भारतीय लेखिका बानू मुश्ताक़ को उनके जिस लघु कथा संकलन ‘हार्ट लैंप’ के लिए इस साल अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से नवाज़ा गया है, वो क़िताब लगभग 35 विदेशी भाषाओं और 12 भारतीय भाषाओं में पब्लिश होगी.
ये जानकारी ख़ुद बानू मुश्ताक़ ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में दी है. उन्होंने बताया कि ‘हार्ट लैंप’ पर एक ऑडियो बुक भी बन रही है.
बीबीसी के लिए वरिष्ठ पत्रकार इमरान क़ुरैशी ने बानू मुश्ताक़ से उनके साहित्य के सफ़र और ज़िंदगी की चुनौतियों पर बात की है.
पढ़िए उस लेखिका की कहानी, जिसकी मूल रूप से कन्नड़ में लिखी क़िताब ने दुनिया में नाम कमाया है.
‘पिता के दोस्त ने कहा था… बहुत क़िताबें लिखेगी’
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बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि शुरू में जब स्कूल में उनका नाम लिखाया गया था, तब वो कुछ भी नहीं सीख पाई थीं. इसकी वजह ये थी कि उनका दाखिला उर्दू मीडियम स्कूल में कराया गया था, जहां का माहौल उन्हें पसंद नहीं था.
इस बारे में बानू मुश्ताक़ कहती हैं, “हमारे यहां प्रैक्टिस ऐसी थी कि लड़कों को कन्नड़ मीडियम में पढ़ाया जाता था और लड़कियों को उर्दू मीडियम स्कूल में, ताकि लड़कियां मज़हबी साहित्य से वाकिफ़ हों और वो घरेलू माहौल में ढल सकें.”
“जब मेरा नाम उर्दू मीडियम स्कूल में लिखवाया गया, तो पता नहीं क्यों मुझे वो माहौल पसंद नहीं आया. वो टीचर्स भी पसंद नहीं आए. और मैं बिल्कुल भी नहीं पढ़ी. मैं एक साल तक स्कूल जाती रही, लेकिन एक अक्षर तक नहीं सीखा.”
बानू मुश्ताक़ के मुताबिक़ इस बात से उनके पिता बहुत परेशान हुए थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि उनकी बेटी कुछ बनेगी.
अपने पिता की इस उम्मीद की वजह के बारे में वो बताती हैं, “मेरे अब्बा के बहुत सारे ब्राह्मण दोस्त थे. जब मैं पैदा हुई, तो एक दोस्त ने उनको कुछ लिखकर दिया था, वो मैंने भी पढ़ा है. उसमें लिखा था कि ये बड़ी होकर बहुत सारी क़िताबें लिखेगी और दुनिया में नाम कमाएगी.”
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि जब उनके पिता ने देखा कि वो कुछ पढ़ नहीं रही हैं तो उनका नाम कन्नड़ मीडियम स्कूल में लिखवाया गया.
वो बताती हैं कि उनकी उम्र उस वक्त कक्षा तीन-चार में जाने की हो गई थी. इस स्कूल में वो एक हफ़्ते में ही अल्फ़ाबेट सीख गईं और इसके बाद छह महीनों में वो कन्नड़ भाषा की क़िताबें पढ़ने में सक्षम हो गई थीं.
किन चुनौतियों का सामना किया?
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि उन्होंने वो सभी दुश्वारियां और पाबंदियां झेली हैं, जो एक भारतीय, एक मुस्लिम और एक महिला की पहचान के तहत सामने आती हैं.
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि वो कॉलेज में काफी एक्टिव रहती थीं, वो डिबेट में हिस्सा लेती थीं, लिटरेरी फोरम में भी एक्टिव रहती थीं.
वो बताती हैं कि उनकी शादी जिन व्यक्ति से हुई, वो कॉलेज में उनके सीनियर थे और कॉलेज में बानू की इसी पहचान के नाते वो उन्हें पसंद करते थे.
वो बताती हैं कि जब उनकी शादी हुई, तब समाज में ये माना जाता था कि अगर किसी भी पत्नी को काम करना है तो टीचर बनकर दस से पांच बजे तक का काम करे.
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, “मैं टीचर तो थी ही, शादी के बाद मैंने रिज़ाइन किया था. इसकी वजह थी कि मैं घर की बड़ी बहू थी, मेरे ऊपर थोड़ी ज़िम्मेदारियां थीं. हालांकि, रिज़ाइन करके मैं खुश नहीं थी. मुझे घर के बाहर भी लाइफ़ चाहिए थी, कुछ स्पेस चाहिए था.”
वो बताती हैं, “इस वजह से मेरे और मेरे पति के बीच झगड़े होते थे, लेकिन वो भी नहीं चाहते थे कि मैं पाबंदियों में रहूं. वो ख़ुद मज़बूर थे, वो भी कुछ नहीं कर सकते थे.”
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, “जो मैं ये बोल रही थी कि मैं अपने हालात पर नाख़ुश थी, इसका ये मतलब नहीं कि कोई मुझ पर ज़ुल्म कर रहा था. ऐसा कुछ नहीं था.”
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बानू मुश्ताक़ अपनी चुनौतियों के साथ उस सपोर्ट के बारे में भी बताती हैं, जो उनको अपने पिता और पति से मिला.
वो कहती हैं, “मेरे अब्बा हर तरह से कोशिश करते थे कि मेरा ओवरऑल डेवलपमेंट हो. मेरे पति भी चाहते कि मैं कुछ बनूं, कभी भी नहीं चाहते थे कि मैं घरेलू काम करूं. वो कहते थे कि मैं अपना काम करूं.”
वो बताती हैं, “जब मेरी बड़ी बेटी तीन महीने की थी. शायद पोस्टपार्टम डिप्रेशन भी होगा, मुझे पता नहीं, मगर मेरे पति को महसूस हो गया था. मुझे गुस्सा आ रहा था कि बस मेरा काम यही होगा कि मैं बीवी बनूं, मां बनूं और दूसरा क्या? ऐसा गुस्सा करती थी, झगड़ा करती थी.”
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि इस दौरान उन्होंने सुसाइड तक की कोशिश की. हालांकि, उनके पति ने उन्हें संभाल लिया. उनके मुताबिक़ ख़ुद को नुक़सान पहुंचाने का उनका ख़्याल कुछ पलों का था.
उनके पति ने समझाया कि अभी ज़िंदगी बाकी है, वो जो करना चाहती हैं, ज़रूर करेंगी.
( महत्वपूर्ण जानकारी-
मानसिक समस्याओं का इलाज दवा और थेरेपी से संभव है. इसके लिए आपको मनोचिकित्सक से मदद लेनी चाहिए, आप इन हेल्पलाइन से भी संपर्क कर सकते हैं-
सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय की हेल्पलाइन- 1800-599-0019 (13 भाषाओं में उपलब्ध)
इंस्टीट्यूट ऑफ़ ह्यमून बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेज- 9868396824, 9868396841, 011-22574820
हितगुज हेल्पलाइन, मुंबई- 022- 24131212
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस- 080 – 26995000 )
एक्टिविस्ट बानू ने जब म्यूनिसिपल इलेक्शन जीता
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बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि वो पहले एक्टिविस्ट बनीं.
कर्नाटक में उस वक्त कई तरह के सोशल मूवमेंट चल रहे थे, समाज में जागरुकता लाने का प्रयास चल रहा था. उस दौरान उन्होंने ऐसे आंदोलन में हिस्सा लिया, नारे लगाए, भाषण दिए. वो कहती हैं कि उनका ये काम बहुत से लोगों को पसंद नहीं आता था.
वहीं एक बार जब म्यूनिसिपल इलेक्शन हो रहे थे, तो उनके पिता को एक दोस्त ने सलाह दी कि वो उन्हें म्यूनिसिपल इलेक्शन लड़ने दें.
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, “मेरे अब्बा आए और उन्होंने मेरा नॉमिनेशन फाइल करा दिया. हमने अलग तरह का कैंपेन किया था. हमने माइक वगैरह का इस्तेमाल नहीं किया. हमने हाथ से पर्चे बनाए, हम दोनों ने घर-घर जाकर वो पर्चे बांटे. मैं जीत गई.”
बानू मुश्ताक़ अपने पत्रकार बनने की कहानी भी बताती हैं.
वो कहती हैं, “एक बार फिर जब मैं उदास रहने लगी थी, तब मेरे पति मेरे लिए बहुत सारी क़िताबें और मैगज़ीन लेकर आते. एक बार वो लंकेश पत्रिका लेकर आए. लंकेश पत्रिका पढ़कर मुझे महसूस हुआ कि वो कुछ अलग है और इसमें मैं भी लिख सकती हूं.”
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि उन्होंने इस्लाम और महिलाओं से जुड़े एक विषय पर एक आर्टिकल लिखकर लंकेश पत्रिका को भेजा था, जो उन्होंने छाप दिया.
इसके बाद उन्हें अलग-अलग मुद्दे पर लिखने के लिए कहा गया. बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि उन्होंने लंकेश पत्रिका के लिए 10 साल तक रिपोर्टिंग की.
शॉर्ट स्टोरी लिखना शुरु किया
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि रिपोर्टिंग के अनुभव के साथ उन्होंने शॉर्ट स्टोरीज़ लिखना शुरू कर दिया था. उनकी एक शॉर्ट स्टोरी कलेक्शन जब पब्लिश हुई, तो कर्नाटक साहित्य अकादमी से उसे बेस्ट बुक का अवॉर्ड मिला था.
इसके बाद एक पत्रकार ने इंटरव्यू के दौरान उनसे सवाल किया कि मुसलमान औरतों को मस्जिद जाने का अधिकार नहीं है, इस बारे में क्या वो आंदोलन करेंगी.
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, “मैंने उनसे बोला कि कोई ज़रूरत नहीं है, मुसलमान औरत को मज़हब की ओर से कोई पाबंदी नहीं है, वो मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ सकती हैं. अरब देशों में ये रिवाज़ है. कुछ दक्षिण एशियाई देशों में मुस्लिम महिला को मस्जिद जाने का अधिकार नहीं है. ये बस मुस्लिम समाज की पितृसत्तात्मक पाबंदी है.”
बानू मुश्ताक़ का कहना है कि इससे कुछ लोग नाराज़ हो गए और उनके सामाजिक बहिष्कार की घोषणा की. ये सब तीन महीने तक चला.
‘बुकर के लिए शॉर्टलिस्ट होना ही काफी था’
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बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि उनके लिए बुकर प्राइज़ के लिए शॉर्टलिस्ट होना ही काफी था.
वो कहती हैं, “मुझे कोई कॉन्फ़िडेंस नहीं था. सोचा था कि लंदन आए हैं, तो थोड़ा घूम-फिर लेंगे. मैं रिलैक्स मोड में थी. लेकिन सोशल मीडिया पर कर्नाटक के लोगों में मुझे एक क्रेज़ नज़र आया. लोग कॉमेंट कर रहे थे कि ‘बुकर लाना ही है’.”
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, “मुझे लगा कि अगर मैं बुकर अवॉर्ड के बगै़र वापस गई, तो मेरी ख़ैर नहीं. उसके बाद मैंने पांच-छह दिन पहले एक स्पीच तैयार की. अवॉर्ड स्वीकार करने की स्पीच, मैं उसकी प्रैक्टिस करते-करते वहां गई.”
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि भारतीय साहित्य और ख़ासकर कन्नड़ साहित्य में बहुत संभावना है, मगर एक्सपोज़र की कमी है. वो कहती हैं कि क्षेत्रीय साहित्य को ग्लोबल लेवल पर ले जाने की ज़रूरत है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित