डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं.
अमेरिका के पिछले एक सौ साल के इतिहास में वो पहले राष्ट्रपति हैं जो एक बार चुनाव हारने के बाद व्हाइट हाउस में वापसी कर रहे हैं. ट्रंप अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति रह चुके हैं.
ट्रंप की व्हाइट हाउस में वापसी के साथ ही अमेरिकी विदेश नीति में बदलाव देखने को मिल सकता है.
ट्रंप की विदेश नीति ऐसे दौर में कई मोर्चों पर बड़ा बदलाव कर सकती है, जब दुनिया के कुछ हिस्से युद्ध और अनिश्चितता के दौर से गुज़र रहे हैं.
चुनावी अभियान के दौरान ट्रंप ने अपनी नीतियों में व्यापक बदलाव के संकेत दिए थे.
हालांकि उन्होंने ये नहीं बताया था कि वो क्या करेंगे लेकिन वो दूसरे देशों में हस्तक्षेप करने से बचने और अपने देश के व्यापार को संरक्षण देने की नीति पर चल सकते हैं.
ट्रंप अमेरिका के हितों को सबसे ऊपर रखने की नीति पर चल सकते हैं. उनका नारा है- ‘अमेरिका फर्स्ट’.
उनकी जीत इस बात का संकेत है कि युद्ध और अनिश्चिचतता के दोहरे संकट वाले इस दौर में विदेश नीति को लेकर अमेरिका के रुख़ में अहम बदलाव देखने को मिल सकता है.
ट्रंप के चुनाव अभियान और 2017 से 2021 के बीच पद पर रहने के दौरान उनके रिकॉर्ड के आधार पर एक मोटा अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ट्रंप विदेश नीति के अलग-अलग मोर्चों पर क्या कर सकते हैं.
रूस, यूक्रेन और नेटो का सवाल
अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ये लगातार कहते रहे हैं कि वो रूस और यूक्रेन का युद्ध ‘एक दिन’ में ख़त्म करा सकते हैं.
जब उनसे पूछा गया कि वो इसे कैसे ख़त्म कराएंगे तो उन्होंने अपनी निगरानी में समझौता कराने की बात की थी. लेकिन इस बारे में कोई विस्तृत ब्यौरा नहीं दिया था.
ट्रंप के दो पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा प्रमुखों ने मई में लिखे एक रिसर्च पेपर में सुझाव दिया था कि अमेरिका को यूक्रेन को हथियारों की सप्लाई जारी रखनी चाहिए. लेकिन ये शर्त भी रखनी चाहिए कि वो रूस के साथ शांति वार्ता भी करे.
दूसरी ओर रूस को लुभाने के लिए पश्चिमी देश यूक्रेन को नेटो की सदस्यता देने का मामला टाले रख सकते हैं.
इन पूर्व सलाहकारों ने कहा है कि यूक्रेन को रूस के कब्जे से अपनी पूरी ज़मीन की वापसी की उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए लेकिन उसे अब सौदेबाजी मौजूदा अग्रिम मोर्चों के आधार पर ही करनी चाहिए.
डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं का कहना था कि ट्रंप रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को ख़ुश करने में लगे हैं. उनका ये रवैया यूक्रेन के मुद्दे पर समर्पण करने जैसा है. ट्रंप का ये क़दम पूरे यूरोप को ख़तरे में डाल सकता है.
जबकि ट्रंप का कहना है कि युद्ध रोकना उनकी प्राथमिकता है ताकि अमेरिका के संसाधनों की बर्बादी रोकी जा सके.
हालांकि ये साफ नहीं है कि सलाहकारों का ये रिसर्च पेपर किस हद तक ट्रंप की नज़रिये का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन ये इस बात के संकेत दे सकता है कि विदेश नीति के मामले में उन्हें अब किस तरह की सलाह मिल सकती है.
युद्ध ख़त्म करने के लिए ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति की छाया नेटो का भविष्य तय करने जैसे सामरिक मुद्दों पर भी पड़ सकती है. पश्चिमी देशों ने नेटो का गठन दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ की बढ़त को रोकने के लिए किया था.
नेटो के अब 32 सदस्य हैं. लेकिन ट्रंप शुरू से ही नेटो पर संदेह करते रहे हैं. उनका मानना है कि नेटो के किसी भी सदस्य देश पर हमले की स्थिति में अमेरिका की ओर से संरक्षण की नीति का यूरोप फ़ायदा उठाता रहा है. अमेरिका नेटो का संस्थापक सदस्य है.
सवाल ये है कि क्या अमेरिका नेटो की सदस्यता छोड़ देगा? अगर ऐसा होता है तो यह लगभग पिछली एक सदी से जारी ट्रांस अटलांटिक देशों की बीच के आपसी रिश्तों में एक अहम बदलाव होगा. हालांकि अभी ये बहस मुद्दा बना हुआ है.
ट्रंप के कुछ सहयोगियों का मानना है कि नेटो के प्रति ट्रंप के इस कड़े रवैये की वजह है.
ट्रंप चाहते हैं कि वो सदस्य देशों को इस बात के लिए मजबूर करना चाहते हैं कि वो नेटो के रक्षा खर्च से जुड़े गाइडलाइंस का पालन करें.
लेकिन अब सचाई ये है कि नेटो नेता इस बात को लेकर चिंतित होंगे कि ट्रंप की जीत का नेटो पर क्या फ़र्क़ पड़ेगा. नेटो कि विरोधी नेताओं के बीच इसकी क्षमताओं को लेकर क्या सोच बनेगी.
इसराइल, ग़जा और मध्य-पूर्व पर क्या रुख़ होगा
यूक्रेन की तरह ट्रंप ने मध्य-पूर्व में भी शांति लाने का वादा किया है.
माना जा रहा है कि वो गज़ा में इसराइल, हमास और लेबनान में इसराइल-हिज़्बुल्लाह के संघर्ष को ख़त्म करा सकते हैं. लेकिन यहाँ भी उन्होंने ये नहीं बताया है कि ऐसा वो कैसे करेंगे.
ट्रंप ने बार-बार कहा है कि अगर जो बाइडन की जगह वो सत्ता में होते तो हमास इसराइल पर हमला नहीं करता. ईरान समर्थित (वित्तीय मदद) हमास पर अधिकतम दबाव की नीति से ही ऐसा हुआ है.
हालांकि ईरान के मामले में संभवत: ट्रंप अपनी पुरानी नीति पर ही लौटना चाहेंगे. ट्रंप के पहले कार्यकाल में अमेरिका ने ईरान के साथ न्यूक्लियर डील तोड़ दी थी और उस पर प्रतिबंधों का दायरा बढ़ा दिया था.
उन्हीं के कार्यकाल में ईरान के सबसे ताक़तवर कमांडर कासिम सुलेमानी को मार दिया गया था.
व्हाइट हाउस में रहने के दौरान ट्रंप ने इसराइल को ज़ोर-शोर से समर्थन दिया था. ट्रंप ने यरुशलम को इसराइल की राजधानी बताया था और अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यहां स्थांतरित कर दिया था. इसने ट्रंप के ईसाई एवेंजलिकल समर्थकों को उत्साहित कर दिया था. इस समुदाय के लोग बड़ी संख्या में ट्रंप के वोटर हैं.
उस समय इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने कहा था कि अमेरिकी प्रशासन में इससे पहले इसराइल का इतना अच्छा दोस्त कभी नहीं हुआ.
लेकिन आलोचकों का कहना है कि उनकी इस नीति ने मध्य-पूर्व को अस्थिर कर दिया.
फल़स्तीनियों ने ट्रंप का बहिष्कार किया क्योंकि यरुशलम पर उनके दावे को ट्रंप ने नकार दिया था. यरुशलम फ़लस्तीनियों के राष्ट्रीय और धार्मिक जीवन का केंद्र है.
ट्रंप ने जब इसराइल के साथ कुछ अरब और मुस्लिम देशों के के बीच शांति के लिए अब्राहम एकॉर्ड करवाया तब भी फलस्तीनियों को लगा कि उन्हें दरकिनार किया गया.
ये समझौता एक स्वतंत्र फ़लस्तीन के भविष्य पर फ़ैसला लिए बगैर किया गया था.
अरब देशों के बीच ऐसा कोई भी समझौते की शर्त दो राष्ट्र का सिद्धांत था. यानी इसराइल और फ़लस्तीन दो स्वतंत्र देश होने चाहिए. फ़लस्तीन के स्वतंत्र अस्तित्व के बगैर इस तरह का समझौता नहीं हो सकता था.
ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान में कई बार कहा कि ग़जा में चल रहे युद्ध को ख़त्म होते हुए देखना चाहते हैं.
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के साथ उनके संबध जटिल रहे हैं. कई बार ये रिश्ते बिगड़े भी हैं. लेकिन ये भी साफ़ है कि ट्रंप के अंदर नेतन्याहू पर दबाव बनाने की क्षमता है.
ट्रंप की कुछ प्रमुख अरब देशों के उन नेताओं से भी दोस्ती रही है, जिनके हमास के साथ संपर्क हैं.
हालांकि ये साफ़ नहीं है कि वो इसराइल को अपना मज़बूत समर्थन देने की नीति और मध्य-पूर्व में युद्ध ख़त्म कराने की अपनी मंशा के बीच कैसे संतुलन बिठाएंगे.
ट्रंप के सहयोगी उनके अनिश्चित रवैये को ही उनकी कूटनीतिक ताक़त मानते रहे हैं. लेकिन ये साफ़ नहीं है कि उनका ये रवैया संकट और बुरी तरह से अनिश्चितता में फँसे मध्य-पूर्व के मामले में कैसे काम करेगा.
ट्रंप को ये तय करना पड़ेगा कि इसराइली बंधकों को रिहाई के बदले गज़ा में शांति लाने की बाइडन की कोशिशों को आगे बढ़ाएं कि नहीं. अगर आगे बढ़ाएं भी तो कैसे. वैसे ये कूटनीतिक कोशिश अभी रुकी हुई है.
चीन की चुनौती और व्यापार नीति
अमेरिका अब अपनी विदेश नीति में चीन को लेकर क्या रुख़ अपनाएगा?
अमेरिकी सामरिक नीति का ये सबसे बड़ा सवाल है.
वैश्विक सुरक्षा और व्यापार पर पड़ने वाले इसके बड़े असर को देखते हुए ये अहम मुद्दा है.
जब ट्रंप सत्ता में थे तो उन्होंने चीन को अपना ‘रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धी’ क़रार देते हुए उससे होने वाले कुछ आयातों पर टैरिफ लगा दिया था. उस वक़्त चीन ने भी ‘जैसा को तैसा’ नीति अपनाते हुए अमेरिकी सामानों पर टैरिफ लगा दिया था.
हालांकि बाद में दोनों देशों के बीच इस तनाव को कम करने की भी कोशिशें हुईं लेकिन कोविड संकट ने इन्हें नाकाम कर दिया.
बाद में रिश्ते और ख़राब हो गए, जब ट्रंप ने ट्रंप ने कोविड को ‘चीनी वायरस’ क़रार दिया.
बाइडन प्रशासन ने भले ही चीन के प्रति अधिक ज़िम्मेदारी भरी नीति अपनाने का दावा किया.
लेकिन सच तो यही है कि उसने ट्रंप के शासन में चीन से होने वाले आयात पर लगाए गए कुछ टैरिफ ज्यों के त्यों रहने दिए.
अमेरिका की व्यापार नीति अब वहाँ के वोटरों की प्राथमिकता में रख कर तय हो रही है.
अमेरिकी वोटरों को लगता है कि घरेलू उद्योगों को संरक्षण देने से मैन्युफैक्चर सेक्टर की नौकरियां सुरक्षित रहेंगी.
लेकिन स्टील जैसे पारंपरिक अमेरिकी उद्योगों में नौकरियां घटने की दूसरी वजहें हैं.
फैक्टरियों में ऑटोमेशन और वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा के साथ ही उत्पादन का ढर्रा बदलने से भी नौकरियां कम हुई हैं.
ट्रंप ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को एक साथ ‘ब्रिलियंट’ और ‘ख़तरनाक’ कह कर तारीफ़ की थी. लगभग एक अरब 40 करोड़ से अधिक आबादी के इस देश पर शी जिनपिंग जिस कड़ाई से शासन करते हैं, ट्रंप उसे प्रशंसा की निगाह से देखते हैं.
ट्रंप के विरोधियोंं को इसमें उनके ‘तानाशाह’ रवैये की झलक दिखती है.
ट्रंप एक और अहम बदलाव कर सकते हैं. चीन को रोकने लिए बाइडन प्रशासन चीन के पड़ोसी देशों के साथ मज़बूत सुरक्षा संबंध बनाने की नीति का समर्थक है. लेकिन ट्रंप इस नीति से पीछे हट सकते हैं.
अमेरिका ताइवान को सैन्य सहायता देता रहा है. चीन ताइवान पर अपना दावा करता रहा है. उसका कहना है कि ताइवान उसका ही हिस्सा है और एक दिन वो इसे ख़ुद में मिलाकर रहेगा.
इस साल अक्टूबर महीने में ट्रंप ने कहा था कि अगर व्हाइट हाउस में उनकी वापसी हुई तो वो ताइवान की नाकेबंदी ख़त्म करने के लिए चीन के ख़िलाफ़ फौजी ताक़त का इस्तेमाल नहीं करेंगे.
उन्होंने कहा था, ”शी जिनपिंग जानते हैं कि मैं पागल हूं. मैं इतना टैरिफ लगाऊंगा कि चीनी आयात बुरी तरह लड़खड़ा जाएगा.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित