ईरान ने एक अक्तूबर को इसराइल पर ताबड़तोड़ मिसाइल हमला किया तो इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने कहा था कि ईरान को इसकी भारी क़ीमत चुकानी होगी.
ईरान के हमले के बाद से ही कहा जा रहा था कि इसराइल इसका बदला ज़रूर लेगा. इसराइल के पूर्व प्रधानमंत्री नेफ़्टाली बेनेट ने तो यहाँ तक कह दिया था कि ईरानी हमला इसराइल के लिए अच्छा मौक़ा है कि उसके परमाणु कार्यक्रम को नष्ट कर दे.
कई लोग सलाह दे रहे थे कि इसराइल को ईरान के ऊर्जा इन्फ़्रास्ट्रक्चर पर हमला करना चाहिए.
जब शनिवार रात इसराइल ने ईरान पर हमला किया तो न ईरान के परमाणु कार्यक्रम को निशाने पर लिया और ना ही उसके ऊर्जा इन्फ़्रास्ट्रक्चर को.
इसराइली मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, इसराइली डिफेंस फ़ोर्स ने ईरान के भीतर तेहरान, कराज, इसफ़हान और शिराज़ में कम से कम 20 ठिकानों पर हमले किए. इन हमलों में ईरान ने अपने चार सैनिकों के मारे जाने की पुष्टि की है. ईरान और इसराइल की बीच वार-प्रतिवार से आशंका गहरा गई है कि कहीं पूरा पश्चिम एशिया युद्ध की चपेट में ना आ जाए.
इसराइल के हमले के बाद अरब के इस्लामिक देशों की तत्काल प्रतिक्रिया आई. इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी ने भी 27 अक्तूबर को बयान जारी किया और हमले की कड़ी निंदा की. ओआईसी के 57 देश सदस्य हैं, जिनमें से ज़्यादातर मुस्लिम बहुल देश हैं या संवैधानिक रूप से इस्लामिक देश हैं.
इस्लामिक देशों की प्रतिक्रिया क्या रही?
ओआईसी ने अपने बयान में कहा, ”इसराइल का ईरान पर हमला संप्रभुत्ता और अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन है. ओआईसी इसकी कड़ी निंदा करता है. अगर इस इलाक़े में किसी भी तरह का टकराव शुरू होता है तो पूरा क्षेत्र अस्थिरता में समा जाएगा. तनाव और हिंसा को ख़त्म करने के लिए अंतरराष्ट्रीय संगठनों और नेताओं को आगे आना चाहिए. गज़ा, वेस्ट बैंक और लेबनान में इसराइल की आक्रामकता तत्काल थमनी चाहिए.”
इस्लामिक दुनिया में सऊदी अरब की ख़ास जगह है क्योंकि यहाँ मक्का और मदीना है. सऊदी अरब ने भी ईरान पर इसराइल के हमले की निंदा की है. सऊदी अरब ने कहा कि ईरान पर इसराइल का हमला संप्रभुत्ता और अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन है.
सऊदी अरब के विदेश मंत्रालय ने कहा, ”हम इस इलाक़े में लगातार बढ़ रहे टकराव के ख़िलाफ़ हैं. टकराव के विस्तार से इस इलाक़े की शांति और स्थिरता प्रभावित होगी. हम सभी पक्षों से तनाव कम करने और टकराव का रास्ता छोड़ने की अपील करते हैं. अगर टकराव ऐसे ही जारी रहा तो इस इलाके़ के लिए ख़तरनाक होगा. हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील करते हैं कि इस इलाक़े में बढ़ते टकराव को ख़त्म करने में अपनी भूमिका अदा करे.”
भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल सऊदी अरब के इस बयान को काफ़ी अहम मानते हैं. सिब्बल ने सऊदी अरब के बयान को रीपोस्ट करते हुए लिखा है, ”राजनयिक रूप से यह काफ़ी अहम है. सऊदी अरब नहीं चाहता है कि टकराव का दायरा बढ़े क्योंकि यह उसकी विकास परियोजनाओं के लिए झटका होगा. अगर अमेरिका के कारण रूस और चीन की दोस्ती मज़बूत हो रही है तो इसराइल के कारण ईरान और सऊदी अरब क़रीब आ रहे हैं.”
सऊदी अरब की चिंता
सऊदी अरब और ईरान के बीच 2016 में राजनयिक संबंध ख़त्म हो गया था. ईरान में प्रदर्शनकारियों ने सऊदी के दूतावास पर हमला बोल दिया था. इसी के जवाब में सऊदी अरब ने राजनयिक संबंध तोड़ने का फ़ैसला किया था. लेकिन पिछले साल ही चीन की मध्यस्थता में दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध बहाल हुआ था.
गल्फ़ में क़तर एक अहम देश है. क़तर मध्य-पूर्व के टकराव में पश्चिम के देशों से समझौते कराने में मध्यस्थ की भूमिका निभाता रहा है. क़तर ने भी ईरान पर इसराइल के हमले की निंदा की है.
क़तर के विदेश मंत्रालय ने अपने बयान में कहा है, ”ईरान पर इसराइल का हमला संप्रभुत्ता और अंतरराष्ट्रीय नियमों का खुलेआम उल्लंघन है. दोनों पक्षों को संवाद और डिप्लोमैसी के ज़रिए विवादों का समाधान खोजना चाहिए. कुछ भी ऐसा करने से बचने की ज़रूरत है, जिससे इलाक़े की शांति और स्थिरता भंग हो सकती है. हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील करते हैं कि ग़ज़ा के साथ लेबनान में हिंसा और तनाव कम करने के लिए आगे आए.”
बहरीन के विदेश मंत्रालय ने भी ईरान पर हमले के लिए इसराइल की तीखी आलोचना की है. बहरीन ने अपने बयान में कहा, ”अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अपनी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए और तत्काल युद्धविराम लागू करवाना चाहिए.”
पाकिस्तान ने भी इस मामले में ईरान का समर्थन करते हुए, इसराइल की आलोचना की है. इस्लामिक देशों के समर्थन के बीच एक सवाल भी उठ रहा है कि सबने निंदा तो कर दी लेकिन इसराइल के लड़ाकू विमान इन्हीं देशों के हवाई क्षेत्र से गुज़रे होंगे. ऐसे में इन देशों ने इसराइल के फाइटर प्लेन को जाने की अनुमति कैसे दी?
इसराइल ने हमले के लिए किसके हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल किया?
पाकिस्तान के जाने-माने राजनीतिक टिप्पणीकार नजम सेठी ने पाकिस्तानी न्यूज़ चैनल समा टीवी से बात करते हुए कहा, ”सभी इस्लामिक देशों ने निंदा की लेकिन एक सोची-समझी ख़मोशी भी है. इसराइल के सारे जहाज़ ईरान कैसे गए? ज़ाहिर है कि इराक़ और जॉर्डन के हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल हुआ होगा.”
”लेकिन इसे लेकर कोई विरोध नहीं है. लोगों ने रोकने की भी कोशिश नहीं की. लगता है कि इसराइल ने इन्हें बता दिया था और धमका भी दिया था कि चुपचाप रहना. कहा गया होगा कि आपके पास अमेरिकी हथियार हैं और इनका इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं. अमेरिकी मीडिया में भी ये बात नहीं छिड़ी.”
इस बीच, इराक़ ने संयुक्त राष्ट्र में इसराइल के ख़िलाफ़ शिकायत की है कि ईरान पर हमले में इसराइल ने उसके हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल किया है. इराक़ के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा है, ”इसराल ने खुलेआम इराक़ के हवाई क्षेत्र का उल्लंघन किया है. यह इराक़ की संप्रभुत्ता का उल्लंघन है.
इराक़ में शिया 51 फ़ीसदी हैं और सुन्नी 42 फ़ीसदी लेकिन सद्दाम हुसैन के कारण शिया बहुसंख्यक होने के बावजूद बेबस थे. जब अमेरिका ने मार्च 2003 में इराक़ पर हमला किया तो सुन्नी अमेरिका के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे और शिया अमेरिका के साथ थे.
इराक़ में ईरान का समर्थन शिया बनाम सुन्नी अब भी बँटा हुआ है.
इसराइल के ख़िलाफ़ क्या इस्लामिक देश एकजुट हो पाएंगे?
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन और ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई कई बार इसराइल के ख़िलाफ़ इस्लामिक देशों से एकजुट होने की अपील कर चुके हैं. लेकिन इस्लामिक दुनिया के अपने विरोधाभास हैं और इनके आपस के ही हित टकराते रहते हैं.
ईरान और सऊदी अरब के बीच ऐतिहासिक अविश्वास है. दोनों के बीच शिया और सुन्नी का भी भेद है. ईरान के लिए पश्चिम के देश दुश्मन हैं तो सऊदी अरब के लिए पश्चिम के देश रणनीतिक साझेदार हैं. ईरान इसराइल के अस्तित्व को ही नकारता है तो सऊदी अरब इसराइल-फ़लस्तीन टकराव का समाधान दो राष्ट्र के रूप में देखता है.
सऊदी में राजशाही है इसलिए वहाँ के आम लोग इसराइल के ख़िलाफ़ सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं जबकि ईरान में एक किस्म का लोकतंत्र है, इसलिए सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन कर पाते हैं.
सऊदी में अरब के शासकों की जो सोच इसराइल को लेकर है, वही वहाँ की जनता की है, ये कहना मु्श्किल है क्योंकि वहां की जनता के पास अपनी सोच का इज़हार करने की आज़ादी नहीं है. ऐसे में सऊदी अरब के शासकों में एक डर की बात की जाती है कि अगर फ़लस्तीनियों को लेकर इस्लामिक देशों में उग्रता बढ़ी तो कहीं वहाँ की आम जनता सड़कों पर ना उतर जाए.
सऊदी अरब और हमास के रिश्ते भी उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं. 1980 के दशक में हमास के बनने के बाद से सऊदी अरब के साथ उसके सालों तक अच्छे संबंध रहे. 2019 में सऊदी अरब में हमास के कई समर्थकों को गिरफ़्तार किया गया था. इसे लेकर हमास ने बयान जारी कर सऊदी अरब की निंदा की थी. हमास ने अपने समर्थकों को सऊदी में प्रताड़ित करने का भी आरोप लगाया था. 2000 के दशक में हमास की क़रीबी ईरान से बढ़ी.
ईरान से क़रीबी के कारण सऊदी अरब से हमास की दूरी बढ़ना लाज़िम था क्योंकि सऊदी अरब और ईरान के बीच दुश्मनी है. ऐसे में हमास किसी एक का ही क़रीबी रह सकता है.
इसराइल का जितना खुला विरोध ईरान करता है, उतना मध्य-पूर्व में कोई नहीं करता है. ऐसे में हमास और ईरान की क़रीबी स्वाभाविक हो जाती है.
2007 में फ़लस्तीनी प्रशासन के चुनाव में हमास की जीत हुई और इस जीत के बाद उसकी प्रासंगिकता और बढ़ गई थी.
लेकिन हमास और सऊदी अरब के रिश्ते भी स्थिर नहीं रहे. जब 2011 में अरब स्प्रिंग या अरब क्रांति शुरू हुई तो सीरिया में भी बशर अल-असद के ख़िलाफ़ लोग सड़क पर उतरे. ईरान बशर अल-असद के साथ खड़ा था और हमास के लिए यह असहज करने वाला था. इस स्थिति में ईरान और हमास के रिश्ते में दरार आई. लेकिन अरब क्रांति को लेकर सऊदी अरब का रुख़ मिस्र को लेकर जो रहा, वो भी हमास को रास नहीं आया.
सऊदी अरब मिस्र में चुनी हुई सरकार का विरोध कर रहा था. ऐसे में फिर से हमास की तेहरान से करीबी बढ़ी.
2019 के जुलाई में हमास का प्रतिनिधिमंडल ईरान पहुँचा और उसकी मुलाक़ात ईरान के सर्वोच्च नेता अयतोल्लाह अली ख़ामेनेई से हुई थी. सऊदी अरब में हमास के नेताओं को मुस्लिम ब्रदरहुड से भी जोड़ा जाता है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित