अलीगढ़. आज देखने में एक भीड़-भाड़ वाला शहर, जिसने पिछले डेढ़ सौ सालों से न सिर्फ़ भारत बल्कि दुनिया में अपनी तालीम का परचम फहराया.
मोहमेडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज,जिसे बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का नाम मिला आज भी इस शहर के मिज़ाज का हिस्सा है.
इसके ख़ूबसूरत कैंपस से महज़ दस मिनट की दूरी पर है शहर का एक पुराना इलाक़ा, बदरबाग़.
इलाक़े की सड़कें अब ख़ासी तंग दिखती हैं क्योंकि ज़्यादातर पुराने, बड़े बंगलों की ज़मीन बिक चुकी है, उनकी प्लॉटिंग हो गई है, जिन पर तीन-चार मंज़िला फ़्लैट्स खड़े हो चुके हैं.
लेकिन साल1931 में क़रीब 12 एकड़ पर बने एक ब्रितानी स्टाइल वाले बंगले के फाटक आज भी खुले मिलते हैं और पता चलता है, प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब इसी में रहते हैं.
‘आपको पता है अलीगढ़ का असली नाम क्या था?’, गुलदाउदी, बोगनवेलिया और ग़ुलाबों से भरे अपने ख़ूबसूरत बगीचे में मुझसे पूछा, इरफ़ान हबीब ने.
इरफ़ान हबीब अब 94 साल के हो चुके हैं. बरसों तक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के हिस्ट्री डिपार्टमेंट के प्रमुख रहे प्रोफ़ेसर हबीब अब ‘प्रोफ़ेसर इमेरिटस’ हैं और रोज़ाना डिपार्टमेंट के बारे में दरयाफ़्त ज़रूर करते हैं.
‘अलीगढ़ का नाम मराठों ने दिया था’
अलीगढ़ वाले सवाल पर मैंने अपना सवाल भी जोड़ ही दिया, ‘फ़ैज़ाबाद अब अयोध्या हो चुका है, इलाहाबाद अब प्रयागराज के नाम से जाना जाता है, सेंट्रल दिल्ली की औरंगज़ेब रोड अब किताबों में रह गई है. क्या इसकी ज़रूरत थी? या ये भी एक दौर है जो इतिहास में हमेशा आता-जाता रहता है?’
इरफ़ान हबीब ने बताया, “अलीगढ़ का पुराना नाम कोल था, रामगढ़ नहीं. आगे चल कर कोल नाम इसलिए नहीं रहा क्योंकि वह किसी देवता का नाम था, जिसे कृष्ण ने मारा था.”
वो बताते हैं, “मुगल ज़माने में नाम कोल था लेकिन अलीगढ़ नाम दरअसल मराठों ने दिया 1780-81 के आसपास, जब दिल्ली में उनकी साख बढ़ी. सिंधिया ने यहां जो छावनियां बनाई थीं, वे पक्की बैरक थीं जिसमें फ्रांसीसी कमांडर भी थे. उन्होंने उस इलाक़े और किले को अलीगढ़ नाम दिया.”
“कुछ लोग कहते हैं कि अलीगढ़ का नाम सिंधिया के सेनापति नजफ़ अली खां के नाम पर रखा गया था, लेकिन इसकी कोई ठोस ऐतिहासिक पुष्टि नहीं है.”
पिछले एक दशक में भारत के शहरों-सड़कों के नाम बदलने से प्रोफ़ेसर हबीब को एतराज़ इस बात पर है कि, ‘इसके पीछे एक कम्युनल यानी सांप्रदायिक मंशा मालूम पड़ती है, जो ग़लत है’.
जाड़ा ख़त्म होने को है और प्रोफ़ेसर हबीब के बाग़ीचे में चिड़ियों की चहचहाहट के बीच एक बरगद के पेड़ से दो मोर टकटकी लगाए हमें देख रहे हैं.
भारत में ब्रितानी शासन के दौरान ये बाग़ीचा कई मशहूर शख़्सियतों की चहलक़दमी का भी गवाह रहा है.
इरफ़ान हबीब के पिता, मोहम्मद हबीब, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मध्यकालीन इतिहास के प्रोफ़ेसर थे और कांग्रेस पार्टी के सदस्य भी.
प्रोफ़ेसर इरफ़ान की याददाश्त आज भी ज़बरदस्त है.
मुस्कुराते हुए बोले, “बचपन मैं और बड़े भाई यहीं लॉन में बैडमिंटन खेल रहे थे, जवाहरलाल नेहरू का ताँगा गेट पर रुका. वो अकेले अंदर आए और मेरे पिता से कहा, हबीब मेरे लिए एक ऑमलेट बनवाओ.”
इसके कई साल बाद इसी घर की लाइब्रेरी के एक क़िस्से को याद करते हुए उन्होंने बताया, “नेहरू वहाँ बैठे थे, तो मेरे अब्बा जान ने कहा, अगर हमने क्रिप्स मिशन को मान लिया होता, तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारत को आज़ाद मिल जाती.”
उन्होंने बताया “नेहरू जी इस पर बहुत नाराज़ हो गए और बोले, ‘यू आर ए प्रोफ़ेसर हबीब एंड यू विल ऑलवेज बी ए फ़ूल’. हम तो बहुत छोटे थे, मगर बहुत अजीब लगा कि कोई हमारे फ़ादर को मूर्ख भी कह सकता है!”
1947 में देश के विभाजन के दिनों की भी पूरी याद है इरफ़ान हबीब को, क्योंकि, “एएमयू के छात्रों की तादाद 3,000 से घट कर क़रीब 800 रह गई थी और ज़्यादातर पाकिस्तान चले गए थे. लेकिन पढ़ाई जारी रही.”
उन्होंनेे कहा ” ये याद रखने की ज़रूरत है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और ख़ासतौर से अलीगढ़ में सांप्रदायिक हिंसा नहीं हुई. सरदार पटेल ने एहतियातन सभी की सुरक्षा के लिए वहां कुमाऊँ रेजीमेंट को भी तैनात करवा दिया था.”
अशोक और अकबर
इरफ़ान हबीब के पिता ने ही उन्हें सम्राट अशोक के शिलालेखों या इस्क्रिप्शंस पढ़ने के लिए प्रेरित किया जिसके चलते उन्होंने बचपन से फ़ारसी के अलावा ब्राह्मी लिपि और संस्कृत भाषा पर पकड़ मज़बूत कर ली थी.
मौजूदा भारत में भाषाओं पर ख़ासी बहस जारी है.
कुछ राज्यों में उर्दू को ‘मुग़लों और विदेशी हमलावरों की भाषा’ बताया जा रहा है और दूसरी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने तो सिंधु घाटी सभ्यता के दिनों की लिपि को पढ़ कर अपने राज्य में मिली प्राचीन लिपियों से मेल खाने के प्रमाण पुख़्ता करने वाले को 10 लाख अमेरिकी डॉलर इनाम देने की शर्त रख दी है.
इरफ़ान हबीब ने इसका जवाब देते हुए कहा, “हमारा देश इस मायने में यूरोप या मध्य पूर्व से कहीं बेहतर रहा है कि यहां सैकड़ों भाषाओं-ज़ुबानों ने जन्म लिया, अपने को एक दूसरे से जोड़ कर देखा और शासकों ने, चाहे हिंदू हो या मुसलमान या ब्रितानी ही क्यों न हो, इन भाषाओं का इस्तेमाल राज-काज से लेकर तिजारत में किया.”
वो कहते हैं, “आज आप उसे किसी की जागीर कैसे बना सकते हैं, मेरी तो समझ से परे है ये सब. इतिहासकार समय को अपने राजनीतिक विचारों से नहीं उस दौर के चश्मे से देखते हैं.”
उन्होंने आगे बताया, “लिखने की कला जो है, वो हमें अशोक ने दी और यह बड़ी चीज़ है. अभी मैं देख रहा था यूजीसी के सिलेबस में, तो वो ये बात भूल गए हैं, अशोक का नाम थोड़ा-सा लिखा गया है, लेकिन आप जानते हैं कि लिखने की कला, जो हिंदुस्तान में आई, जिसे लिपि कहते हैं, आप पूरे सिलेबस में बताएं और इसका कहीं ज़िक्र न करें.”
मौर्य साम्राज्य के शासक अशोक प्रोफ़ेसर हबीब के पसंदीदा हैं तो मैंने पूछा, ”आपने तो अशोक जो पहले हिंसक थे और बाद में शांति दूत बन गए, उनके दौर से लेकर अकबर और अब तक के बारे में रिसर्च की है. फ़र्क़ कितना और क्या है?”
प्रोफ़ेसर हबीब ने बताया, “अशोक की बातें आज ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं. जैसे, उसने कहा कि बिल्कुल असहिष्णुता नहीं होनी चाहिए, दूसरे धर्मों का भी ख्याल रखना चाहिए. उसके पूरे धर्म के विचार में जात-पांत का कोई ज़िक्र नहीं है. अक्सर लोग इसे भुला देते हैं.”
“क्योंकि अगर आप दूसरी चीज़ें देखें, मनुस्मृति देखें, गुप्त काल के उदाहरण देखें, तो उसमें यह बात नज़र नहीं आती. मनुस्मृति में तो सज़ा भी जाति के आधार पर दिए जाने के कुछ प्रावधान मिलते हैं.”
‘सेक्युलरिज़्म की शुरुआत यहां पहले हुई’
मुग़लों के इतिहास पर ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में शोध करने वाले इरफ़ान हबीब ने उस दौर की कृषि प्रणाली, जाति व्यवस्थाएँ और विदेशी यात्रियों पर कई किताबें भी लिखीं हैं.
ये भी हक़ीक़त है कि इस दौरान इरफ़ान हबीब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे और उनके आलोचकों का मत है कि ‘ख़ुद इरफ़ान हबीब और कई दूसरे इतिहासकारों ने आज़ादी के बाद से भारत के बड़े विश्विद्यालयों में अपने नज़रिए की रिसर्च कराई जो मुग़लों और मुस्लिम शासकों की ज़रूरत से ज़्यादा तारीफ़ करती रही.’
इरफ़ान हबीब से इस बात पर भी सवाल पूछना लाज़मी था कि इतिहासकारों के मुताबिक़ जिस अकबर के दरबार में दीन-ए-इलाही जैसे एक धर्म पर चर्चा होती थी, जहां हर धर्म की रक्षा करने का फ़रमान जारी होता था, उस पर मौजूदा दौर के कुछ इतिहासकार सवाल क्यों उठा रहे हैं?
प्रोफ़ेसर हबीब का जवाब था, “एक ज़माना तो था जब सुरेंद्र नाथ बनर्जी साहब जो कांग्रेस के बड़े लीडर थे वो ब्रितानी शासक लार्ड कर्ज़न से मिलने गए. तो कर्ज़न ने खुद लिखा है कि बनर्जी ने किसी बात पर उनसे कहा, “हमारे देश ने अशोक और अकबर जैसे शासक दिए हैं और अब ब्रिटिश सरकार कोई ऐसा पेश करे. कर्ज़न ने इसे रिकॉर्ड किया और ये 1903 या 1904 की बात है.”
प्रोफ़ेसर हबीब के इस जवाब पर मैंने तपाक से पूछ ही लिया, “जो लोग सिलेबस बना रहे हैं, उनका यह कहना है कि मुग़ल इतिहास को बहुत भव्य तरीके से पेश किया गया, अकबर या मध्यकालीन काल को या मुगलों को जो रूप दिया गया, वह एक लिबरल मार्क्सिस्ट नैरेटिव था. जो ब्रिटेन से प्रेरित था. ब्रिटिश इतिहासकारों से प्रेरित था. या पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित था. और जो वास्तविक इतिहास था, उसे इस नज़रिए के चलते दबा दिया गया?”
इरफ़ान हबीब ने जवाब में कहा, “अगर वो ऐसे लोग हैं जो बनर्जी से भी ज्यादा राष्ट्रवादी थे तो ये बात उनको मुबारक हो, लेकिन बनर्जी तो कोई अंग्रेज़ों के साथ नहीं थे. तिलक भी अंग्रेजों के साथ नहीं थे. सभी के लिए मुल्क़, सहिष्णुता और इसकी उपलब्धियां मायने रखती थीं. दुनिया में भी जब कोई हिंदुस्तान की तारीफ़ करता है, तो अशोक और अकबर का ज़रूर ज़िक्र होता है.”
वो कहते हैं, “अकबर के जो मंत्री थे, अबुल फज़ल, उनका तो यह कहना था कि मज़हब में लोगों को दखल ही नहीं देना चाहिए. सेक्युलरिज़्म था, उन्होंने यहां तक कि पैगंबर और खलीफाओं की भी आलोचना की. कोई भी मुल्क़ होगा उसे इस पर गर्व होगा कि हमारे मुल्क में ये चीजें हुईं, जब दुनिया में कोई और धर्म की बात नहीं कर रहा था, तो हमारे मुल्क में इसकी शुरुआत हुई.”
शिवाजी का औरंगज़ेब को ख़त
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पिछले लगभग एक दशक से भारत के स्कूलों में और कॉलेजों में ‘पाठ्यक्रमों में मुगलों” को पढ़ाए या ना पढ़ाए जाने पर ख़ासी बहस छिड़ी हुई है.
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने स्कूल की टेक्स्टबुक्स में मुगल इतिहास से जुड़ी काफ़ी चीज़ें कम करने के फ़ैसले लिए हैं.
करीब 300 सालों तक राज करने वाले मुग़ल भारत के इतिहास का महत्वूर्ण हिस्सा हैं.
आलोचकों का मानना है कि भारत के इतिहास के इतने लंबे दौर कम करने या मिटाने की कोशिशें किसी ‘राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित है’.
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लेकिन इसके समर्थकों का दावा है कि यह कदम केवल सिलेबस को “तर्कसंगत बनाने और छात्रों पर बोझ कम करने के लिए लिया गया एक ज़रूरी कदम है’.
मिसाल के तौर पर 2017 से 2022 के बीच महाराष्ट्र समेत भारत के कई राज्यों के कुछ स्कूलों में मुग़लों के इतिहास को सिलेबस से पूरी तरह हटा दिया गया था.
अगर बात महाराष्ट्र की हो तो ज़्यादातर जगहों पर सिलेबस पूरी तरह से छत्रपति शिवाजी पर केंद्रित है.
17वीं सदी में शिवाजी ने मुग़लों को हराकर मराठा साम्राज्य की नींव रखी थी. उन्होंने महाराष्ट्र समेत भारत के कई हिस्सों पर राज किया था.
मुग़लों को सिलेबस से हटाने की हिमायत करने वालों का आरोप है कि प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब जैसे मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इतिहास को अपने नज़रिए से लिखा है.
इसके जवाब में इरफ़ान हबीब ने कहा, “वैसे अब तो ज़माना बदल गया है. वैसे एक बहुत मशहूर ख़त था, जो शिवाजी ने औरंगज़ेब को लिखा था. इसमें यह लिखा था कि आपको अकबर की नीति को अपनाना चाहिए. ये जाली है कि नहीं ये नहीं पता लेकिन ये औरंगज़ेब के जमाने से सर्कुलेट हो रहा है.”
वो कहते हैं, “दूसरी बात, शिवाजी ख़ुद सभी धर्मों की रक्षा करते थे, एक तरफ़ औरंगज़ेब से जंग चल रही थी दूसरी तरफ़ शिवाजी के अपने तोपख़ाने के कमांडर इब्राहिम अली थे. उनके ख़ुफ़िया विभाग के प्रमुख का नाम हैदर अली था.”
उन्होंने आगे कहा, “अकबर के दरबार में मान सिंह थे जो एक राजपूत थे और उन्हें बादशाह ने काबुल का पहला गवर्नर बनाया. वो हिन्दुस्तान भी दूसरा था, और अफ़ग़ानिस्तान भी दूसरा ही था.”
उन्होंने कहा “आप महाराणा प्रताप की जीवनी कैसे लिखेंगे, अगर उसमें अकबर और मान सिंह का ज़िक्र ही न हो? यही नहीं जब यूरोपियन ट्रैवलर्स यहां आए, औरंगज़ेब के ज़माने में, तो उन्हें ये नहीं लगा कि हिंदुओं पर ज़ुल्म हो रहा है.”
“बल्कि उन्होंने ताज्जुब किया कि अजीब मुल्क है, यहां हिंदू भी हैं, मुसलमान भी हैं, इसाई भी हैं और सब ठीक से रह रहे हैं.”
देशभक्ति का अर्थ क्या है?
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इरफ़ान हबीब से चर्चा क्योंकि मौजूदा समय की राजनीतिक और शैक्षिक बहस के मुद्दों पर चल ही रही थी तो राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति की बात तो उठनी ही थी.
हिंदी फ़िल्मों से लेकर रेडियो प्रसारणों की बात हो, स्कूली डिबेट्स हों या पत्रिकाओं की कवर स्टोरी हो, इस मुद्दे ने ज़ोर पकड़ रखा है.
एक धड़े का मत है कि भारत में सही मायने में इन दोनों को ‘जानबूझ कर’ एक दूसरे में शामिल कर लिया गया.
उन्हें लगता है कि इस वजह से अब तक बहुसंख्यक समुदाय को अपनी भावनाएँ ज़ाहिर करने की कम जगह मिली.
दूसरी तरफ़, जबकि इस मत के आलोचक मानते हैं कि आज के दौर में ‘लोग देशभक्ति और राष्ट्रवाद के नाम पर दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों पर हावी होने की’ कोशिश कर रहे हैं.
इरफ़ान हबीब की राय है, “देशभक्ति का मतलब ये नहीं है कि आप अपने देश की बस तारीफ़ ही करते जाएं. ‘मेरा देश सही या ग़लत, लेकिन मैं उसके साथ हूं, ये कोई देशभक्ति नहीं है. असली देशभक्ति तो ये है कि मेरा देश बेहतर होना चाहिए.”
उन्होंने आगे कहा, “भारतीय इतिहास में चाहे हिंदू शासक रहे हों या मुस्लिम, सहिष्णुता लगभग सभी में थी, यही दुनिया में सबसे ख़ास बात थी.”
उन्होंने बताया “पहली किताब जो दुनिया के सभी धर्मों पर लिखी गई थी, वो हिंदुस्तान में लिखी गई थी,शाहजहां के दौर में उसमें पारसी, इसाई, इस्लाम, हिंदू, जैन सभी धर्मों का ज़िक्र था.”
”तो ये बात आप मिस कर दें तो अपने ही देश की तारीफ़ कम होती है, जो हमारे अचीवमेंट हैं वो भी तो हम ही भूलते जाते हैं.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित