- Author, जोइ इनवुड
- पदनाम, बीबीसी न्यूज़, यरूशलम से
-
युद्धविराम को लेकर इसराइल और हमास के प्रतिनिधियों के बीच क़तर के दोहा में चल रही बातचीत से क़तर कथित तौर पर पीछे हट गया है. कुछ रिपोर्ट्स में ये दावा किया गया है.
युद्ध की शुरूआत के बाद से दोनों पक्षों के प्रतिनिधि अमेरिका, क़तर और मिस्र की मध्यस्थता में समझौते के लिए बातचीत कर रहे थे. लेकिन अब तक दोनों किसी नतीजे तक नहीं पहुंच सके हैं.
क़तर ने आरोप लगाया है कि दोनों पक्ष भरोसे के साथ बात करने और समझौते तक पहुंचने के लिए तैयार नहीं है. उसने कहा है कि वो अब और मध्यस्थता की कोशिश नहीं कर सकता.
बताया जा रहा है कि क़तर ने हमास से कहा है कि दोहा में मौजूद उनके राजनीतिक कार्यालय को “अब कोई उद्देश्य नहीं रहा”.
दरअसल, इससे पहले ये ख़बर आई थी कि अमेरिकी अधिकारियों ने कहा है कि वो क़तर में हमास के प्रतिनिधियों की मौजूदगी को स्वीकार नहीं करेंगे. अमेरिकी अधिकारियों ने फ़लस्तीनी गुट पर ग़ज़ा में युद्ध को ख़त्म करने के लिए लाए गए ताज़ा प्रस्तावों को ठुकराने का आरोप भी लगाया था.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार अधिकारियों ने कहा कि क़तर सरकार दस दिन पहले इस बात पर राज़ी हो गई है कि वो हमास से अपना राजनीतिक कार्यालय बंद करने को कहेगी.
कथित तौर पर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रशासन के कहने पर 2012 से क़तर के दोहा में हमास का एक राजनीतिक कार्यालय रहा है. इसका उद्देश्य हमास के साथ संवाद कायम करना है.
हालांकि बीबीसी से हमास के अधिकारियों ने इस ख़बर का खंडन किया है. वहीं क़तर ने भी इस मामले पर अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.
क़तर कितना अहम
क़तर मध्य पूर्व का छोटा लेकिन प्रभावशाली मुल्क है जो अमेरिका का प्रमुख सहयोगी रहा है. यहां अमेरिका का एक बड़ा सैन्य अड्डा भी है और क़तर ईरान, तालिबान और रूस समेत कई बेहद संवेदनशील वार्ताओं में मध्यस्थ की भूमिका निभा चुका है.
इसराइल और ग़ज़ा में हमास के बीच एक साल से भी लंबे वक्त से चल रहे युद्ध में युद्धविराम और बंधकों की रिहाई के लिए चल रही वार्ता में अमेरिका और मिस्र के साथ मिलकर क़तर ने भी अहम भूमिका निभाई है. हालांकि दोनों पक्षों के बीच ये वार्ता अब तक बेनतीजा रही है.
दोनों के बीच वार्ता का ताज़ा दौर अक्टूबर में आयोजित किया गया था, लेकिन ये भी किसी समझौते तक बिना पहुंचे ख़त्म हो गया. हमास ने कम वक्त के लिए युद्धविराम के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था.
हमास का कहना था कि युद्ध पूरी तरह बंद हो और ग़ज़ा से इसराइली सुरक्षाबलों को पूरी तरह बाहर निकलने को कहा जाए.
हमास पर दबाव बनाने की कोशिश
लेकिन समझौते तक पहुंचने से केवल हमास ही इनकार कर रहा हो ऐसा नहीं है. इसराइल पर भी समझौते तक पहुंचने में देरी करने के आरोप लगाए जाते रहे हैं.
बीते दिनों इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने रक्षा मंत्री योआव गैलेंट को बर्ख़ास्त कर दिया. इसके कुछ दिनों बाद गैलेंट ने नेतन्याहू पर आरोप लगाया कि सुरक्षा प्रमुखों की सलाह के ख़िलाफ़ उन्होंने शांति समझौते पर सहमत होने से इनकार कर दिया था.
रॉयल यूनाइटेड सर्विसेस इंस्टिट्यूट (रूसी) में सीनियर एसोसिएट फेलो डॉ एचए हेलयर का कहना है कि ये ख़बरें उन्हें भरोसेमंद लग रही हैं.
उनका कहना है, “मुझे लगता है कि हम उस आख़िरी दौर में हैं जब हमास को अपनी जगह बदलने के लिए बाध्य होना होगा. बीते कई महीनों से इसका अंदाज़ा लगाया जा रहा था.”
ऐसा लग रहा है हमास को क़तर से बाहर निकालने की ये कोशिश बाइडन प्रशासन की है, जो चाहता है कि जनवरी में उनके कार्यकाल के ख़त्म होने से पहले किसी तरह के समझौते तक पहुंचा जाए.
क़तर नहीं तो और कहां जाएगा हमास?
लेकिन अगर हमास को क़तर से बाहर निकलना पड़ा, तो ये स्पष्ट नहीं है कि भविष्य में उसका राजनीतिक कार्यालय कहां होगा.
माना ये जा रहा है कि ईरान का सहयोगी होने के नाते हमास का कार्यालय ईरान शिफ्ट हो सकता है. लेकिन इसी साल जुलाई में तेहरान में हमास की राजनीतिक शाखा के प्रमुख इस्माइल हनिया की हत्या के बाद ये आशंका जताई जा रही है कि वहां हमास पर इसराइल का ख़तरा बना रहेगा.
ऐसा होने पर पश्चिमी मुल्कों के साथ बातचीत का जो कूटनीतिक रास्ता अभी खुला है, उसके बंद होने की भी आशंका है.
उसके लिए तुर्की भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है. तुर्की नेटो का सदस्य है और एक सुन्नी बहुल मुल्क है. तुर्की, अपने यहां से हमास को अपेक्षाकृत सुरक्षा के साथ काम कर सकने की एक जगह दे सकता है.
बीते साल तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने इस्तांबुल में हमास नेता इस्माइल हनिया और उनके प्रतिनिधिमंडल का स्वागत किया था. दोनों के बीच “ग़ज़ा में ज़रूरतमंदों तक बिना रुकावट मानवीय मदद पहुंचाने और इलाक़े के लिए निष्पक्ष और स्थायी शांति प्रक्रिया” को लेकर चर्चा हुई थी.
इस बात की भी संभावना है कि तुर्की इस कदम का स्वागत करेगा, क्योंकि वो अक्सर खुद को पश्चिम और पूर्व के बीच मध्यस्थ की भूमिका में देखना चाहता है.
माना जा रहा है कि मौजूदा वक्त में हमास के नेताओं के लिए सबसे बड़ी चिंता निजी सुरक्षा है क्योंकि बीते चार महीनों के भीतर उसके दो आला नेताओं की मौत हो चुकी है.
जुलाई में तेहरान में इस्माइल हनिया की हत्या हुई. इसके बाद अक्टूबर में ग़ज़ा में इसराइली सेना के एक हमले में याह्या सिनवार की मौत हुई. इसराइल कहता रहा है कि बीते साल सात अक्टूबर को उस पर हुए हमलों के मास्टरमाइंड याह्या सिनवार ही थे.
विदेश मामलों की यूरोपीय काउंसिल के अनुसार “भविष्य में इसराइल की तरफ से की जाने वाली हत्या की कोशिशों से निपटने के लिए हमास अस्थायी तौर पर साझा नेतृत्व की रणनीति अपना रहा है.”
डॉ हेलयर मानते हैं कि “इस इलाक़े का सबसे बड़ा अमेरिकी सैन्य अड्डा क़तर में होने के बावजूद , इसराइल की हत्या की कोशिशों से हमास नेताओं को जो सुरक्षा क़तर में मिली हुई थी वो उसे कहीं और नहीं मिल सकती.”
अमेरिका की बेचैनी की वजह क्या है?
ये कदम ऐसे वक्त उठाया जा रहा है जब अमेरिकी अधिकारी इसराइल सरकार के युद्ध को ख़त्म करने के लिए अपनाए गए रवैये से लगातार निराश होते दिख रहे हैं.
इस साल अक्तूबर में अमेरिकी विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री ने चेतावनी कि अगर इसराइल 30 दिनों के भीतर अधिक मात्रा में मानवीय राहत ग़ज़ा पहुंचने नहीं देता है कि इसका “अनिर्दिष्ट” नतीजा भुगतना होगा.
बीते सप्ताहांत संयुक्त राष्ट्र के कई अधिकारियों ने चेतावनी दी कि उत्तरी ग़ज़ा की स्थिति “बेहद भयावह” है. शनिवार को स्वतंत्र फमीन रिव्यू कमिटी ने कहा कि “इस बात की काफी अधिक आशंका है कि यहां भुखमरी की स्थिति बने.”
ग़ज़ा में हमास के ख़िलाफ़ युद्ध शुरू होने के बाद से अमेरिका राष्ट्रपति जो बाइडन और इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के बीच रिश्ते बिगड़ते गए हैं. अमेरिका इस बात पर अधिक ज़ोर दे रहा है कि फ़लस्तीनियों के लिए अधिक राहत सामग्री ग़ज़ा पहुंचाई जाए और किसी तरह के समझौते तक पहुंचा जाए.
लेकिन डॉ हेलयर के मुताबिक़ समझौते की अमेरिका की कोशिशों में भयानक त्रुटियां रही हैं.
वो कहते हैं, “पहले लाल रेखा खींचना और फिर नेतन्याहू को उस लाल रेखा को पार करने देना, वो भी नतीजा भुगते बग़ैर, बाइडन प्रशासन ने एक तरह से सज़ा न देकर उनका हौसला बढ़ाया है. मुझे नहीं लगता कि आने वाले 10 सप्ताह में ये बदल जाएगा.”
अमेरिका की किसी भी तरह की पहल को नेतन्याहू और उनके वामपंथी गठबंधन ने बार-बार खारिज किया है. अब डोनाल्ड ट्रंप के नए राष्ट्रपति बनने की ख़बर से उन्हें और ताकत ही मिलेगी.
क्या ट्रंप के आने से कुछ बदलेगा?
मध्य पूर्व के इलाक़े को लेकर डोनाल्ड ट्रंप का रवैया क्या रहेगा अब तक इसे लेकर कुछ स्पष्ट नहीं है, हालांकि माना जा रहा है कि वो इसराइल को अपनी शर्तों काम करने की छूट दे सकते हैं.
इससे पहले ट्रंप ने कहा था कि इसराइल ने “ग़ज़ा में जो शुरू किया है उसे वो ख़त्म करना चाहिए.”
राष्ट्रपति के तौर पर अपने पहले कार्यकाल के दौरान ट्रंप ने कई ऐसे कदम उठाए जो इसराइल के लिए अनुकूल थे. इसमें अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यरूशलम में शिफ्ट करना शामिल था.
इस तरह की ख़बरें हैं कि कथित तौर पर ट्रंप ने नेतन्याहू से कहा है कि उनके दोबारा पद ग्रहण करने से पहले वो इस जंग का अंत देखना चाहते हैं.
किसी भी तरह से हो, ऐसा लगता है कि मौजूदा वक्त में इसराइली सरकार पर अमेरिकी प्रशासन का प्रभाव कम ही रहेगा.
हो सकता है कि इस कारण उन्हें लगता हो कि मौजूदा स्थिति में समझौते तक पहुंचने के लिए सबसे अच्छा तरीका हमास पर दबाव बनाना हो.
लेकिन ये तरीक़ा काम करेगा या नहीं, ये पूरी तरह से क़तर पर निर्भर करता है. लंबे वक्त से अमेरिका का सहयोगी रहा क़तर, हो सकता है इस बात में उसका साथ दे.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित