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अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने कहा है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर ज़ेलेंस्की से बहुत ख़फ़ा थे.
रुबियो ने सीबीएस न्यूज़ को दिए इंटरव्यू में कहा कि राष्ट्रपति ट्रंप ने ज़ेलेंस्की के साथ बिल्कुल सही व्यवहार किया.
रुबियो ने कहा कि केवल राष्ट्रपति ट्रंप ही नहीं बल्कि बाइडन भी ज़ेलेंस्की से परेशान हो गए थे और लोगों को ये भूलना नहीं चाहिए. अक्तूबर 2022 में अमेरिकी प्रसारक एनबीसी ने एक रिपोर्ट प्रकाशित थी, जिसमें बताया था कि जून 2022 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ज़ेलेंस्की से फोन पर बात करते हुए आपा खो बैठे थे.
उस रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रपति बाइडन ने फोन पर बातचीत के दौरान ज़ेलेंस्की को एक अरब डॉलर की मदद की पेशकश की तो यूक्रेन के राष्ट्रपति ने शिकायत शुरू कर दी कि ये नहीं मिला, वो नहीं मिला और इसी पर बाइडन ख़फ़ा हो गए.
इसी तरह जुलाई 2023 में ब्रिटेन के तत्कालीन रक्षा मंत्री बेन वालेस ने चेतावनी देते हुए कहा था कि यूक्रेन को ये समझना चाहिए कि उसके अंतरराष्ट्रीय पार्टनर एमजॉन नहीं हैं कि आपने ऑर्डर दिया और सामान घर पहुँच गया. उन्होंने कहा था कि यूक्रेन को इस मदद के लिए आभारी होना चाहिए. तब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक थे.
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर ज़ेलेंस्की ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद व्हाइट हाउस जाने वाले छठे विदेशी मेहमान थे.
इससे पहले इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू, जापान के प्रधानमंत्री शिगेरु इशिबा, जॉर्डन के किंग अब्दुल्लाह, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर जा चुके थे. ज़ेलेंस्की ने अगर इन सारे दौरों को ठीक से समझा होता तो व्हाइट हाउस में दुनिया भर के मीडिया के सामने उनके साथ जो कुछ भी हुआ, उससे शायद बच सकते थे.
आक्रामक ज़ेलेंस्की
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ट्रंप ने सत्ता में आने से पहले यूक्रेन को लेकर संदेश भी दे दिया था कि उनका रुख़ बाइडन से बिल्कुल अलग होने वाला है. इसराइल को लेकर ट्रंप का जो संदेश था, वैसा ही रुख़ भी अपनाया था. जापान, फ़्रांस, ब्रिटेन और भारत को लेकर भी ट्रंप काफ़ी आक्रामक थे लेकिन सबने व्हाइट हाउस में ज़ेलेंस्की जैसी स्थिति नहीं आने दी.
भारत के ख़िलाफ़ ट्रंप सत्ता में आने से पहले और आने के बाद भी काफ़ी आक्रामक थे लेकिन पीएम मोदी ने व्हाइट हाउस जाने से पहले पूरी तैयारी कर ली थी कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल को कैसे हैंडल करना है.
आम बजट में भारत ने अमेरिका से आयात होने वाले उत्पादों पर से टैरिफ कम कर दिया था और ऊर्जा के साथ रक्षा सहयोग भी बढ़ाने की घोषणा की थी.
यहाँ तक कि ट्रंप ने मोदी के वॉशिंगटन पहुँचते ही रेसिप्रोकल टैरिफ़ की घोषणा कर दी थी. लेकिन भारत ने ट्रंप की किसी भी घोषणा की आलोचना नहीं की. ट्रंप की आक्रामकता पर भारत से कोई प्रतिक्रिया नहीं आना, इसे ट्रंप को हैंडल करने की तैयारी और रणनीति के तौर पर देखा गया.
विदेशी मामलों की जानकार और वरिष्ठ पत्रकार निरूपमा सुब्रमण्यम ने लिखा है, ”ज़ेलेंस्की व्हाइट हाउस में उपहास के पात्र इसलिए बने कि वह बिना तैयारी के गए थे. ज़ेलेंस्की उस राष्ट्रपति से मिलने बिना तैयारी के गए थे, जिनका रूस के राष्ट्रपति पुतिन के साथ अच्छा संबंध है. ज़ेलेंस्की ने पुतिन के साथ शांति समझौते के बदले सुरक्षा गारंटी की मांग की जबकि पीएम मोदी ने ट्रंप की कोई भी बात मानने से इनकार नहीं किया.”
”ट्रंप ने ब्रिक्स पर डॉलर को कमज़ोर करने का आरोप लगाते हुए हमला किया तो भारत ने भी कहा कि वह वैकल्पिक मुद्रा के पक्ष में नहीं है. ये अलग बात है कि भारत स्थानीय मुद्रा में अंतरराष्ट्रीय व्यापार का हिमायती है. ट्रंप टैरिफ़ को लेकर भारत को खुलेआम आड़े हाथों लेते रहे लेकिन मोदी ने उनसे बहस नहीं की. भारत ने ये सारी बातें बंद दरवाज़े के भीतर कहना उचित समझा.”
भारत के लिए क्या संदेश है?
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ट्रंप ने सत्ता में आने के बाद कुछ चीज़ें स्पष्ट कर दी हैं और यह भारत के लिए भी स्पष्ट संदेश है. पिछले हफ़्ते बुधवार को कैबिनेट की मीटिंग के बाद ट्रंप पत्रकारों से बात कर रहे थे, तभी उनसे पूछा गया था कि अगर चीन ने ताइवान को जबरन अपने में मिलाने की कोशिश की तो क्या अमेरिका ताइवान का साथ देगा?
इस पर ट्रंप ने कहा था, ”मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता हूँ क्योंकि ख़ुद को इस विवाद में नहीं उलझाना चाहता हूँ.’ ट्रंप ने साफ़ कर दिया है कि वह बाइडन की तरह ताइवान को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं. ट्रंप आने के बाद से कह रहे हैं कि अमेरिका किसी को मु्फ़्त में सुरक्षा गारंटी नहीं देने जा रहा है. ट्रंप ताइवान पर आरोप लगा रहे हैं कि ताइवान की चिप इंडस्ट्री अमेरिकी चिप मैन्युफैक्चरर को प्रभावित कर रहा है.”
ज़ेलेंस्की के साथ ट्रंप ने जो किया,उसके बाद से यह चिंता गहरा गई है कि चीन ने ताइवान पर हमला किया तो अमेरिका मदद करेगा या नहीं.
अमेरिका के डेलावेयर यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफ़ेसर डॉक्टर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, ”ज़ेलेंस्की अपनी ग़लती का खामियाजा भुगतेंगे. आप एक महाशक्ति से जंग दूसरी महाशक्ति पर आश्रित होकर नहीं लड़ सकते हैं. रूस यूक्रेन के लिए महाशक्ति ही है. अमेरिका या यूरोप आपको जंग में मदद कर रहे हैं तो उनके अपने हित हैं. अगर उनके हितों को पूरा करने के लिए जंग लड़ेंगे तो आपकी जीत कभी नहीं होगी.”
प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, ”भारत के लिए यह सबक है कि ट्रंप के लिए अमेरिका फ़र्स्ट है. आप अमेरिका के कहे पर चीन से युद्ध नहीं कर सकते हैं. अमेरिका के गोरों का डीएनए यूरोप का है. ट्रंप जब यूरोप के नहीं हुए तो भारत के क्या हो जाएंगे? ट्रंप जब कनाडा को घुटने के बल ला सकते हैं तो भारत के प्रति उनकी सहानुभूति क्यों रहेगी. भारत समेत उन सभी देशों के लिए संदेश है कि आप किसी की पीठ थपथपाने से बैटल ग्राउंड मत बनिए.”
मोदी के अमेरिका जाने से पहले ट्रंप चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की तारीफ़ कर चुके थे. ट्रंप ने मोदी के साथ प्रेस कॉन्फ़्रेंस में ही कहा था कि चीन दुनिया का अहम देश है. ट्रंप ने चीन और भारत के बीच शांति के लिए मध्यस्थता की भी पेशकश की थी. लेकिन भारत ने किसी तीसरे देश की मध्यस्थता से साफ़ इनकार कर दिया था.
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कम होते दोस्त
निरूपमा सुब्रमण्यम ने लिखा है, ”भारत ने शायद सार्वजनिक रूप से ट्रंप की एकमात्र इसी पेशकश को मानने से इनकार किया. इसे भी भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने बहुत ही विनम्रता से कहा कि यह भारत का द्विपक्षीय मामला है. अमेरिका ने यूक्रेन के लिए जो शांति समझौता पेश किया है, उसमें खोने के अलावा कुछ भी नहीं है. ट्रंप का कहना है कि हमलावर के सामने पीड़ित को सरेंडर करना होगा. यह हम सबके लिए चेतावनी है. अभी हम सब ज़ेलेंस्की हैं.”
”भारत को इस सच का सामना करना होगा कि पुरानी दोस्ती और साझेदारी शायद भविष्य में काम न आए. भारत रूस पर भी आश्रित नहीं रह सकता है क्योंकि पुतिन और ट्रंप अब एक ही पाले में हैं. चीन की क़रीबी पाकिस्तान से बढ़ रही है और ग्लोबल साउथ की अहम शक्तियां ब्राज़ील और दक्षिण अफ़्रीका भी दिल्ली की तुलना में बीजिंग के क़रीब हैं.”
प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, ”ट्रंप ने शी जिनपिंग को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया था लेकिन पीएम मोदी को नहीं किया था. ट्रंप ने ताइवान के मामले में चीन को आश्वस्त कर दिया है. ऐसे में भारत के लिए स्पष्ट संदेश है कि आप अमेरिका के दम पर कोई जंग नहीं लड़ सकते हैं और उसमें भी किसी महाशक्ति से. आज यूरोप के नेता दिखा रहे हैं कि वे यूक्रेन के साथ खड़े हैं लेकिन यूरोप से कितनी मदद मिल रही है? यूरोप पैसा दे भी रहा है तो रूस की संपत्ति जो फ्रिज़ करके रखी है, उससे दे रहा है.”
ट्रंप प्रशासन साफ़ कह चुका है कि यूक्रेन की सीमा 2014 से पहले वाली नहीं होगी. यूक्रेन नेटो का सदस्य नहीं बनेगा. यूक्रेन को अमेरिका सुरक्षा गारंटी नहीं देगा. ऐसे में सवाल उठता है कि यूक्रेन को रूस से जंग के बदले मिला क्या?
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