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जब भारत आज़ाद हुआ तो तीन रियासतों ने भारत में विलय-पत्र पर दस्तख़्त नहीं किए थे. ये थे हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़. जूनागढ़ गिरनार हिल्स के जंगलों और अरब सागर के बीच एक रियासत थी.
ये जंगल शेरों के लिए मशहूर था. यहाँ के शासक नवाब मोहम्मद महाबत ख़ाँ थे, जबकि यहाँ की 80 फ़ीसदी जनता हिंदू थी.
जूनागढ़ तीन दिशाओं से भारत की सरहदों से घिरा था. इसकी चौथी दिशा में एक लंबा समुद्र तट था. इसका मुख्य बंदरगाह वेरावल पाकिस्तान की तत्कालीन राजधानी कराची से महज़ 325 मील की दूरी पर था.
जूनागढ़ के नवाब कुत्ते पालने के अपने शौक़ के लिए मशहूर थे, उनके पास क़रीब दो हज़ार कुत्ते थे.
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डोमिनिक लापिएर और लैरी कॉलिंस अपनी किताब ‘फ़्रीडम एट मिडनाइट’ में लिखते हैं, “उनके कुत्तों को ख़ास तरह के घरों में रखा जाता था जहाँ बिजली और फ़ोन की सुविधा थी, उनकी देखरेख के लिए नौकर रखे जाते थे. वहाँ कुत्तों का एक कब्रिस्तान था जहाँ उन्हें संगमरमर से बनी क़ब्रों में दफ़नाया जाता था.”
यहाँ तक कि नवाब साहब उनकी शादियाँ भी करवाते थे, ऐसी एक शादी लेब्राडॉर जोड़े रोशनआरा और बॉबी की भी हुई थी.
लापिएर और कॉलिंस लिखते हैं, “इस विवाह में भारत के हर बड़े राजा और गणमान्य व्यक्ति को न्योता दिया गया था. आमंत्रित लोगों में भारत के वायसराय लॉर्ड इरविन भी थे लेकिन वो उस समारोह में शामिल नहीं हुए थे.”
“कुत्तों के जुलूस का नेतृत्व नवाब के अंगरक्षक कर रहे थे और सड़क के दोनों ओर खड़े क़रीब डेढ़ लाख लोग इस तमाशे को देख रहे थे. परेड के बाद नवाब ने इस शादी की ख़ुशी में ज़बरदस्त दावत दी थी और पूरी रियासत में तीन दिन की छुट्टी घोषित कर दी गई थी.”
नवाब ने अपने राज्य में एशियाई शेरों को विलुप्त होने से बचाने के लिए भी ख़ासा इंतज़ाम किया था. उन्होंने अंग्रेज़ों को भी इनका शिकार करने से रोक दिया था. उन्होंने गिर गायों के प्रजनन और संरक्षण में भी बहुत दिलचस्पी दिखाई थी.
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जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान से मिलने का ऐलान किया
जूनागढ़ की सीमा के अंदर ही सोमनाथ मंदिर पड़ता था. इसी रियासत में गिरनार भी था जहाँ एक पहाड़ की चोटी पर संगमरमर से बना भव्य जैन मंदिर भी था. पूरे भारत से हज़ारों तीर्थयात्री सोमनाथ और गिरनार के मंदिर के दर्शन के लिए आते थे.
भारत की आज़ादी के समय जब जूनागढ़ के भविष्य के बारे में विचार हो रहा था तब नवाब महाबत ख़ाँ यूरोप में छुट्टियां बिता रहे थे. जब वो देश से बाहर ही थे तो तत्कालीन दीवान अब्दुल क़ादिर मोहम्मद हुसैन को हटाकर सर शाहनवाज़ भुट्टो को जूनागढ़ का दीवान बना दिया गया था.
वो सिंध की मुस्लिम लीग के क़द्दावर नेता थे और मोहम्मद अली जिन्ना के काफ़ी क़रीबी थे.
दिलचस्प बात ये है कि जूनागढ़ के दीवान शाहनवाज़ भुट्टो के बेटे आगे चलकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने, ज़ुल्फिकार अली भुट्टो.
रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ़्टर गांधी’ में लिखते हैं, “यूरोप से लौटने के बाद नवाब के दीवान ने उन पर भारत में शामिल न होने का दबाव डाला. 14 अगस्त को जब सत्ता हस्तांतरण का दिन आया तो नवाब ने ऐलान किया कि जूनागढ़ पाकिस्तान में मिल जाएगा.”
“क़ानूनी तौर पर नवाब को ऐसा करने का हक़ था लेकिन भौगोलिक तौर पर इसका कोई तुक नहीं बनता था क्योंकि पाकिस्तान से इसकी कोई सीमा नहीं लगती थी और यह जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत से भी मेल नहीं खाता था क्योंकि रियासत की 82 फ़ीसदी जनता हिंदू थी.”
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भारतीय नेतृत्व हुआ परेशान
इससे पहले दिल्ली में नवानगर के जाम साहब और ध्राँगध्रा के महाराजा ने सरदार पटेल के सबसे क़रीबी सहयोगी वीपी मेनन को जूनागढ़ के नवाब की मंशा के बारे में आगाह कर दिया था.
इसकी थोड़ी पुष्टि तब हुई जब 12 अगस्त, 1947 तक जूनागढ़ की तरफ़ से भारत से विलय के बारे में कोई संकेत नहीं मिले. सर शाहनवाज़ भुट्टो ने सिर्फ़ ये संदेश भिजवाया कि इस मुद्दे पर विचार किया जा रहा है.
13 अगस्त को जूनागढ़ के हिंदुओं ने नवाब को एक ज्ञापन देकर कहा कि जूनागढ़ का विलय भारत में होना चाहिए. शाहनवाज़ भुट्टो ने उन्हें ये तर्क दिया कि काठियावाड़ ऐतिहासिक रूप से सिंध का हिस्सा रहा है और सिंध आज़ादी के बाद पाकिस्तान को जा रहा है.
नारायणी बसु अपनी किताब ‘वीपी मेनन, द अनसंग आर्किटेक्ट ऑफ़ मॉडर्न इंडिया’ में लिखती हैं, “वीपी मेनन को जूनागढ़ के इरादे की पहली सूचना अख़बारों से मिली. वो ये सुनकर हक्के-बक्के रह गए. उन्होंने सोचा कि अगर जूनागढ़ पाकिस्तान से जा मिलता है तो इसका असर काठियावाड़ के दूसरे रजवाड़ों पर पड़ेगा.”
“हैदराबाद में पहले ही कट्टरपंथी नेता क़ासिम रिज़वी ने साफ़ तौर पर कहना शुरू कर दिया कि सरदार पटेल हैदराबाद के बारे में इतना शोर क्यों मचा रहे हैं जबकि उनसे एक छोटी-सी रियासत जूनागढ़ तक नहीं संभल रही है.”
वीपी मेनन के सचिव सीजी देसाई की राय थी कि जूनागढ़ के ख़िलाफ़ भारत सरकार को कार्रवाई करनी चाहिए. उनकी सलाह थी कि रियासत को सभी खाद्य सामग्री की आपूर्ति रोक दी जाए और भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी राजकोट भेज दी जाए ताकि जूनागढ़ पर दबाव बनाया जा सके.
नारायणी बसु लिखती हैं, “देसाई की अगली योजना थी कि रियासत के छोटे ज़िलों और तालुकों को भारत के साथ विलय की पहल के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि इसके बाद भारत को वहाँ के लोगों की जूनागढ़ के दरबार से सुरक्षा के लिए उस इलाक़े में घुसने का बहाना मिल जाए.”
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पाकिस्तान ने जूनागढ़ के विलय के लिए हामी भरी
वीपी मेनन इस योजना को सरदार पटेल के पास लेकर गए. पटेल इन कदमों के लिए तुरंत सहमत हो गए. राज्य सशस्त्र पुलिस की एक कंपनी राजकोट भेजी गई. रक्षा विभाग से कहा गया कि वो इस मिशन के लिए तुरंत कुछ सैनिक भेजे.
रेलवे बोर्ड को आदेश दिया गया कि वो जूनागढ़ में कोयले और पेट्रोल की आपूर्ति रोक दे. संचार विभाग ने जूनागढ़ के पाकिस्तान के साथ संवादों को बीच में सुनना और रिकॉर्ड करना शुरू कर दिया.
नेहरू ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ाँ को टेलीग्राम भेजकर कहा, “जूनागढ़ भारत या पाकिस्तान में से किसी एक को चुनने के लिए स्वतंत्र है लेकिन यहाँ इच्छा लोगों की चलेगी न कि वहाँ के शासक की.”
उधर जूनागढ़ के दीवान शाहनवाज़ भुट्टो जिन्ना को बार-बार तार भेज कर अपील कर रहे थे कि वो उन्हें कथित रूप से ‘भेड़ियों से खाए जाने से बचाएं.’ (जिन्ना पेपर्स, पृष्ठ 264-266)
कुछ सप्ताह तक तो पाकिस्तान जूनागढ़ के दीवान की अपील पर मौन बैठा रहा लेकिन 13 सितंबर को उसने जूनागढ़ का पाकिस्तान में विलय स्वीकार कर लिया.
रामचंद्र गुहा लिखते हैं, “ऐसा लगता है कि उसने ऐसा इसलिए किया कि वो जूनागढ़ का इस्तेमाल करके जम्मू-कश्मीर पर सौदेबाज़ी कर सके. कश्मीर भी 15 अगस्त तक किसी देश में शामिल नहीं हुआ था. वहाँ का महाराजा हिंदू था, जबकि उसकी अधिकांश आबादी मुस्लिम थी. जूनागढ़ में कश्मीर के ठीक उलट स्थिति थी.”
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नवाब ने मेनन से मिलने से किया इनकार
जूनागढ़ के पाकिस्तान में विलय की बात से भारतीय नेता काफ़ी नाराज़ हुए.
नारायणी बसु लिखती हैं, “केंद्रीय मंत्रिमंडल के अनुमोदन के बाद सबसे पहले केंद्रीय सुरक्षा पुलिस को जूनागढ़ के दक्षिण में बाबरियावाद और बिल्खा में भेजा गया. वेरावल और केशोद पर भी नियंत्रण करने की योजना बनाई गई. पाकिस्तानी नौसेना और वायुसेना के हस्तक्षेप की संभावना को समाप्त करने के लिए ये ज़रूरी था.”
“केशोद, जहां पर हवाईअड्डा था और वेरावल, जहाँ बंदरगाह था, उन पर नियंत्रण किया जाए. जूनागढ़ के सैनिक घेराव की रणनीति का असर तुरंत दिखाई देने लगा. सैनिकों की तैनाती ने भुट्टो को इतना परेशान कर दिया कि उन्होंने लियाक़त अली को मजबूर होकर लिखा कि अगर पाकिस्तान इस नाज़ुक मौक़े पर हमारे बचाव मे सामने नहीं आता है तो हमारा ख़त्म होना निश्चित है.”
18 सितंबर को वीपी मेनन जूनागढ़ पहुंचे.
वीपी मेनन ने अपनी किताब ‘इंटिग्रेशन ऑफ़ इंडिया’ में लिखा, “नवाब ने बीमार होने का बहाना बनाकर मुझसे मिलने से इनकार कर दिया. यहाँ तक कि उनके बेटे और युवराज भी क्रिकेट मैच में इतने व्यस्त थे कि उनके पास मुझसे मिलने के लिए समय नहीं था.”
“मुझे हारकर वहाँ के दीवान शाहनवाज़ भुट्टो से मुलाक़ात करनी पड़ी. उन्होंने मुझसे शिकायत की कि जूनागढ़ के लोगों की भावनाओं को गुजराती प्रेस के ज़हरीले लेखन से भड़काया गया है.”
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बंबई में हुआ ‘समानांतर सरकार’ का गठन
कुछ दिनों बाद संकट और बढ़ गया जब नवाब ने पड़ोसी रियासतों पर नियंत्रण करने के लिए अपने सैनिकों को भेज दिया.
हिंडोल सेनगुप्ता ने सरदार पटेल की जीवनी ‘द मैन हू सेव्ड इंडिया’ में लिखा, “सरदार का मत था कि बाबरियावाद में जूनागढ़ के सैनिकों का भेजा जाना और उनको वहाँ से वापस बुलाने से इनकार करना एक आक्रामक कार्रवाई है और इसका जवाब ताकत दिखाकर ही दिया जाना चाहिए.”
इस बीच बंबई में महात्मा गांधी के भतीजे सामलदास गाँधी के नेतृत्व में ये कहकर कि नवाब अपने नागरिकों का समर्थन खो चुके हैं, जूनागढ़ की एक समानांतर या ‘आरज़ी सरकार’ का गठन किया गया.
उधर दिल्ली लौटकर वीपी मेनन ने 25 सितंबर 1947 को दिल्ली में ब्रिटेन के उप-उच्चायुक्त एलेक्ज़ेंडर साइमन से मुलाक़ात कर कहा, “भारत सरकार जूनागढ़ को कभी भारत से अलग नहीं होने देगी. भारत सरकार ये सुनिश्चित करेगी कि इस मुद्दे पर जूनागढ़ के लोगों के बीच जनमत संग्रह करवाया जाए.”
साइमन ने अपनी सरकार को इस बातचीत की जानकारी देते हुए बताया कि मेनन के हावभाव से नहीं लग रहा था कि वो झाँसा दे रहे हैं. भारत के सेनाध्यक्ष जनरल रॉब लॉकहार्ट का मानना था कि पाकिस्तान की सेना में जूनागढ़ में सैनिक कार्रवाई करने की क्षमता नहीं है.
वीपी मेनन ने अपनी निजी राय देते हुए कहा कि जूनागढ़ की पड़ोसी रियासतें उसके ख़िलाफ़ हथियार उठाने के लिए तैयार हैं. उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.
सरदार पटेल ने भी फ़ैसला लिया कि भारत की सेना को जूनागढ़ के ख़िलाफ़ सैनिक कार्रवाई करने के लिए तैयार रखना चाहिए.
सरदार का मानना था कि अगर जूनागढ़ को पाकिस्तान के साथ मिलने की छूट दे दी गई तो जल्द ही हैदराबाद भी उसका अनुसरण करेगा.
निज़ाम पहले ही माँग कर चुके हैं उन्हें भारत के साथ विलय की संधि करने के बजाए ‘सहयोग की संधि’ करने की इजाज़त दी जाए. अभी भावी सैनिक रणनीति की बात चल ही रही थी कि वीपी मेनन ने जूनागढ़ की दो पड़ोसी रियासतों सरदारगढ़ और बंटवा के भारत में विलय की घोषणा करवा दी.
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नवाब कराची गए
भारत और पाकिस्तान के बीच वहाँ जनमत संग्रह कराए जाने के बारे में गतिरोध चल ही रहा था कि जूनागढ़ के नवाब महाबत ख़ाँ ने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया.
नारायणी बसु लिखती हैं, “अपने आख़िरी दिनों में फ़ैसला न ले पाने के लिए बदनाम हो चुके नवाब ने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला लेने में कोई देरी नहीं दिखाई. आनन-फानन में एक ख़ास जहाज़ को चार्टर किया गया.”
“उस पर रियासत के ख़ज़ाने की सारी नक़दी, ज़ेवर, उनके पसंदीदा कुत्तों और उनकी बेग़मों को सवार कराया गया. जहाज़ के टेक ऑफ़ करने से पहले उनकी एक बेगम ने कहा कि वो अपने बच्चे को ग़लती से राजमहल में ही छोड़ आई हैं. नवाब ने उन बेगम को नीचे उतारा और कराची के लिए उड़ गए.”
जब नवाब का जहाज़ कराची उतरा तो उनका गार्ड ऑफ़ ऑनर के साथ परंपरागत स्वागत करने की पूरी तैयारी की गई थी.
पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त रहे टीसीए राघवन अपनी किताब ‘द पीपुल नेक्स्ड डोर’ में लिखते हैं, “उस समारोह में मौजूद लोगों ने बाद में याद किया कि जैसे ही विमान का दरवाज़ा खुला नवाब से पहले उनके कुत्तों ने नीचे छलाँग लगाई और विमान के पहियों और सीढ़ियों पर बौछार शुरू कर दी.”
इस बीच सामलदास गांधी की ‘आरज़ी हुकूमत’ ने जूनागढ़ के कुछ हिस्सों पर नियंत्रण करना शुरू कर दिया था. शाहनवाज़ भुट्टो ने लाचार होकर भारत सरकार को पत्र लिखकर सूचित किया, ‘मैं ख़ूनख़राबा रोकने और जान-माल की रक्षा के लिए जूनागढ़ का प्रशासन भारत सरकार के सुपुर्द करने के लिए तैयार हूँ.’
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एनएम बुच ने जूनागढ़ का प्रशासन संभाला
उस समय राजकोट के रीजनल कमिश्नर एनएम बुच ने भुट्टो का पत्र मिलते ही वीपी मेनन से फ़ोन पर संपर्क किया. उस समय आधी रात बीत चुकी थी.
नारायणी बसु लिखती हैं, “वीपी उस समय जगे हुए थे और नेहरू के निवास पर बैठे हुए थे. बुच ने उन्हें भुट्टो का पत्र पढ़कर सुनाया और ये भी बताया कि वो सामलदास गांधी को पहले ही फ़ोन कर चुके हैं और वो भुट्टो की पेशकश स्वीकार करने के लिए सहमत हो गए हैं.”
“नेहरू ये सुनकर खुशी से उछल पड़े. उन्होंने और मेनन ने मिलकर जूनागढ़ में जनमत संग्रह कराने के बारे में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली को लिखे जाने वाले पत्र का मसौदा तैयार किया.”
उन्होंने लिखा, “भारत सरकार भुट्टो के अनुरोध को मान रही है लेकिन वो जूनागढ़ के भारत में मिलाए जाने से पहले जनमत संग्रह के ज़रिए वहाँ के लोगों की राय भी जानना चाहेगी.”
वीपी मेनन ने उसी समय सरदार पटेल के घर जाकर उन्हें जगा दिया. जब उन्होंने लियाक़त अली को लिखे जाने वाले पत्र का मसौदा पटेल को दिखाया तो उन्होंने जनमत संग्रह कराने के प्रस्ताव पर आपत्ति प्रकट की.
पटेल ने कहा कि जूनागढ़ में प्रशासन जैसी कोई चीज़ नहीं रह गई है, नवाब पहले ही भाग चुके हैं, जूनागढ़ के ज़्यादातर लोग हिंदू हैं, दीवान हालात पर क़ाबू पाने में असमर्थ हैं और सबसे बड़ी बात उन्होंने खुद ही खुलेआम भारत सरकार से हस्तक्षेप करने के लिए कहा है.
लेकिन वीपी मेनन ने पटेल को जनमत संग्रह कराने के लिए मना लिया.
नौ नवंबर की दोपहर बुच और भारतीय सेना के ब्रिगेडियर गुरदयाल सिंह जूनागढ़ पहुंचे.
जूनागढ़ के सैनिकों के हथियार ले लिए गए. शाम छह बजे बुच ने भारत सरकार की ओर से जूनागढ़ का प्रशासन संभाल लिया, एक दिन पहले ही शाहनवाज़ भुट्टो भी जूनागढ़ छोड़कर कराची के लिए रवाना हो गए थे.
चार दिन बाद सरदार पटेल जूनागढ़ पहुंचे और वहाँ उन्होंने बहाउद्दीन कॉलेज के मैदान पर स्थानीय लोगों को संबोधित किया.
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जूनागढ़ में जनमत संग्रह
दिल्ली में माउंटबेटन इस बात से नाराज़ थे कि जूनागढ़ का प्रशासन संभालने के बारे में उनसे सलाह नहीं ली गई.
रामचंद्र गुहा लिखते हैं, “माउंटबेटन को संतुष्ट करने के लिए और कुछ इसकी वैधानिकता को स्थापित करने के लिए भारत ने जूनागढ़ में एक जनमत संग्रह करवाया. 20 फ़रवरी, 1948 को हुए जनमत संग्रह में करीब दो लाख लोगों ने भाग लिया. इनमें से मात्र 91 लोगों ने पाकिस्तान के पक्ष में मत दिया.”
लंदन के डेली टेलीग्राफ़ और संडे टाइम्स अख़बारों ने लिखा कि जनमत संग्रह पूरी पारदर्शिता के साथ हुआ. मंगरोल, माणावदर, बाबरियावाद, सरदारगढ़ और बांटवा में भी जनमत संग्रह करवाया गया.
ये प्रक्रिया पूरी होने के बाद सवाल उठा कि जूनागढ़ को किस राज्य के साथ जोड़ा जाए. वीपी मेनन ने सलाह दी कि इसे सौराष्ट्र के साथ जोड़ दिया जाए. लगभग एक वर्ष बाद 20 फ़रवरी, 1949 को जूनागढ़ को सौराष्ट्र के साथ मिला दिया गया.
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