इमेज स्रोत, Anadolu via Getty Images
दो साल की जंग के बाद, अब एक समझौते पर बात बनने की संभावना है जो ग़ज़ा में हो रही हत्याओं और बर्बादी पर रोक लगा सकता है. साथ ही इसराइली बंधकों को उनके परिवारों के पास वापस ला सकता है.
यह एक मौका है, लेकिन ये पक्का नहीं है कि हमास और इसराइल दोनों ही इसे अपनाएंगे.
ये एक गंभीर इत्तेफ़ाक़ है कि बातचीत हमास के उस हमले के ठीक दो साल बाद हो रही है, जिसने इसराइली जनता को एक ऐसा आघात पहुंचाया था जो आज भी ताज़ा है.
सात अक्तूबर के हमलों में लगभग 1200 लोग मारे गए थे, जिनमें से अधिकतर इसराइली नागरिक थे. इसके अलावा 251 लोगों को बंधक बना लिया गया था. इसराइली अधिकारियों का अनुमान है कि अब भी 20 बंधक ज़िंदा हैं और साथ ही वे अन्य 28 मृतकों के शवों की वापसी भी चाहते हैं.
इसराइल की विनाशकारी जवाबी सैन्य कार्रवाई ने ग़ज़ा के अधिकांश हिस्से को तबाह कर दिया है और अब तक उसके हमलों में 66 हज़ार से अधिक फ़लस्तीनियों की जान जा चुकी है.
इनमें से अधिकांश आम लोग थे और 18 हज़ार से अधिक बच्चे भी इसमें शामिल हैं.
ये आंकड़े हमास संचालित स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से आए हैं.
आमतौर पर ये जानकारी विश्वसनीय मानी जाती रही है. लंदन के मेडिकल जर्नल द लांसेट में छपे एक अध्ययन ने संकेत दिया कि ये आंकड़े असल संख्या से कम हो सकते हैं.
दोनों पक्ष चाहते हैं जंग का अंत मगर…
इमेज स्रोत, Reuters
इसराइली और फ़लस्तीनी दोनों ही ओर के लोग इस जंग से थक चुके हैं. जनमत सर्वेक्षणों से पता चलता है कि बहुमत एक ऐसे समझौते का समर्थन करता है जो बंधकों को वापस लाए और युद्ध ख़त्म करे.
पिछले कई महीनों से ड्यूटी पर तैनात इसराइली डिफ़ेंस फ़ोर्सेज़ (आईडीएफ़) के हज़ारों रिज़र्व सैनिक अब अपनी सामान्य ज़िंदगी में लौटना चाहते हैं.
ग़ज़ा में 20 लाख से ज़्यादा फ़लस्तीनी मानवीय त्रासदी का सामना कर रहे हैं. एक ओर आईडीएफ़ के हमले और दूसरी ओर भुखमरी. कुछ इलाकों में इसराइल की ओर से मानवीय मदद पर लगाए प्रतिबंधों की वजह से पैदा हुए आकाल जैसे हालात.
दो साल पहले इसराइल पर भयानक हमले करने वाला हमास, अब एक संगठित सैन्य बल के तौर पर लगभग टूट चुका है. अब ये बस ‘अर्बन गुरिल्ला फ़ोर्स’ बनकर रह गया, जो तबाह हो चुके क्षेत्रों में आईडीएफ़ के ख़िलाफ़ विद्रोह चला रहा है.
हमास ने भले ही फ़लस्तीनी टेक्नोक्रैट्स को सत्ता सौंपने पर सहमति जता दी है लेकिन वह अब किसी तरह से खुद को बचाए रखना चाहता है. वह ये स्वीकार करता है कि उसे अपने भारी हथियार या तो नष्ट करने होंगे या तो सौंपने होंगे.
लेकिन वह इतनी ताक़त बचाए रखना चाहता है, जिससे वह ख़ुद को उन फ़लस्तीनियों से बचा सके जो उसके करीब दो दशक के कड़े शासन और उसकी कार्रवाइयों से आई तबाही का बदला लेना चाहते हैं.
हमास ये बात खुलकर नहीं कह रहा है. लेकिन एक ऐसा संगठन जो अब भी समर्थकों और इसराइल के विनाश के मकसद पर अडिग, वह इतनी ताक़त तो बचाकर रखना चाहेगा कि वह दोबारा खड़ा हो सके.
और ‘इस्लामिक रेज़िस्टेंस मूवमेंट’ के नाम को सार्थक बना सके.
इसराइल चाहेगा कि हमास के समर्पण की शर्तें वह तय करे. लेकिन ये तथ्य कि हमास अब एक गंभीर वार्ता का हिस्सा बन सकता है, उसे ऐसे मौके देता है जो एक महीने पहले तक भी नामुमकिन लग रहे थे.
ये वही समय था जब इसराइल ने दोहा में डोनाल्ड ट्रंप की पीस डील पर चर्चा कर रहे हमास के शीर्ष अधिकारियों को हमलों में मारने की कोशिश की थी.
उस समय हमले का मुख्य लक्ष्य रहे हमास के वरिष्ठ नेता ख़लील अल-हय्या, अब शर्म अल-शेख के रेड सी रिसॉर्ट में चल रही वार्ता में हमास के प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई कर रहे हैं.
इस हमले में अल-हय्या के बेटे की मौत हुई थी, लेकिन बाकी नेता बच गए थे.
नेतन्याहू के लिए कुर्सी बचाने का मौका?
इमेज स्रोत, Getty Images
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू एक अलग तरह के ‘बचाव’ के बारे में सोच रहे हैं. वह अपनी सत्ता बचाना चाहते हैं, अपने ऊपर चल रहे भ्रष्टाचार के मुकदमों को टालते रहना चाहते हैं, अगले साल होने वाले चुनाव जीतना चाहते हैं.
वह इतिहास में उस नेता के तौर पर दर्ज नहीं होना चाहते, जिसकी सुरक्षा व्यवस्थाओं में ख़ामियों की वजह से यहूदी समुदाय ने नाज़ी होलोकॉस्ट के बाद सबसे घातक दिन देखा.
इसे हासिल करने के लिए उन्हें एक विश्वसनीय तरीका चाहिए जिससे वह ‘पूर्ण विजय’ की घोषणा कर सकें. ये शब्द उन्होंने बार-बार दोहराए हैं.
उन्होंने इसे बंधकों की वापसी, हमास के विनाश और ग़ज़ा के डिमिलिट्राइज़ेशन के तौर पर परिभाषित किया है. अगर वह ऐसा नहीं कर पाते, तो सिर्फ़ ये दिखाना काफ़ी नहीं होगा कि इसराइल ने पिछले दो साल में लेबनान और ईरान में अपने दुश्मनों को कितना नुक़सान पहुंचाया है.
हमास और इसराइली वार्ताकार आमने-सामने नहीं बैठेंगे. मिस्र और क़तर के अधिकारी मध्यस्थ की भूमिका में होंगे और वहां मौजूद अमेरिकी प्रतिनिधि भी एक अहम, संभवतः निर्णायक भूमिका निभाएंगे.
वार्ता का आधार डोनाल्ड ट्रंप की 20 बिंदुओं वाली ग़ज़ा शांति योजना है.
हालांकि, ट्रंप ने सोशल मीडिया पर लगातार स्थायी शांति पर ज़ोर दिया है लेकिन फिर भी यह योजना इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच लंबे समय से रिवर जॉर्डन और भूमध्य सागर के बीच ज़मीन के नियंत्रण को लेकर चले आ रहे संघर्ष को खत्म नहीं कर पाएगी.
इस योजना में वेस्ट बैंक का भविष्य शामिल नहीं है, जिसे ब्रिटेन और कई दूसरे देशों ने फ़लस्तीन के हिस्से के तौर पर मान्यता दी हुई है.
शर्म अल-शेख में बहुत कुछ दांव पर है. यहां संघर्षविराम तक पहुंचने का मौका है, जो अरब और यहूदियों के बीच एक सदी से भी लंबे समय से विनाशकारी और ख़ूनी जंग को ख़त्म कर सकता है.
पहली चुनौती है इसराइली बंधकों की रिहाई की शर्तें तय करना और इसके बदले में उन फ़लस्तीनियों को छोड़ना जो इसराइली जेलों में उम्रकैद की सज़ा काट रहे हैं. और ग़ज़ा के उन लोगों को छोड़ना जिन्हें बिना मुकदमे के ही युद्ध शुरू होने के बाद से हिरासत में रखा गया है.
यह कोई आसान काम नहीं है.
ट्रंप का क्या है मक़सद?
इमेज स्रोत, AFP via Getty Images
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जल्द से जल्द कोई नतीजा चाहते हैं.
वह मध्य पूर्व में एक बड़ा समझौता करवाना चाहते हैं, जिसके केंद्र में इसराइल और सऊदी अरब के बीच मेलजोल हो.
मगर यह तब संभव नहीं है जब इसराइल ग़ज़ा में बड़ी संख्या में आम फ़लस्तीनियों को मार रहा है और मानवीय सहायता रोक रहा. जिससे लोग पीड़ा में हैं और जब हमास भी इसराइली बंधकों को रिहा नहीं कर रहा है.
सऊदी अरब ने भी कई बयानों में ये साफ़ कहा है कि एक स्वतंत्र फ़लस्तीनी राष्ट्र के लिए ‘स्पष्ट और अपरिवर्तनीय राह’ के बिना यह संभव नहीं होगा.
ट्रंप ने नेतन्याहू को एक दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया, जिसमें फ़लस्तीन की स्वतंत्रता की संभावना का अस्पष्ट सा ज़िक्र था. हालांकि, हस्ताक्षर के बाद नेतन्याहू ने एक बयान में इस मुद्दे को नज़रअंदाज़ करते हुए ये दोहराया कि फ़लस्तीनियों को कभी अपना देश नहीं मिलेगा.
ट्रंप के दस्तावेज़ में हमास की सत्ता खत्म करने और भविष्य के ग़ज़ा प्रशासन को लेकर इसराइल की कई इच्छाओं को शामिल किया गया है.
नेतन्याहू ओवल ऑफ़िस में अपनी मर्ज़ी चलवाने के आदी हैं. इसकी बजाय ट्रंप ने ही उन्हें क़तर के प्रधानमंत्री से उस हवाई हमले की औपचारिक माफ़ी मांगने को मजबूर किया, जिसमें इसराइल हमास के नेतृत्व को ख़त्म करने में नाकाम रहा.
दरअसल, ट्रंप को मध्य पूर्व को नया रूप देने की अपनी महत्वकांक्षा को पूरा करने के लिए आगे बढ़ने में क़तर का समर्थन चाहिए.
एक सवाल यह है कि हमास इसराइल के ग़ज़ा छोड़ने से जुड़ी किसी सख्त समयसीमा और जंग ख़त्म हुए बग़ैर ही बंधकों को छोड़ने के लिए तैयार क्यों है?
एक संभावना यह है कि क़तर ने उसे भरोसा दिलाया है कि अगर वह ट्रंप को सभी इसराइली बंधकों को वापस लाकर जीत का दावा करने का मौका देंगे, तो ट्रंप भी सुनिश्चत करेंगे कि जंग खत्म हो और इसराइल गज़ा छोड़ दे.
फिर भी ट्रंप अब तक ऐसी भाषा बोल रहे हैं, जो नेतन्याहू इसराइलियों को सुनाना चाहते हैं. जैसे कि अगर हमास समझौते को ठुकराए तो उसे ख़त्म करने में इसराइल को ‘पूरा समर्थन’ देने का वादा.
अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने कहा है कि यह पता लगाने में सिर्फ़ कुछ दिन लगेंगे कि हमास गंभीर है या नहीं.
लेकिन एक जटिल समझौते पर सहमति तक पहुंचने के लिए उसकी बारीकियों को समझने में समय लगेगा. फ़िलहाल उनके पास सिर्फ़ ट्रंप का तैयार किया हुआ फ़्रेमवर्क है.
इसराइलियों और फ़लस्तीनियों के बीच लंबे और अनसुलझे संघर्ष के ग़ज़ा में जंग के तौर पर तब्दील होने के दो साल बाद, अब यहां हो रही हत्याओं को रोकना और फ़लस्तीनियों-इसराइलियों के भविष्य को सुरक्षित करना एक बड़ी चुनौती है.
इसके लिए कुशल कूटनीति और लगातार संवाद की ज़रूरत होगी. इस बारे में ट्रंप की 20 बिंदुओं वाली योजना में बहुत कम जानकारी है. अगर जानकारी के इस अभाव को भरने की कोशिश हुई तो यह भी कई नई अड़चनों को जन्म दे सकती है.
ट्रंप का मर्ज़ी मनवाने वाला कौशल
इमेज स्रोत, Getty Images
डोनाल्ड ट्रंप खुद ही अपनी सौदेबाज़ी से जुड़े कौशल की बात करते रहते हैं. हालांकि, विदेश नीति के मामले में ट्रंप ने अब तक जो बड़ी-बड़ी बातें कहीं हैं, वह उनके हासिल से मेल नहीं खाता.
उन्होंने कई युद्धों को नहीं रोका. उन्होंने कितने युद्ध खत्म किए, यह संख्या इस बात पर निर्भर करती है कि वे इसे कैसे पेश करते हैं.
सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि ट्रंप ने राष्ट्रपति कार्यालय संभालने के पहले ही दिन रूस-यूक्रेन की जंग को ख़त्म करवाने का वादा किया था, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.
मगर सालों के रियल एस्टेट सेक्टर से जुड़े होने के अनुभव के बाद एक कौशल जो ट्रंप के पास है, वह ये कि दबाव कैसे बनाया जाए ताकि अपनी मर्ज़ी मनवा सकें.
मिस्र में हो रही अप्रत्यक्ष वार्ताएं इसीलिए संभव हुईं क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप दोनों पक्षों पर दबाव डाल सके. हमास को योजना स्वीकार न करने पर खात्मे की धमकी देना, आसान काम था.
साल 2006 में हमास के फ़लस्तीनी चुनाव जीतने और इसके अगले साल फ़तह से ग़ज़ा का नियंत्रण हमास के पास जाने के बाद से अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने हमास पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाए रखा है.
डोनाल्ड ट्रंप और क्लिंटन, ओबामा और बाइडन के बीच एक बड़ा फर्क यह है कि ट्रंप बिन्यामिन नेतन्याहू की कोशिशों पर ज़्यादा कड़ा और निर्णायक प्रहार कर रहे हैं. जबकि उनसे पहले आए डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति ऐसा नहीं कर पाए या फिर उनकी ऐसी इच्छा ही नहीं हुई.
ट्रंप ने हमास के ‘शर्तों के साथ हां’ कहे जाने को शांति के लिए मज़बूती से दी गई सहमति माना. यह उन्हें आगे बढ़ने की पूरी हिम्मत देने के लिए काफ़ी था.
न्यूज़ सर्विस एक्सियस ने ये छापा कि जब नेतन्याहू ने ट्रंप को यह समाझाना चाहा कि हमास समय बर्बाद कर रहा है तो ट्रंप ने कहा, “आप इतने नकारात्मक क्यों हैं?”
इसराइल अमेरिका पर निर्भर है. अमेरिका इस जंग में पूरी तरह से उसका साझेदार रहा है. अमेरिका की मदद के बग़ैर इसराइल इतनी बर्बर और लंबी सैन्य कार्रवाई ग़ज़ा में जारी नहीं रख सकता था.
उसके अधिकांश हथियार अमेरिका से आते हैं. अमेरिका उसे राजनीतिक और कूटनीतिक मोर्चे पर संरक्षण भी देता है और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इसराइल पर युद्ध रोकने का दबाव बनाने के लिए लाए गए कई प्रस्तावों पर अमेरिका वीटो भी करता रहा है.
जो बाइडन कभी इसराइल की निर्भरता का फ़ायदा नहीं उठा पाए. डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका फ़र्स्ट के लिए अपनी योजनाओं को तरजीह देते हैं और उन्होंने अमेरिका की इसी छुपी ताक़त का इस्तेमाल कर के कम से कम वार्ताओं में शामिल होने के मामले में नेतन्याहू को अपनी मर्ज़ी के आगे झुकाया.
यह देखना बाकी है कि ट्रंप का दबाव जारी रहेगा या नहीं क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप अक्सर अपना मन बदल लेते हैं.
हमास और इसराइली प्रतिनिधिमंडलों के भी अपने-अपने देश में ऐसे मज़बूत आलोचक हैं, जो युद्ध जारी रखना चाहते हैं. हमास के सूत्रों ने बीबीसी को बताया कि ग़ज़ा में अब भी मौजूद सैन्य कमांडर आख़िर तक लड़ने को तैयार हैं.
बिन्यामिन नेतन्याहू की गठबंधन सरकार उन अति धुर राष्ट्रवादियों पर निर्भर है जिन्हें ये लगता है कि वे ग़ज़ा के फ़लस्तीनियों को निकालकर उनकी जगह यहूदियों को बसाने के अपने सपने को पूरा करने के करीब हैं.
अगर मिस्र में वार्ता विफल हो जाती है, तो दोनों ही नतीजे संभव हो सकते हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.