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1990 के दशक में डोनाल्ड ट्रंप की किस्मत साथ नहीं दे रही थी और उन्हें अचानक नगदी (कैश) की ज़रूरत आन पड़ी थी. इसके बाद वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जापान के अमीरों को लुभाने के लिए एशिया की यात्रा पर निकल पड़े थे.
ट्रंप ने यह यात्रा अपने एक बड़े और लग्ज़री जहाज़ ‘ट्रंप प्रिंसेस’ से की थी. ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था कि कोई बिजनेसमैन अपने धंधे के लिए जापानी अरबपतियों की मदद मांग रहा हो.
न्यूयॉर्क की जटिल रियल एस्टेट दुनिया में, ट्रंप अपने ऑफ़िस से देख रहे थे कि कैसे 1980 के दशक में जापानी निवेशक मशहूर रॉकफे़लर सेंटर समेत अमेरिकी ब्रांडों और संपत्तियों के अधिग्रहण का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे.
यह वही पल था जब अमेरिका के सहयोगियों के साथ व्यापार और संबंधों के लिए ट्रंप का नज़रिया तैयार हुआ. यह तब भी दिखा जब उन्होंने आयात पर लगाए जाने वाले टैरिफ़ पर अपना ध्यान देना शुरू किया.
डोनाल्ड ट्रंप की कंपनी ‘द ट्रंप ऑर्गनाइज़ेशन’ की पूर्व कार्यकारी अधिकारी बारबरा रेस ने बीबीसी को बताया, “जापान के प्रति मेरे मन में बहुत नाराज़गी थी.”
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टैरिफ़ के पीछे जापानी कनेक्शन
रेस बताती हैं कि ट्रंप में उन्हें लेकर ईर्ष्या की भावना थी क्योंकि जापानियों को बेहद प्रतिभाशाली माना जाता था.
रेस के मुताबिक़, ट्रंप को लगा कि अमेरिका को अपने सहयोगी जापान को सैन्य सहायता प्रदान करने के बदले में ख़ास कुछ नहीं मिल रहा है.
ट्रंप अक़्सर शिकायत करते थे कि उन्हें बड़े जापानी कारोबारी समूहों के साथ व्यापार करना कठिन लगता है.
उस समय उद्योगपति ट्रंप ने कहा था, “मैं दूसरे देशों को अमेरिका का फ़ायदा उठाते देखकर थक गया हूं.”
यह बात, जिसे ट्रंप 2025 में कह सकते थे, असल में उन्होंने ये शब्द 1980 के दशक में सीएनएन के पत्रकार लैरी किंग के साथ एक इंटरव्यू के दौरान कहे थे. कई लोग इस बात को ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के शुरुआती इरादे के रूप में देखते हैं.
1987 में अपनी किताब ‘ट्रंप: द आर्ट ऑफ़ द डील’ में बिज़नेस के प्रति अपनी सोच को प्रकाशित करने के बाद ट्रंप ने कई इंटरव्यू दिए थे.
द ओपरा शो के दर्शकों के सामने होस्ट ओपरा विनफ़्रे के साथ लाइव बातचीत में उन्होंने कहा कि वे अमेरिकी विदेश व्यापार नीति को अलग तरीके़ से संभालेंगे और अमेरिका के सहयोगियों से “सही क़ीमत” वसूलेंगे.
उन्होंने कहा कि जब मुक्त व्यापार अस्तित्व में नहीं था तब जापान “अमेरिकी बाज़ार में उत्पादों की बाढ़” ला रहा था, लेकिन साथ ही उसने एशियाई देश (जापान) में “व्यापार करना असंभव” बना दिया था.
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तब अमेरिकी नागरिक क्या सोचते थे?
अमेरिका के डार्टमाउथ कॉलेज में इतिहास की प्रोफे़सर जेनिफ़र मिलर ने बताया कि उस समय दूसरे लोग भी ट्रंप की चिंताओं से सहमत थे.
जापान के प्रोडक्ट अमेरिका के सामान के साथ प्रतिस्पर्धा में थे. ख़ासकर वाहनों और इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में.
जैसे ही अमेरिका में कारखाने बंद हुए और नए जापानी ब्रांड बाजार में आए, जानकारों ने कहा कि जापान जल्द ही अमेरिका को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा.
ओपरा के साथ अपने इंटरव्यू से पहले, ट्रंप ने तीन प्रमुख अमेरिकी समाचार पत्रों में एक “खुला पत्र” प्रकाशित करने के लिए लगभग एक लाख डॉलर ख़र्च किए थे.
उस पत्र का शीर्षक था: “अमेरिकी विदेश रक्षा नीति में ऐसा कुछ ग़लत नहीं है जिसे थोड़े से दृढ़ संकल्प से ठीक नहीं किया जा सके.”
पत्र में ट्रंप ने दावा किया कि जापान और अन्य देश दशकों से अमेरिका का फ़ायदा उठा रहे हैं.
उन्होंने कहा कि “जापानियों ने अपनी सुरक्षा करने में लगने वाली लागत से चिंतामुक्त होकर (जबकि अमेरिका उनके लिए यह काम मुफ़्त में करता है) एक विशाल अर्थव्यवस्था का निर्माण किया है.”
1960 की अमेरिकी-जापान सुरक्षा संधि के तहत जापान की रक्षा के लिए अमेरिका प्रतिबद्ध है.
ट्रंप के लिए सबसे स्पष्ट समाधान जापान जैसे धनी देशों के उत्पादों पर टैरिफ़ लगाना था.
उन्होंने लिखा, “दुनिया अमेरिकी नेताओं पर हंसती है, क्योंकि हम उन जहाज़ों की रक्षा करते हैं जो हमारे नहीं हैं. उनमें तेल भरा जाता है जिसकी हमें ज़रूरत नहीं है. ये उन मित्र देशों के लिए है जो हमारी मदद नहीं करेंगे.”
मिलर के मुताबिक़, यह घोषणा विदेश नीति के लिए ट्रंप के नज़रिए की एक शक्तिशाली पेशकश थी.
यह नज़रिया इस सोच पर आधारित था कि मित्र राष्ट्र परजीवी थे और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दुनिया पर हावी रही उदारवादी सोच प्रतिस्पर्धी दुनिया में कमज़ोर और मूर्खतापूर्ण थी.
ट्रंप के अनुसार, इसका समाधान अंतर्राष्ट्रीय बाजार में संरक्षणवादी और ज्यादा आक्रामक नीति अपनाना था.
मिलर बताती हैं, “मुझे लगता है कि उन्हें टैरिफ़ इसलिए इतना पसंद है क्योंकि ये न केवल उनकी विदेशी व्यापार विचारधारा के अनुकूल है, बल्कि एक सफल व्यवसायी के रूप में वो ख़ुद की छवि को भी दिखाते हैं.”
उन्होंने कहा, “वह (ट्रंप) टैरिफ़ को एक ख़तरे के रूप में देखते हैं जिसे किसी दूसरे देश पर भी लागू किया जा सकता है.”
बिना समाधान की समस्या
मुक्त व्यापार नीतियों के आलोचक रहे क्लाइड प्रेस्टोवित्ज़ ने कहा कि कोई भी व्यक्ति जो ख़ुद को बौद्धिक रूप से थोड़ा भी गंभीर मानता है, वह ट्रंप के विचारों या इस मुद्दे पर उनके नज़रिए से सहमत नहीं हो सकता.
प्रेस्टोवित्ज़ का साफ़ तौर पर मानना है कि ट्रंप ने जो समस्या पर उठाई है, उसका कोई वास्तविक समाधान नहीं बताया है.
वो कहते हैं, “टैरिफ़ ऐसी चीज़ है जिसका आप दिखावा कर सकते हैं. जैसे, ‘देखो मैंने क्या किया, मैंने इन लोगों पर टैरिफ लगा दिया.’ इससे आप सख़्त आदमी की तरह दिखते हैं. अब ये तरीक़े प्रभावी हैं या नहीं, यह बहस का विषय है.”
प्रेस्टोवित्ज़ का मानना है कि तब से लेकर अब तक, अनुचित तरीक़े से व्यापार की शिकायत के बावजूद, वास्तविक समस्या यह है कि अमेरिका के पास मैन्युफैक्चरिंग की रणनीति का अभाव है.
बेशक, समय के साथ जापान के आगे निकलने की ‘आशंकाएं’ कम हो गईं और जापान अब एक सहयोगी है.अब चीन अमेरिका का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी है.
दबाव डालने की रणनीति
कुछ हफ़्ते पहले ट्रंप ने अपने दूसरे कार्यकाल के पहले विदेशी मेहमानों में से एक के रूप में जापानी प्रधानमंत्री का ओवल ऑफिस में स्वागत किया था.
लेकिन ट्रंप की शासन करने की सोच आज भी वैसी ही है जब वे एक युवा रियल एस्टेट डेवलपर थे.
वह अब भी मज़बूती से मानते हैं कि टैरिफ़ एक ऐसा साधन है, जिससे दूसरे देशों पर अपने बाज़ार खोलने और व्यापार घाटे को कम करने के लिए दबाव डाला जा सकता है.
अमेरिकन एंटरप्राइज़ इंस्टीट्यूट के अर्थशास्त्री माइकल स्ट्रेन कहते हैं, “वह (ट्रंप) यह बात किसी से भी कहते हैं, जो पूछने पर उनकी बात सुनने को तैयार हो और पिछले 40 सालों से यही हाल है. उनके प्रति निष्पक्ष होकर कहें तो आप जानते हैं कि यह अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को देखने का एक बहुत ही स्वाभाविक तरीका है.”
स्ट्रेन का कहना है कि छात्र अक़्सर अर्थव्यवस्था के बारे में ट्रंप की इस सोच को साझा करते हैं. ऐसे में शिक्षकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती छात्रों को विश्वास दिलाना कि उनकी (छात्रों की) समझ सही नहीं है.
स्ट्रेन बताते हैं कि रिपब्लिकन पार्टी पर ट्रंप के नियंत्रण के बावजूद राष्ट्रपति संशय रखने वाले सांसदों, व्यापारिक बैकग्राउंड से आने वाले नेताओं और अर्थशास्त्रियों को आश्वस्त करने में असफल रहे हैं.
स्ट्रेन का मानना है कि अमेरिकी सहयोगियों पर टैरिफ़ बढ़ाने की धमकियों से व्यापारिक निवेश कम हो सकता है और अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन कमजोर हो सकते हैं.
पार्टी के अंदर विरोध नहीं
जोसेफ़ लवोर्गना ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान राष्ट्रीय आर्थिक परिषद के मुख्य अर्थशास्त्री थे.
उनका मानना है कि टैरिफ़ मुद्दे पर बहुत अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया है और ट्रंप जो हासिल करना चाह रहे हैं, उसकी बड़ी तस्वीर नहीं देखी जा रही है.
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति घरेलू उद्योग, विशेषकर उच्च तकनीक वाले मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देना चाहते हैं.
लवोर्गना कहते हैं, “मुझे लगता है कि राष्ट्रपति ट्रंप एक व्यवसायी और लेन-देन संबंधी चीज़ों के साथ एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात समझते हैं. वह यह है कि मुक्त व्यापार सैद्धांतिक रूप में बहुत अच्छा है लेकिन वास्तविक दुनिया में आपको निष्पक्ष व्यापार की आवश्यकता है. इसका मतलब है एक समान खेल का मैदान.”
विश्लेषक का मानना है कि डोनाल्ड ट्रंप सही होंगे. कुछ ही रिपब्लिकन नेताओं ने सार्वजनिक रूप से राष्ट्रपति का विरोध किया है, जबकि ट्रंप अपने एजेंडे के प्रति भरोसे की मांग करते हैं.
फिर भी कुछ लोग जो चुप रहे हैं, वे समझते हैं कि ट्रंप की ओर लगाए जा रहे टैरिफ की बढ़ती क़ीमतों से उनके मतदाता प्रभावित हो सकते हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित