अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का दावा है कि बड़ी संख्या में अरब और मुस्लिम समुदाय उन्हें वोट कर रहा है.
मतदान से एक दिन पहले उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, “हम अमेरिकी राजनीति इतिहास में सबसे बड़ा और व्यापक गठबंधन बना रहे हैं. इसमें मिशिगन के अरब और मुस्लिम मतदाता रिकॉर्ड संख्या में जुड़ रहे हैं, क्योंकि ये लोग शांति चाहते हैं.”
ट्रंप ने कहा कि ये समुदाय जानता है कि कमला हैरिस और उनका युद्ध-प्रेमी मंत्रिमंडल मध्य पूर्व पर हमला करेगा और लाखों मुसलमानों को मार देगा, जिससे तीसरे विश्व युद्ध की शुरुआत होगी.
उन्होंने कहा कि मुझे वोट करने से शांति की बहाली होगी.
मिशिगन एक ऐसा राज्य है जहां अरब और मुस्लिम वोट निर्णायक हैं. यहां दोनों उम्मीदवारों ने इन समुदायों को अपनी तरफ करने के लिए खूब ज़ोर आजमाइश की है.
मतदान से पहले ट्रंप, डियरबॉर्न के एक हलाल कैफे भी पहुंचे थे. यह इलाके को अमेरिका की अरब राजधानी भी कहा जाता है, क्योंकि यह इस समुदाय का गढ़ है.
हाल ही में मुस्लिम नेताओं के एक समूह ने मिशिगन में हुई एक रैली में ट्रंप का समर्थन किया था और कहा था कि ट्रंप की जीत से मध्यपूर्व में शांति आएगी.
यहां ट्रंप ने कहा था कि वह मध्यपूर्व में युद्धों को रोकना और शांति बहाल करना चाहते हैं.
सवाल है कि क्या गज़ा में इसराइल के हमले को लेकर मुस्लिम समाज डेमोक्रेटिक पार्टी और जो बाइडन से नाराज़ है?
क्या वह अमेरिका में कमला हैरिस की जगह डोनाल्ड ट्रंप को देखना चाहता है? और अगर ट्रंप जीतकर आते हैं तो क्या सच में इसराइल-गज़ा युद्ध खत्म हो जाएगा?
बाइडन प्रशासन से नाराजगी
पिछले साल 7 अक्टूबर को इसराइल पर हमास ने हमला किया था, जिसमें 1200 से अधिक इसराइली नागरिकों की मौत हो गई थी और हमास के लड़ाके कई सौ लोगों को पकड़कर गज़ा ले गए थे.
इसके बाद से इसराइल ने ग़ज़ा में जंग शुरू की है, उसमें अब अब तक 42 हजार (हमास के स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक) से ज्यादा फलस्तीनी मारे जा चुके हैं.
मई, 2024 में बाइडन प्रशासन ने कांग्रेस को बताया था कि वह इसराइल को करीब 8400 करोड़ रुपये से अधिक के हथियार भेजने की योजना बना रहा है.
समाचार एजेंसी एसोसिएट प्रेस के मुताबिक इस पैकेज में 70 लाख डॉलर के टैंक और गोला बारूद शामिल था.
गज़ा युद्ध शुरू होने के बाद जिस तरीके से अमेरिका लगातार इसराइल की मदद कर रहा है, उससे अरब अमेरिकी और मुस्लिम मतदाताओं में नाराजगी है.
ट्रंप इस नाराजगी को अपने पक्ष में करना चाहते हैं.
इंडियन काउंसिल ऑफ़ वर्ल्ड अफेयर्स से जुड़े सीनियर फ़ेलो डॉक्टर फ़ज्जुर्रहमान कहते हैं फिलहाल मुस्लिम वर्ल्ड का पूरा फोकस ‘फलस्तीन’ पर है और उसकी आकांक्षा, राजनीति, चिंता और भविष्य ‘फलस्तीन’के आसपास घूम रहा है.
वे कहते हैं, “मुस्लिम और अरबों में डोनाल्ड ट्रंप को लेकर चाहत एक दम से पैदा नहीं हुई है. वहां मुख्यत दो ही विकल्प हैं- एक कमला हैरिस और दूसरा ट्रंप.”
फ़ज्जुर्रहमान कहते हैं, “हैरिस का विरोध और ट्रंप को विजयी बनाना दो अलग बातें हैं. जो विरोध की बातें उठी हैं, वो बाइडन प्रशासन की वजह से हैं, क्योंकि वह इसराइल के साथ खड़ा रहा है.”
वह कहते हैं, “हालांकि ट्रंप से भी उन्हें बहुत उम्मीदें नहीं हैं. वे खुले तौर पर इसराइल के समर्थक रहे हैं. जब इसराइल ने अपनी राजधानी को तेल अवीव से यरूशलम शिफ्ट किया था तो वे उसके पक्ष में थे. उन्होंने अपना दूतावास वहां शिफ्ट किया था. उन्होंने इसराइल के पक्ष में गोल्डन हाइट्स को जायज ठहराया था, अब्राहम समझौता करवाया था.”
फ़ज्जुर्रहमान कहते हैं कि ये ट्रंप की सिर्फ जुमलेबाजी है और वहां के मुस्लिम और अरब मतदाताओं के पास विकल्प ना होने की वजह से उनके समर्थन की बातें उठ रही हैं.
साल 2020 में अमेरिका की मध्यस्थता में संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इसराइल के साथ ऐतिहासिक समझौता किया था, जिसे ‘अब्राहम समझौता’ कहा जाता है.
क्यों मुस्लिम वर्ल्ड ट्रंप को चाहता है?
ट्रंप के कार्यकाल के दौरान ईरान और अमेरिका के संबंध लगातार तनावपूर्ण रहे हैं.
उनके समय में अमेरिका ने खुद को ईरान परमाणु समझौते से अलग कर लिया था. यह समझौता साल 2015 में यानी बराक ओबामा के कार्यकाल में हुआ था.
इस समझौते के तहत परमाणु कार्यक्रम रोकने के बदले ईरान पर लगे कड़े प्रतिबंध हटा दिए गए थे, लेकिन ट्रंप कार्यकाल में बड़े पैमाने पर प्रतिबंधों को फिर से लगा दिया गया था.
जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग की प्रो. रेशमी काज़ी कहती हैं कि ट्रंप ने अपने कार्यकाल में अरब वर्ल्ड और इसराइल के बीच नए रिश्ते स्थापित करवाने में बहुत मदद की थी.
वे कहती हैं, “इस समझौते के तहत इसराइल ने वेस्ट बैंक के बड़े हिस्सों को अपने में मिलाने की योजना को स्थगित कर दिया था. करीब पचास सालों बाद इसराइल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच राजनयिक संबंध बने थे, जो अपने आप में बहुत बड़ी बात थी.”
दूसरी तरफ फ़ज्जुर्रहमान कहते हैं कि ट्रंप एक बिजनेसमैन हैं और वे चीजों को ब्लैक एंड वाइट में देखते हैं.
वे कहते हैं, “ट्रंप मुस्लिम देशों की आंतरिक राजनीति, कल्चर, ऑटोक्रेसी और राजशाही जैसी चीजों में दखल नहीं देते हैं. वहीं दूसरी तरफ डेमोक्रेट्स सऊदी अरब पर बैन लगाने, मानवाधिकार और पावर शेयर करने जैसी बातें करते हैं, जबकि ट्रंप इस भाषा का इस्तेमाल ही नहीं करते.”
रेशमा काज़ी कहती हैं, “जब साल 2016 में ट्रंप राष्ट्रपति बने थे तो उन्होंने अपनी पहली आधिकारिक विदेश यात्रा के लिए सऊदी अरब को चुनकर सबको चौंका दिया था. अक्सर अमेरिकी राष्ट्रपति पहली विदेश यात्रा में कनाडा या मेक्सिको जाते रहे हैं.”
दूसरी तरफ फ़ज्जुर्रहमान कहते हैं कि अब ज्यादातर मुस्लिम वर्ल्ड ‘फलस्तीन’ का झंडा उठाते-उठाते थक गया है, क्योंकि उन्हें पता चल गया है कि इसका हासिल कुछ नहीं है.
वे कहते हैं, “फलस्तीन का डिविजन आंतरिक है, क्योंकि वहां सालों से हमास और फतह के बीच लड़ाई चल रही है. वे एक-दूसरे की नहीं सुनते. उन्होंने 60 सालों तक उनका समर्थन किया है. पैसा दिया, स्कूल बनवाए, ग्लोबल प्लेटफॉर्म से लेकर अरब लीग तक में सपोर्ट किया, लेकिन उन्हें क्या मिला?”
फ़ज्जुर्रहमान कहते हैं, “ये पैसा कमाने की सदी है. मुस्लिम वर्ल्ड अब सोचता है कि फलस्तीन समर्थन और इसराइल विरोध के चक्कर में वह यूरोप नहीं जा पाया. दुनिया क्लाइमेट चेंज, निवेश, नॉलेज अर्थव्यवस्था, मल्टी पोलर वर्ल्ड की बात रहा है और वह सिर्फ फलस्तीन में फंसा है.”
वे मानते हैं कि ट्रंप के अमेरिका में आने से इन संभावनाओं को बल मिलेगा और मुस्लिम वर्ल्ड दुनिया के साथ नए रिश्ते स्थापित करेगा.
क्या ट्रंप गज़ा-इसराइल युद्ध रुकवा सकते हैं?
मध्य पूर्व का आधुनिक इतिहास दरअसल विफल शांति प्रयासों का इतिहास बनकर रह गया है.
सबसे मशहूर शांति प्रयास इसराइल और फलस्तीनियों के बीच साल 1993 में ओस्लो शांति समझौते के साथ शुरू हुए थे.
उसके बाद दशकों तक दोनों के बीच वार्ताएं चलती रहीं, ये सब शांति, इसराइल का कब्जा खत्म करने और दो अलग राष्ट्र बनाने में कामयाब नहीं हो पाईं.
लेकिन अक्टूबर 2023 के बाद इसराइल-गज़ा युद्ध ने पूरी तरह से मध्य-पूर्व को बदल दिया है और अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या ट्रंप वो कर पाएंगे जिसकी उम्मीद लोग उनसे कर रहे हैं.
इस सवाल के जवाब में रेशमा काज़ी कहती हैं कि ट्रंप के आने के बाद ये संभावनाएं बढ़ जाती हैं, हालांकि इसमें ज्यादा बड़ी भूमिका इसराइल और हमास की होगी.
वे कहती हैं, “ट्रंप पहले भी मध्य-पूर्व से अमेरिकी सैनिकों को वापस और अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध के अंत की घोषणा कर चुके हैं. यही वजह है कि लोग ये मानते हैं कि वे युद्ध के पक्ष में नहीं हैं.”
वहीं दूसरी तरफ फ़ज्जुर्रहमान कहते हैं, “ट्रंप मध्यस्थता नहीं करेंगे बल्कि वे समाधान को थोपने का काम करेंगे. वे जानते हैं कि अमेरिका बहुत शक्तिशाली है. उनके पास डिप्लोमेसी और मैन्यूवरिंग की जगह नहीं है. वे आक्रामक और सटीक राजनेता हैं, जो चीजों को लटकाने में विश्वास नहीं रखते.”
वे कहते हैं, “ट्रंप को अमेरिका की हेजेमनी पर बहुत भरोसा करते हैं, जो उनकी राजनीति और विदेश नीति को ड्राइव करती है. अगर ऐसा हुआ तो इसका नुकसान इसराइल के मुकाबले फलस्तीनियों को ज्यादा होगा, क्योंकि समाधान कमजोर व्यक्ति पर ही थोपे जा सकते हैं.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित