर केवल चंद देशों के बीच ही जल संधि हुई है.
अमेरिका और मेक्सिको उन गिने-चुने देशों में आते हैं, जिनके बीच जल संधि हो चुकी है. यह दुनिया की सबसे पुरानी जल संधि है.
अमेरिका और मेक्सिको के बीच बहने वाली रियो ग्रांदे और कोलोराडो नदी दोनों देशों के बीच एक हज़ार मील से लंबी सीमा भी कायम करती हैं. हालांकि, पानी की किल्लत के चलते अमेरिका और मेक्सिको के बीच हुई जल संधि में अब समस्या नज़र आ रही है.
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इस संधि के तहत मेक्सिको की ओर से अमेरिका को जल आपूर्ति के लिए जो लक्ष्य रखा गया है, वह अक्तूबर में पूरा होने की संभावना नहीं दिखती.
पानी की किल्लत से अमेरिका में टेक्सस सहित कई इलाक़ों में किसानों और उद्योगों को पानी की किल्लत का सामना करना पड़ रहा है.
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मेक्सिको के ख़िलाफ़ नए टैरिफ़ या व्यापार शुल्क और प्रतिबंध लादने की धमकी दी है.
इसलिए, हम दुनिया जहान में यही जानने की कोशिश करेंगे कि मेक्सिको अमेरिका को पानी देने के लिए बाध्य क्यों है?
अमेरिका और मेक्सिको की जल संधि
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अमेरिका में रियो ग्रांदे कहलाने वाली नदी मेक्सिको में रियो ब्रावो के नाम से जानी जाती है. ये नदी दक्षिण मध्य कोलोराडो के सैन यूआन पहाड़ों से निकलती है.
टेक्सस पहुंच कर यह नदी दो देशों के बीच प्राकृतिक सीमा बन जाती है और आगे जाकर मेक्सिको की खाड़ी में मिल जाती है.
वहीं कोलोराडो नदी कोलोराडो के रॉकी माउंटेन से निकलते हुए कोर्टेज़ सागर में मिलती है.
यह दोनों नदियां अमेरिका और मेक्सिको के लिए महत्वपूर्ण हैं और उनके बीच पानी का बंटवारा ही संधि का प्रमुख अंग है.
कोलोराडो स्टेट यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर स्टीफ़न ममी कहते हैं कि दोनों देशों के बीच जल विवाद तब से जारी है, जब 1890 के दशक में रॉकी माउंटेन में इन नदियों के पानी का इस्तेमाल बढ़ गया.
“उस दौरान रॉकी माउंटेन में नदी पर बांध बनाने शुरू कर दिए गए, जिससे एल पासो की अमेरिकी जनता और कोर्टेज़ सागर के पास मेक्सिको के नागरिकों को पानी की किल्लत की चिंता होने लगी.”
लंबी वार्ताओं के बाद 1906 में अमेरिका और मेक्सिको के बीच जल संधि हो गई, जिसके तहत मेक्सिको को रियो ग्रांदे का केवल 10 प्रतिशत पानी ही मिला.
इससे मेक्सिको के किसान नाराज़ हो गए. यह स्थिति दूसरे विश्व युद्ध तक बनी रही. लेकिन उसके बाद अमेरिका को विश्व राजनीति में अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए मेक्सिको की ज़रूरत पड़ी.
स्टीफ़न ममी के अनुसार, उस समय लातिन अमेरिकी देशों का एक बड़ा गुट था, जिसमें मेक्सिको बहुत प्रभावशाली था. अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में अपने प्रस्ताव पारित करवाने के लिए अमेरिका को मेक्सिको और उसके सहयोगी लातिन अमेरिकी देशों के समर्थन की ज़रूरत थी.
इसलिए अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने मेक्सिको की जल समस्या को संबोधित करने के लिए दोनों देशों के बीच जल संधि की दोबारा समीक्षा करने का फ़ैसला किया.
अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने रियो ग्रांदे और कोलोराडो नदी के क्षेत्र की सरकारों को इस समस्या का हल निकालने के लिए राज़ी कर लिया.
इसके फलस्वरूप 1944 में दोनों देशों के बीच नई जल संधि हुई जिसके तहत हर साल रियो ग्रांदे का 40.3 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी अमेरिका को आवंटित करने पर सहमति बनी.
बदले में, अमेरिका ने हर साल कोलोराडो नदी का 1.8 अरब क्यूबिक मीटर पानी मेक्सिको को देना स्वीकार किया. तय हुआ कि यह पानी नहरों और साझा नियंत्रण वाले बांधों से सप्लाई किया जाएगा.
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स्टीफ़न ममी कहते हैं कि अगले पचास वर्षों तक इस संधि में कोई बाधा नहीं आई. लेकिन 90 के दशक के मध्य में रियो ग्रांदे के इलाकों में सूखा पड़ने लगा और 1997 में पहली बार मेक्सिको अमेरिका को रियो ग्रांदे के पानी का निर्धारित कोटा सप्लाई करने में विफल हो गया और उसने अमेरिका से इस मामले में रियायत मांगी.
दरअसल, जब इस संधि का मसौदा तैयार किया गया था उस समय भारी बारिश हुई थी और इसलिए सूखे की आशंका पर विचार नहीं किया गया. इस मसौदे को तैयार करने वालों ने यह नहीं सोचा कि आगे इस लक्ष्य को पूरा करने में दिक्कत आ सकती है.
स्टीफ़न ममी कहते हैं, “उन्होंने यह नहीं सोचा कि आने वाले सालों में पानी की मांग बढ़ जाएगी या सूखा भी पड़ सकता है जिससे पानी की सप्लाई कम हो सकती है. उन्होंने सोचा कि अगर किसी साल सूखा पड़ता है तो मेक्सिको अगले साल उसके द्वारा अमेरिका को दिए जाने वाले पानी की सप्लाई के लक्ष्य को पूरा कर लेगा. उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि यह सूखा 20-30 सालों तक भी जारी रह सकता है और यही हुआ है.”
मेक्सिको की समस्या
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अब तक हर पांच साल के दौरान मेक्सिको ने अमेरिका को तय कोटा से चालीस प्रतिशत से कुछ अधिक पानी ही दिया है. अक्तूबर के मध्य तक मेक्सिको को यह कमी पूरी करनी है जिसकी संभावना बहुत कम है.
राष्ट्रपति ट्रंप के टैरिफ़ और प्रतिबंध लादने की धमकी के बाद मेक्सिको ने अपने दूसरे जलाशयों से कुछ पानी अमेरिका को दिया है, लेकिन वह उसे दिए गए लक्ष्य से बहुत कम है.
टेक्सस वाटर रिसोर्स इंस्टीट्यूट की शोध वैज्ञानिक डॉक्टर रोज़ारियो सांचेज़ का कहना है कि स्थिति काफ़ी गंभीर हो गई है.
“इतनी विकट स्थिति पहले कभी नहीं थी. पानी की किल्लत, जलवायु परिवर्तन, राजनीतिक उथल-पुथल. हर लिहाज़ से हालात मुश्किल हैं. यह तीसरा कालचक्र है जिसमें पानी की आपूर्ति का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया है.”
डॉक्टर रोज़ारियो सांचेज़ कहती हैं, “ये नई बात नहीं है, मगर मौसम में आ रहे बदलाव के कारण मेक्सिको में सूखा और नतीजतन पानी की आपूर्ति में कमी अब निरंतर होती जा रही है. पहले मेक्सिको जलाशयों को भरने के लिए चक्रवात के मौसम पर निर्भर करता था. मेक्सिको संधि के तहत अपनी पानी आपूर्ति की बाध्यता को पूरा करने के लिए अपने जलाशयों से पानी अमेरिका को भेज रहा है.”
डॉक्टर सांचेज़ के मुताबिक़, हालांकि मेक्सिको के जलाशयों में भी इतना पानी नहीं है कि वह आपूर्ति के कोटा को पूरा कर पाए.
वह कहती हैं, “यह सूखा अब बरसों से जारी है. पानी की किल्लत का असर अमेरिका के टेक्सस राज्य के किसानों पर भी पड़ रहा है. वहां के किसानों का कहना है कि पानी की किल्लत की वजह से राज्य में गन्ने की खेती ख़त्म होती जा रही है. वो चाहते हैं कि जल आपूर्ति के लिए मेक्सिको पर अधिक दबाव डाला जाए.”
डॉक्टर सांचेज़ कहती हैं कि इसी के मद्देनज़र राष्ट्रपति ट्रंप ने मेक्सिको पर पानी चुराने का आरोप लगा कर टैरिफ़ और प्रतिबंध लादने की धमकी दी, जिसके बाद माहौल बदल गया है.
डॉक्टर रोज़ारियो सांचेज़ के अनुसार यह समस्या को सुलझाने का सही तरीक़ा भले ही ना हो, मगर इससे इस मुद्दे पर ध्यान ज़रूर केंद्रित हो गया है. इससे दोनों देश वार्ता करने को मजबूर हो गए हैं जो कि अच्छी बात है.
पानी की किल्लत की वजह से मेक्सिको सरकार पर उसके अपने किसानों की ओर से भी दबाव पड़ रहा है.
पिछले जल आपूर्ति चक्र के अंत में 2020 में मेक्सिको के चिवावा क्षेत्र के किसानों ने एक बांध पर जाकर विरोध प्रदर्शन किए, जहां से पानी अमेरिका को दिया जाना था. पुलिस बलों के साथ संघर्ष में एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गई.
डॉक्टर रोज़ारियो सांचेज़ कहती हैं कि मेक्सिको पिछले पंद्रह सालों से अपने जल प्रबंधन में सुधार लाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन सफलता उसके हाथ नहीं लगी है. मसला यह है कि इन कामों के लिए निवेश की ज़रूरत है और अमेरिका के साथ लगी सीमा क्षेत्र में बढ़ती आबादी के साथ मेक्सिको में पानी की मांग भी बढ़ गई है.
“ऐसे में मेक्सिको अपनी जनता का रोष झेलने के बजाए अमेरिका के साथ तनाव का सामना करने के लिए अधिक तैयार लगता है.”
लंबे समय तक 1944 में हुई यह जलसंधि एक सफल प्रयोग मानी जा रही थी, लेकिन अब इस पर सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं.
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जल से जुड़े क़ानून और युद्ध
नीदरलैंड्स स्थित इंस्टीट्यूट फ़ॉर वाटर एजुकेशन में जल सहयोग, क़ानून और कूटनीति की प्रोफ़ेसर सुज़ाना श्मायर दुनिया की कई जल संधियों का गहराई से अध्ययन कर चुकी हैं.
वो कहती हैं, “दुनिया में 700 से अधिक जल संधियां अस्तित्व में हैं. विश्व में 313 जल स्रोत ज़मीन पर हैं जबकि 600 से ज़्यादा जल स्रोत ज़मीन के नीचे हैं. यानी कई नदियों के बेसिन क्षेत्र संबंधी एक से अधिक संधियां हुई हैं, जिससे कई देशों को फ़ायदा होता है.”
प्रोफ़ेसर सुज़ाना श्मायर बताती हैं कि जल संधियों से दो बड़े फ़ायदे होते हैं.
“एक तो यह तय हो जाता है कि वो पानी का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं और कैसे नहीं कर सकते. दूसरा फ़ायदा यह है कि पानी साझा करने वाले देश जब अपने जल संसाधनों का विकास करते हैं तो उससे दूसरे देश पर बुरा असर नहीं पड़ता, जिससे इसे लेकर संघर्ष नहीं होता.”
वह कहती हैं, “साथ ही, जल संधियों के तहत यह देश एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हैं. इससे बाढ़ की पूर्व सूचना एक-दूसरे को दी जा सकती है जिससे जान-माल का नुकसान होने से बच सकता है.”
अक्सर देशों में संघर्ष का एक प्रमुख कारण बांध होते हैं.
सुज़ाना श्मायर कहती हैं, “हमारी शोध के अनुसार बांध दो देशों के बीच संघर्ष का एक प्रमुख कारण रहे हैं. जब नदी के ऊपरी क्षेत्र में कोई देश बांध बनाता है तो नदी के निचले हिस्से वाले देशों को चिंता होती है कि वह देश बांध के ज़रिए नदी का अधिक पानी रोक लेगा और निचले क्षेत्रों में पानी की किल्लत हो जाएगी. इससे निचले क्षेत्र के देशों के पर्यावरण और आर्थिक विकास पर भी बुरा असर पड़ सकता है.”
हालांकि, पानी साझा करने और जल संधियों को लागू के करने के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था नहीं है, मगर पानी साझा करने को लेकर कुछ दिशानिर्देश देने वाले समझौते ज़रूर हैं.
इसके दो प्रमुख सिद्धांत हैं. एक तो यह कि पानी का बंटवारा बराबर हो और उससे किसी को ख़ास नुक़सान ना पहुंचे. इसी के आधार पर यूरोपीय संघ में समझौते हुए हैं.
सुज़ाना श्मायर बताती हैं कि 1995 में हुई मीकोंग संधि भी एक अच्छी मिसाल है. इसके तहत लाओस ने जब बांध बनाए तो अपने पड़ोसी देशों के साथ लगातार बातचीत के ज़रिए बांध से उन पर पड़ने वाले प्रभाव को नियंत्रित किया और अपने पड़ोसी देशों के साथ मिल कर जल संसाधनों का विकास किया.
लेकिन कई बार जब देशों के बीच दूसरे अन्य कारणों से संघर्ष चल रहा हो, तो बांध का इस्तेमाल हथियार की तरह भी किया जा सकता है. जैसा कि इसी साल भारत और पाकिस्तान के बीच दिखाई दिया है.
सुज़ाना श्मायर कहती हैं, “सिंधु समझौता इसकी मिसाल है. साठ के दशक में भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ यह समझौता कई दशकों तक दो देशों के बीच संघर्ष और तनाव के बावजूद बरकरार रहा. इसलिए जब भारत के कश्मीर में आतंकवादी हमले के बाद भारत ने सिंधु समझौते को स्थगित कर दिया तो कई लोगों को आश्चर्य हुआ. कुछ लोग ऐसा कह सकते हैं कि पहली बार भारत ने राजनीतिक संघर्ष में बांध और पानी का इस्तेमाल किया है.”
वहीं कई बार यह भी देखने को मिला है कि साझा जल संसाधनों की वजह से कई देश एक-दूसरे के साथ सहयोग करने लगे हैं.
पूर्व यूगोस्लाविया से टूट कर बने देश सावा नदी के पानी के साझा इस्तेमाल के लिए आपसी मतभेद और तनाव के बावजूद एक दूसरे के साथ सहयोग करने को राज़ी हो गए.
मेक्सिको और अमेरिका की समस्या का हल
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लंदन के किंग्स कॉलेज में पर्यावरणीय राजनीति की प्रोफ़ेसर नाहो मिरूमाची की राय है कि मौजूदा हालात को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि मेक्सिको संधि के अनुसार अमेरिका को जल आपूर्ति की अपनी बाध्यता को पूरा कर पाएगा.
हालांकि, इस बात पर चर्चा हो रही है कि मेक्सिको के जलाशयों से पानी निकाल कर अमेरिका को दिया जाए.
उन्होंने कहा कि फ़िलहाल दोनों देशों के बीच जानकारी साझा करने पर बात हो रही है ताकि पता चल सके कि नदी के कौन से क्षेत्र में कितना पानी इस्तेमाल हो रहा है, इसकी हाइड्रोलिक मॉडलिंग की जा सके.
इससे यह पता चलेगा कि भविष्य में कितने पानी की आपूर्ति की अपेक्षा की जा सकती है. मगर यह विवादास्पद मुद्दा है और भविष्य में इस बारे में क्या योजनाएं तैयार की जाएं, इस पर कोई सहमति नहीं बनी है.
दोनों ही देशों के लोग पानी की किल्लत से परेशान हैं, जिससे सरकारें दबाव में हैं.
नाहो मिरूमाची कहती हैं कि टेक्सस में कई किसान इस बात से नाराज़ हैं कि संधि के तहत उन्हें जितने पानी का वादा किया गया था, वह पूरा नहीं हो पा रहा है जिससे उन्हें आर्थिक नुक़सान हो रहा है.
वहीं मेक्सिको के किसान भी नाराज़ हैं कि रियो ग्रांदे के निचले हिस्सों में सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं हो रहा और उनका पानी अमेरिका को दिया जा रहा है. दूसरी तरफ़ टेक्सस के किसान कहते हैं कि मेक्सिको में पानी ज़ाया किया जा रहा है.
नाहो मिरूमाची कहती हैं कि टेक्सस के किसान ऐसी तस्वीरों का हवाला देते हैं, जिनमें मेक्सिको के खेतों में बाढ़ दिखाई देती है. दरअसल, इन समस्याओं को सुलझाने के लिए किसानों को मदद मिलनी चाहिए और कृषि उद्योग में अधिक निवेश किया जाना चाहिए.
दूसरी तरफ़ मेक्सिको का कहना है कि टेक्सस में सिंचाई व्यवस्था में काफ़ी सारा पानी रिसाव की वजह से ज़ाया होता है और रियो ग्रांदे क्षेत्र में शहरी आबादी के बढ़ने की वजह से पानी की मांग बढ़ गई है.
नाहो मिरूमाची के अनुसार पानी का समान और संतुलित इस्तेमाल करना हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है.
वह कहती हैं, “सूखे की वजह से यह अच्छा अवसर है कि दोनों देश मिल कर जल प्रबंधन में सुधार करें और लंबे समय के लिए अपनी जल प्राथमिकताओं पर विचार करें.”
अब लौटते हैं अपने मुख्य सवाल की ओर, मेक्सिको अमेरिका को पानी देने के लिए बाध्य क्यों है?
इसका एक सीधा जवाब यह है कि 80 साल से लागू जल संधि के तहत वह अमेरिका को पानी देने के लिए बाध्य है. लेकिन असली जवाब कुछ पेचीदा है.
दो देशों की सीमा क्षेत्र में सूखा पड़ना अब आम बात होने लगी है. दूसरी ओर, वहां शहरी इलाके फैलते जा रहे हैं जिससे पानी की मांग भी बढ़ रही है.
साथ ही, जलवायु परिवर्तन से स्थिति और बिगड़ रही है मगर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जलवायु परिवर्तन पर ख़ास विश्वास नहीं करते.
एक अहम सच्चाई यह है कि दोनों देश इन नदियों पर निर्भर हैं और मेक्सिको की अमेरिका को पानी देने की बाध्यता से आगे बढ़ कर दोनों देशों को मिल कर इस समस्या को सुलझाने के लिए कदम उठाने चाहिए.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित