इंडोनेशिया की संसद ने सरकार में मिलिटरी को और बड़ी भूमिका देने वाला एक विवादास्पद क़ानून संशोधन बिल पास किया है. इसके बाद देश में भारी आक्रोश पैदा हो गया है.
संशोधन के विरोधियों के लिए इस क़दम से इंडोनेशिया में सुहार्तो की सैन्य तानाशाही के काले दिनों की याद ताज़ा हो गई है.
यह सैन्य तानाशाही 32 सालों तक चली थी और 1998 में सुहार्तो के पद से हटने के बाद ही ख़त्म हुई.
इस नए क़ानून को राष्ट्रपति प्राबोओ सुबिअंतो का समर्थन हासिल है और यह उन सैन्य अफ़सरों को सरकार में पद लेने की इजाज़त देता है जो सशस्त्र बल से रिटायर नहीं हुए हैं या इस्तीफ़ा नहीं दिया है.
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प्राबोओ सुबिअंतो एक पूर्व स्पेशल फ़ोर्सेज़ कमाडंर हैं और पूर्व सैन्य तानाशाह सुहार्तो के दामाद हैं.
जब यह नया क़ानून पास किया गया उसके बाद बुधवार से ही सैकड़ों लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ता इंडोनेशियाई संसद के बाहर इकट्ठे होकर विरोध प्रदर्शन करने लगे.
1997 से 1998 के बीच चले सैन्य अभियान के दौरान ग़ायब कर दिए गए लोगों की आवाज़ उठाने वाले संगठन इंडोनेशियन एसोसिएशन ऑफ़ फ़ेमिलीज़ ऑफ़ डिसअपियर्ड (कोंट्रास) से जुड़े एक्टिविस्ट विल्सन ने कहा, “लोकतंत्र की मूल भावना यह है कि सेना को राजनीति में दख़ल नहीं देना चाहिए. मिलिटरी को सिर्फ़ बैरक और राष्ट्रीय सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए.”
विल्सन ने बीबीसी से कहा, “1998 से ही, लोकतंत्र की हत्या जारी है. और आज यह अपने चरम पर पहुंच गया है. हाउस ऑफ़ रिप्रेसेंटेटिव्स द्वारा ही लोकतंत्र की हत्या कर दी गई है.”
क्या हैं बदलाव
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नए क़ानून के तहत सक्रिय सैन्य कर्मियों को अटॉर्नी जनरल ऑफ़िस जैसे नागरिक विभागों में 10 पदों की बजाय 14 पदों पर नियुक्ति की इजाज़त होगी. इसमें अधिकांश रैंक के अफ़सरों के लिए रिटायरमेंट की उम्र भी कई साल बढ़ा दी गई है.
चार सितारे वाले सर्वोच्च रैंकिंग वाले जनरल अब 60 साल की बजाय 63 साल तक सैन्य सेवा में रह सकते हैं.
सांसद निको सियाहान संशोधन पर बातचीत में शामिल थे. उन्होंने समाचार एजेंसी रायटर्स को बताया कि इस बात की चिंता ज़ाहिर की जा रही थी कि सैन्य अफ़सरों को सरकारी कंपनियों में शामिल होने की इजाज़त दी जा सकती है लेकिन इस पहलू में बदलाव नहीं किया गया है.
इस क़ानून के ख़िलाफ़ संसद के बाहर विरोध करने वालों की संख्या हज़ार से ऊपर पहुंच गई है. प्रदर्शनकारी “सेना को बैरक में भेजो!” और “सेना और कुलीनतंत्र के ख़िलाफ़ संघर्ष” लिखे बैनर हाथों में लिए देखे गए.
प्रदर्शन स्थल पर सैकड़ों की संख्या में पुलिस अधिकारी और सैनिक तैनात किए गए हैं.
इंडोनेशिया में राजनीति और सरकार में सेना के दख़ल को सीमित करने के लिए पिछले 25 सालों से कोशिश हो रही है.
स्थानीय मानवाधिकार वाचडॉग इम्पार्शियल के अनुसार, इस क़ानून के आने के पहले से ही नागरिक संस्थानों में क़रीब 2,600 सक्रिय सैन्य अफ़सर काम कर रहे हैं.
पब्लिक पॉलिसी एडवाइज़री फ़र्म ग्लोबल काउंसल में इंडोनेशिया मामलों के प्रमुख विश्लेषक देदी दिनार्तो ने कहा कि यह बदलाव प्राबोओ के शासन में ‘सत्ता पर पकड़ को और मजबूत करने का संकेत है.’
उन्होंने कहा कि शुरुआती विरोध के बावजूद मुख्य विपक्षी पार्टी ने भी इन बदलावों का समर्थन किया है जोकि इस बदलाव की अहमियत को बताता है.
दिनार्तो ने कहा, “नागरिक क्षेत्र में सैन्य नज़रिये को शामिल करते हुए, यह क़ानून इंडोनेशियाई नीति की दिशा को आकार दे सकता है, संभवतया लोकतांत्रिक प्रशासन और नागरिक आज़ादी पर स्थायित्व और राज्य के नियंत्रण को तरजीह दी जाएगी.”
सेना की दोहरी भूमिका बढ़ी
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सशस्त्र बलों की ‘दोहरी भूमिका’ सुहार्तो सरकार की मुख्य थीम है, जहां उन्हें सुरक्षा और प्रशासकीय मामलों में अधिक अधिकार दिया जाता है.
कुछ इंडोनेशियाई लोगों के लिए, प्राबोबो तानाशाही के दौर के प्रतीक हैं. 1997 से 1998 के बीच एक्टिविस्टों के बड़े पैमाने पर किए गए अपहरण के लिए ज़िम्मेदार स्पेशल फ़ोर्सेज़ यूनिट के प्रमुख प्रोबोओ ही थे.
बहुत से लोगों को इस बात का डर था कि राजनीतिक सत्ता में उनकी वापसी और राष्ट्रपति बनने से, बहुत मुश्किल से मिला लोकतंत्र भी ख़त्म हो जाएगा.
पिछले साल ही अक्तूबर में प्राबोओ ने राष्ट्रपति पद संभाला है और तभी से वह सार्वजनिक क्षेत्र में सैन्य भागीदारी को बढ़ाते जा रहे हैं.
उदाहरण के लिए बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए 4 अरब डॉलर की उनकी फ़्लैगशिप ‘फ़्री भोजन योजना’ के लिए सेना लॉजिस्टिकल सपोर्ट मुहैया कराती है.
क़ानून में संशोधन का बचाव करते हुए गुरुवापर को रक्षा मंत्री जाफ़्री जामसोद्दीन ने संसद में कहा कि ‘भूराजनीति में बदलाव और वैश्विक मिलिटरी टेक्नोलॉजी’ के लिए ज़रूरी है कि ‘परम्परागत और गैर परम्परागत संघर्षों’ से निपटने के लिए सेना में बदलाव किया जाए.’
उन्होंने कहा, “हमारी अखंडता बनाए रखने में हम इंडोनेशियाई लोगों को कभी निराश नहीं करेंगे.”
लोगों में क्यों है आक्रोश
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यह क़ानून संशोधन गुरुवार को पास हुआ और उसके बाद से ही लोग संसद भवन के पास इकट्ठा होना शुरू हो गए थे, जिनकी संख्या शाम तक सैकड़ों में पहुंच गई.
उन्होंने हटाने के लिए बड़े पैमाने पर पुलिस तैनात की गई और पुलिस की मदद के लिए सैनिकों को भी तैनात किया गया है लेकिन प्रदर्शनकारियों ने हटने से इनकार कर दिया.
कुछ मानवाधिकार ग्रुपों का कहना है कि रक्षा क्षेत्र के अलावा सार्वजनिक मामलों में बढ़ता मिलिटरी नियंत्रण, निष्पक्षता पर बुरा असर डालेगा.
बेनार न्यूज़ की ख़बर के अनुसार, जाकार्ता स्थित थिंक टैंक पारा सिंडिकेट से जुड़े रिसर्चर विर्दिका रिज़्की उतामा ने पूछा, “अटॉर्नी जनरल के कार्यालय में तैनात सक्रिय आर्मी अफ़सर कैसे निष्पक्ष बना रहेगा, जब वह मिलिटरी कमांड से बंधा होगा?”
“अगर जस्टिस सिस्टम पर मिलिटरी अपना प्रभाव जमा लेती है तो उन्हें कौन जवाबदेह ठहरा पाएगा?”
ह्यूमन राइट्स वाच से जुड़े एक वरिष्ठ इंडोनेशियाई रिसर्चर एंड्रियास हारसोनो ने कहा, “नागरिक मामलों में सेना की भूमिका को बहाल करने की राष्ट्रपति प्राबोओ की मंशा साफ़ दिखती है, जिसके दामन पर लंबे समय से बड़े पैमाने पर उत्पीड़न करने और सज़ा से बच निकलने का दाग लगा हुआ है.”
उन्होंने कहा, “इस संशोधन को पास कराने में सरकार ने जिस तरह की हड़बड़ी दिखाई है, वह मानवाधिकार और जवाबदेही तय करने की उसकी प्रतिबद्धता से उलट है.”
इंडोनेशिया में एमनेस्टी इंटरनेशनल के प्रमुख उस्मान हामिद ने अतीत के काले अध्याय की वापसी की चिंता ज़ाहिर की.
उन्होंने रॉयटर्स से कहा, “एक्टिविस्टों को किडनैप किया गया था और उनमें से कुछ लोग आजतक वापस नहीं लौटे हैं. और आज ऐसा लग रहा है कि हम फिर पीछे जा रहे हैं.”
कोंट्रास का कहना है कि ‘हड़बड़ी में क़ानून में संशोधन करना, अन्य अहम मानवाधिकार प्रतिबद्धताओं के प्रति लंबी उदासीनता से बिल्कुल उलट है.’
जाकार्ता स्थित यूनिवर्सिटास मुहम्मदिया प्रोफ़ेसर हामका में अंडरग्रेजुएट सुकमा आयू ने कहा, “यह लंबा संघर्ष सिर्फ़ इसलिए नहीं रुक सकता कि क़ानून पास हो गया है. अब सिर्फ़ एक शब्द हैः प्रतिरोध.”
उन्होंने कहा, “जबतक हम जीत नहीं जाते, हम प्रदर्शन करना जारी रखेंगे… ‘जनता के भवन’ को कब्ज़ा करने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं है.”
कौन हैं प्राबोओ सुबिअंतो
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प्राबोओ सुबिअंतो ने 2014 और 2019 का राष्ट्रपति चुनाव लड़ा था लेकिन वो हार गए थे लेकिन 2024 में उन्हें जीत मिली.
प्रोबोओ का जन्म एक धनी राजनीतिक परिवार में हुआ था. उनके पिता एक जाने माने अर्थशास्त्री थे और इंडोनेशियाई कैबिनेट में मंत्री रह चुके थे.
विवादों के चलते उनके पिता ने 1957 में देश छोड़ दिया, इसलिए प्रोबोओ का बचपन क़रीब एक दशक तक यूरोप में निर्वासन में बीता.
जब वह देश वापस लौटे तो सेना में शामिल हो गए और जल्द ही वह उच्च पद पर पहुंच गए और इंडोनेशिया के एलीट स्पेशल फ़ोर्सेज़, ‘कोपासस’ के कैप्टन बन गए.
तबतक देश के अशांत पूर्वी तिमोर में मानवाधिकार उल्लंघन के उन पर आरोप लग चुके थे, जहां उन्होंने यूनिट के एक सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं दी थीं.
सुहार्तो की तानाशाही के दौरान 1997-9198 में पूर्वी तिमोर में सैन्य अभियान के दौरान सैकड़ों लोगों की जानें गईं और इसमें प्रोबोओ की भूमिका कभी साबित नहीं हो पाई और उन्होंने इन आरोपों से इनकार भी किया. लेकिन यह दाग उन पर लगा रहा.
उनकी शादी सुहार्तो के बेटी से हुआ था और वह सैन्य तानाशाह के अंदरूनी घेरे के अहम सदस्यों में से एक थे.
जब 1990 के दशक के अंत में सुहार्तो की पकड़ कमज़ोर हुई ‘कोपासस’ पर सरकार विरोधी 20 से अधिक छात्र कार्यकर्ताओं के अपरहण के आरोप लगे. इनमें से एक दर्जन कभी वापस नहीं लौटे और उनके मारे जाने की आशंका है. जो बच गए उन्होंने अपने साथ टॉर्चर किए जाने के आरोप लगाए.
कार्यकर्ताओं के अपहरण के आरोपों के बाद प्रोबोवो को मिलिटरी से डिसमिस कर दिया गया और वह स्व-निर्वासन में जॉर्डन चले गए. ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका ने अपने यहां आने से उन पर प्रतिबंध लगा दिया.
लेकिन वह 2019 में फिर लौटे, और उनके प्रतिद्वंद्वी तत्कालीन राष्ट्रपति विडोडो ने उन्हें रक्षा मंत्री बन दिया, यहीं से वह सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे.
सुहार्तो ने इंडोनेशिया पर 32 सालों तक सैन्य तानाशाही चलाई और दावा किया जाता है कि इस दौरान बड़े पैमाने पर मानवाधिकार उल्लंघन और खून खराबा हुआ. इनमें से कुछ घटनाओं के लिए प्रोबोओ को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है.
हालांकि अपने चुनाव प्रचार के दौरान प्रोबोवो ने इन आरोपों से इनकार किया था. 2014 में उन्होंने अल जज़ीरा से कहा था कि उन्होंने अपरहण के आदेश अपने अधिकारियों के निर्देश पर दिए थे.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित