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इस दिसंबर की सुबह जब दिल्ली की कालिमा लिपटी धुंध सड़कों-लाइटों और समस्त आकृतियों को भी निगलने लगती है और गुरुग्राम के हाईवे पर कारें और दूसरे वाहन धातु के किसी सांप की तरह रेंगते हैं, कुछ ही दूर क्वार्ट्ज़ाइट की पुरानी लकीरें उभर आती हैं.
कोई हिमरेखा नहीं, कोई पोस्टकार्ड-शिखर नहीं; बस घिसी-छिली-कुतरी और ध्वस्त पहाड़ियां, जैसे पृथ्वी ने अपनी सबसे पुरानी हस्तलिपि पत्थर पर ही लिख छोड़ी हो.
अरावली में ऐसे ‘पोस्टकार्ड-शिखर’ कम हैं, यानी यह उतनी नाटकीय ऊंचाई वाली नहीं दिखती; लेकिन उसका पर्यावरणीय काम बहुत बड़ा है. धूल को रोकना, पानी रीचार्ज करना, जैव विविधता की रक्षा करना और अपनी गोद में वन्यजीवों का लालन-पालन.
यही अरावली है. उत्तर-पश्चिम भारत की वह पर्वतमाला, जिसे वैज्ञानिक साहित्य और लोकप्रिय भू-ज्ञान दोनों ‘भारत की सबसे पुरानी फोल्ड-माउंटेन बेल्ट’ के रूप में पहचानते हैं.
लोकइतिहासकार श्रीकृष्ण जुगनू बताते हैं, यह वह पर्वत शृंखला है, जिसमें लूनी, बनास, साबरमती, साहिबी, बेड़च (आयड़), खारी, सूकड़ी, कोठारी, सोम, जाखमी, कमला नदियां और नक्की, पुष्कर, जयसमंद, मातृकुंडिया, बेणेश्वर जैसी झीलें हैं.
भारत की रीढ़
अरावली भारत की रीढ़ है, जो चार राज्यों से गुजरती है. यह उत्तर-पश्चिम भारत में लगभग 670 किलोमीटर लंबी मानी जाती है.
यह दिल्ली के पास से शुरू होकर दक्षिण हरियाणा और राजस्थान के भीतर गहराई तक जाती है, और फिर गुजरात में अहमदाबाद के आसपास के मैदानों तक पहुंचती है.
इसका सबसे ऊंचा शिखर गुरु शिखर है, जो लगभग 1,722 मीटर है और यह राजस्थान के माउंट आबू में है. यहां आप खड़े होंगे तो बादल आपको छूकर निकलेंगे.
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भूगोलविद सीमा जालान बताती हैं कि अरावली 67 करोड़ वर्ष पुरानी पर्वतमाला है और यह नहीं होतीं तो उत्तर भारत की जाने कितनी नदियां नहीं होतीं. जाने कितने जंगल, कितनी वनस्पतियां, कितने बहुमूल्य धातु और कितने इकोलॉजिकल वैभव नहीं होते.
अरावली संस्कृत के ‘अर्बुदावलि’ से बना है. इसे राजस्थान के इतिहास में आडावळ के नाम से पुकारा जाता है.
यह पर्वतरेखा एक तरह की रक्षा-पंक्ति भी है, जो रेगिस्तान, धूल और जल-अभाव के खिलाफ़ चुपचाप खड़ी रही है.
यह उत्तर भारत का सबसे पुराना ‘टाइम कैप्सूल’ और सबसे नाज़ुक वर्तमान है.
अरावली की प्राचीनता अक्सर एक रोमांचक तथ्य की तरह दोहराई जाती है ‘हिमालय से भी पुरानी.’
लेकिन यह तुलना सिर्फ़ उम्र दिखाती है; ख़तरा नहीं.
भूगलविदों का कहना है कि हिमालय युवा है, बढ़ रहा है; अरावली बूढ़ी है.
भूविज्ञान की भाषा में यह प्रोटेरोज़ोइक और उससे जुड़े युगों के लंबे घटनाक्रम से बनी, जब भारतीय प्लेट और प्राचीन क्रस्ट-खंडों ने टकराव, रिफ्टिंग, अवसादन और रूपांतरण के चक्र झेले.
इस प्रक्रिया को कई स्रोत ‘अरावली-डेल्ही ऑर्गेनिक बेल्ट’ के रूप में रेखांकित करते हैं. एक ऐसा भू-खंड, जो महाद्वीपीय टुकड़ों की टक्कर और धीरे-धीरे हुए पर्वत-निर्माण के परिणामस्वरूप उभरा.
यह बताता है कि अरावली की चट्टानें और उनके भीतर की दरारें; एक ऐसे भू-तंत्र का हिस्सा हैं, जिसे बनना जितना कठिन था, टूटना उतना ही आसान हो सकता है; क्योंकि टूटने के लिए विस्फोट नहीं चाहिए- बस लगातार खनन, कटिंग, सड़कें, और कंक्रीट.
उत्तर भारत की ग्रीन वॉल
अरावली को उत्तर भारत की ‘ग्रीन वॉल’ कहा जाता है. थार मरुस्थल के विस्तार को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकने वाली प्राकृतिक दीवार. वनस्पति, मिट्टी, ढलानों और जल-धारण क्षमता का सम्मिलित तंत्र है.
नागरिक समूहों और कुछ तकनीकी आकलनों में अरावली के भीतर कई ‘गैप्स-ब्रीच’ का उल्लेख मिलता है. ऐसे हिस्से जहां पहाड़ियों की निरंतरता टूट गई है, और धूल-रेत के लिए रास्ता खुला है.
इस फ्रेम में दिल्ली-एनसीआर की धूल-आंधियाँ केवल मौसमी घटना नहीं, भूगोल का संकेत बन जाती हैं: इस पर्वतमाला में छेद बढ़ रहे हैं.
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यह एक कठिन कहानी है, क्योंकि यहां कारण ‘एक’ नहीं हैं. कहीं अवैध खनन है, कहीं वैध खनन का विस्तार, कहीं अनियोजित शहरीकरण, कहीं सड़क-रेल जैसी रैखिक परियोजनाएं, जो परिदृश्य को काटकर ‘टुकड़ों’ में बदल देती हैं.
दिल्ली के भीतर ‘रिज’, जिसे अरावली की उत्तरी कड़ी के रूप में देखा जाता है, शहरी पारिस्थितिकी का वह हिस्सा है, जिसे लोग पार्क की तरह देखते हैं, लेकिन वह मूलतः एक भू-रक्षात्मक संरचना है. यह धूल रोकने, सूक्ष्म जलवायु बनाने और जैव विविधता को टिकाए रखने वाला सुरक्षा तंत्र है.
अरावली दूर से ‘बंजर’ लगती है; लेकिन यही वन्यजीवों का भी घर है. तेंदुआ, धारीदार लकड़बग्घा, सियार, नीलगाय, साही और अनेक पक्षी प्रजातियां इसमें निवास करती हैं.
हरियाणा–दिल्ली–राजस्थान के किनारों पर तेंदुए की उपस्थिति की ख़बरें बार-बार आती रही हैं, और वन्यजीव कॉरिडोर की चर्चा भी.
इस कॉरिडोर का सवाल केवल ‘जानवर बचाओ’ नहीं है; यह परिदृश्य की अखंडता का सवाल है.
जब पहाड़ों के बीच सड़कें और रियल-एस्टेट ‘कट-लाइन’ बनाते हैं तो आवास छोटे द्वीपों में बंट जाता है.
छोटे द्वीपों में बड़े शिकारी टिकते नहीं और फिर मानव–वन्यजीव संघर्ष बढ़ता है और अंततः ‘वन्यजीव तो रहे नहीं’ का बहाना बनाकर विकास के बहाने विनाश आ बैठता है.
अरावली के दक्षिणी हिस्से उदयपुर–मेवाड़ क्षेत्र में वन्यजीव का इतिहास सिर्फ प्राकृतिक इतिहास नहीं, राजनीतिक और सामाजिक इतिहास भी है.
‘इतिहास का फॉरेंसिक सबूत’
इसी संदर्भ में एमके रंजीत सिंह का उल्लेख ख़ास महत्व रखता है. वह मेवाड़ में बाघों के पतन का एक कठोर लेखा प्रस्तुत करते हैं, जहां शिकार, वन-क्षरण और जंगली शाकाहारियों की कमी ने मिलकर पारिस्थितिकी की रीढ़ तोड़ दी.
रंजीत सिंह लिखते हैं कि एक शासक ने ‘लगभग 200 वयस्क बाघ’ बनाए रखने की बात करते हुए भी अपने शासनकाल में 375 से अधिक बाघों का शिकार किया.
इस पर इकोलॉजिकल हिस्टॉरियन डॉक्टर भानु कपिल के निर्देशन में हाल ही डॉक्टर उमा भाटी ने अनुंसधान किया है.
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डॉक्टर भानु कपिल का कहना है कि अरावली पर्वतमाला नहीं होती तो महाराणा प्रताप छोटी सेना के सहारे उस समय के मुगल बादशाह अकबर की विशालकाय सेना से मुकाबला कैसे कर सकते थे.
उनका कहना है कि महाराणा कुंभा ने मेवाड़ की रक्षा के लिए 32 किले बनवाए थे, जिन्हें ग्रीन फोर्ट के रूप में ऐतिहासिक माना जाता है.
आज दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत शहरों में एक उदयपुर अरावली के बिना नहीं बस सकता था. यह उस समय की रिंग फेंस सिटी थी, जो हर प्रकार के आक्रमणों से लोगों की सुरक्षा करती थी.
अरावली ही वह प्राण तत्व है, जिसने जल, जंगल और ज़मीन का दर्शन दिया.
डॉक्टर भानु कपिल का कहना है कि बिजौलिया का किसान आंदोलन हो या भील आंदोलन, अरावली पर्वत माला के संरक्षण के सवालों से भी जुड़े थे, क्योंकि उस समय ब्रिटिश अधिकारियों ने जंगलों से वन्यजीवों के शिकार बढ़ा दिए थे.
इस इलाके में केवड़े की नाल हो या चंदन के वृक्षों की कतारें या अन्य वनस्पतियां, अरावली के कारण ही रही हैं. कभी यहां चंदन और सागवान के वृक्ष इफ़रात में थे.
वह आगे बताते हैं 1949–1954 के पांच वर्षों में मेवाड़ ने अरावली के लगभग 140 बाघ गंवाए यानी औसतन 28 बाघ प्रति वर्ष. यानी निष्कर्ष यह कि 1960 के दशक तक मेवाड़ में बाघ विलुप्त हो गया, साथ ही जंगल और जंगली शाकाहारी प्रजातियां भी लगभग खत्म हो गईं.
इस तरह के तथ्य अरावली की आज की कहानी में ‘इतिहास का फॉरेंसिक सबूत’ जोड़ते हैं.
किस कीमत पर विकास
पारिस्थितिकी का टूटना अक्सर ‘धीरे’ होता है, पर जब वह दिखाई देता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.
अरावली से बाघ का गायब होना सिर्फ़ एक प्रजाति का अंत नहीं था; वह जंगल के पूरे पिरामिड का ढहना था और वह ढहना पानी, मिट्टी, खेती और समाज तक फैलता है.
सरकारी तंत्र और अदालती आदेशों के द्वंद्व में अरावली का भविष्य फंसा है, जहां ‘विकास’ की भाषा अक्सर ‘भूगोल’ को म्यूट कर देती है.
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अरावली के छीजने की मानवीय लागत अकल्पनीय है. चरवाहे, किसान और शहर की सीमा पर रहने वाले लोग बुरी तरह प्रभावित हो सकते हैं.
लेकिन आजकल अरावली क्षेत्र के पुराने चरवाहे यह साफ़ महसूस करते हैं कि गर्मी तेज़ हुई है, क्योंकि हरियाली घट गई है. बारिश का पानी जल्दी बह जाता है, क्योंकि ढलानों पर कटाव बढ़ा है. पशुओं के चरने का क्षेत्र कम हुआ है. और कई जगहों पर ‘जंगल’ का अर्थ अब सुरक्षा नहीं, टकराव बन गया है; क्योंकि आवास टूटने पर वन्यजीव और मनुष्य एक ही संकरे भू-भाग में आ जाते हैं.
यह कहानी केवल ‘पर्यावरण बनाम विकास’ नहीं है.
यह किस कीमत पर विकास का सवाल है और किसके हिस्से में वह कीमत आती है.
हालांकि अरावली पर एक भरोसेमंद उम्मीद की कहानी भी मौजूद है. जैसे पुनर्स्थापन.
गुरुग्राम का अरावली बायोडायवर्सिटी पार्क अक्सर इस बात का उदाहरण दिया जाता है कि गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त भू-भाग को भी नागरिक पहल, वैज्ञानिक मार्गदर्शन और लंबे धैर्य से फिर से जीवित किया जा सकता है.
ऐसी परियोजनाएँ यह संकेत देती हैं कि बहस केवल ‘बचाने’ की नहीं है; ‘बहाल करने’ की भी है.
लेकिन बहाली का अर्थ सिर्फ पार्क बनाना नहीं; इसका अर्थ कॉरिडोर जोड़ना, खनन-प्रबंधन को पारदर्शी बनाना, और शहर-योजना में पहाड़ को ‘लैंड बैंक’ नहीं, ‘लाइफ सपोर्ट सिस्टम’ मानना है.
पर्यावरणविद टीआई खान बताते हैं कि अस्सी के दशक में अरावली में सिर्फ़ 12 गैप थे, जो अब कई गुणा बढ़ गए हैं और इसे लेकर तत्कालीन पर्यावरण सचिव टीएन शेषन बहुत चिंतित थे, क्योंकि दिल्ली की तरफ रेगिस्तान बढ़ रहा था. उन्होंने उस समय सैंड ड्यून ऐश्टेब्लाइजेशन डिपार्टमेंट बनवाया था.
मेवाड़ के बाघों का अंत, जिसे एमके रंजीतसिंह ने संख्याओं में दर्ज किया, एक चेतावनी है कि जंगल का पतन सिर्फ़ जंगल का पतन नहीं होता; वह शासन, समाज और भविष्य का पतन भी बन सकता है.
अरावली उत्तर भारत की ढाल है; क्योंकि यह हवा को थामती है, पानी को उतारती है और जीवन को जोड़ती है.
सवाल यह नहीं कि अरावली ‘कितनी पुरानी’ है. सवाल यह है कि हम उसे ‘कितनी देर’ तक जीवित रहने देंगे और किस कीमत पर.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.