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इसराइल ने इसी महीने 13 जून को ईरान पर हमला किया था और तब से दोनों देशों के बीच वार-पलटवार जारी रहा.
दोनों देशों की लड़ाई में सबसे अहम मोड़ तब आया जब अमेरिका ने 22 जून को ईरान के तीन न्यूक्लियर साइट्स फ़ोर्दो, नतांज़ और इसफ़हान पर हमला किया.
अमेरिका इससे पहले भी इसराइल की मदद कर रहा था लेकिन ख़ुद इस युद्ध में शामिल नहीं हुआ था. इस बात की पहले से ही आशंका थी कि ईरान मध्य-पूर्व में मौजूद अमेरिका के सैन्य ठिकानों को निशाना बना सकता है.
सोमवार की रात नौ बजे क़तर ने अपना हवाई क्षेत्र यात्री विमानों के लिए बंद करने की घोषणा की. इसके बाद ख़बर आई कि ईरान क़तर की राजधानी दोहा में स्थित अमेरिकी एयर बेस पर हमला करने वाला है.
रात के 10 बजे ईरान ने दोहा में अमेरिकी एयर बेस पर हमला कर दिया. ईरान ने दोहा में अल-उदैद एयर बेस पर हमला किया लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे कमज़ोर हमला बताया.
ट्रंप ने ट्रूथ सोशल पर अपनी एक पोस्ट में कहा, ”ईरान का हमला अप्रत्याशित नहीं था. मैं ईरान को धन्यवाद देता हूँ कि उसने हमले की सूचना पहले दे दी थी. इसी कारण किसी की न तो जान गई और न ही कोई ज़ख़्मी हुआ.”
लड़ाई इसराइल और ईरान में शुरू हुई थी लेकिन इसमें जल्द ही अमेरिका शामिल हो गया और आख़िर में क़तर का इलाक़ा भी चपेट में आ गया.
इसीलिए कहा जाता है कि मध्य-पूर्व में अमेरिका की मौजूदगी इस क़दर है कि दो देशों की जंग दो देशों तक सीमित नहीं रहेगी बल्कि पूरे इलाक़े को चपेट में ले लेगी.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, अमेरिकी बॉम्बर्स ने ईरान के अंडरग्राउंड न्यूक्लियर साइट्स पर 30,000-पाउंड बंकर बस्टर गिराया था. इसके बाद ट्रंप ने ईरान में सत्ता परिवर्तन की भी बात कही थी.
इसराइल ने तो ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई को मारने तक की धमकी दी थी. हालांकि अब युद्धविराम की बात अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप कर रहे हैं. वहीं ख़ामेनेई ने कहा है कि ईरान न तो किसी पर हमला करेगा और न ही किसी के हमले को स्वीकार करेगा.
ईरान को पड़ोसी देशों से भी क्यों उलझना होगा?
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अमेरिका का अल उदैद एयर बेस क़तर की राजधानी दोहा के बाहरी इलाक़े में 24 हेक्टेयर में फैला है. समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, मध्य-पूर्व में यह अमेरिका का सबसे बड़ा एयर बेस है.
यहाँ 10 हज़ार अमेरिकी सैनिक हैं. यह यूएस सेंट्रल कमांड का हिस्सा है. यहां से अमेरिकी सेना पश्चिम में मिस्र से लेकर पूर्व में कज़ाख़्स्तान तक अपना ऑपरेशन चला सकती है. ईरान ने इसी एयर बेस पर सोमवार रात हमला किया था.
ईरान के इस हमले के बाद ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि जंग का दायरा कहीं बढ़ न जाए. ईरानी हमले की निंदा करते हुए क़तर के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता डॉ माजिद अल अंसारी ने कहा कि यह क़तर की संप्रभुता, हवाई क्षेत्र, अंतरराष्ट्रीय नियम और संयुक्त राष्ट्र चार्टर का उल्लंघन है.
अंसारी ने कहा, ”क़तर इस हमले का जवाब देने का अधिकार रखता है. क़तर ने ईरानी मिसाइलों को बीच में मार गिराया. इस तरह के हमले से पूरे इलाक़े में अस्थिरता बढ़ेगी. जब इसराइल ने ईरान पर हमला किया था तो क़तर पहला देश था, जिसने इसकी निंदा की थी.”
क़तर में अमेरिकी एयर बेस पर हमले को लेकर ईरानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता इस्माइल बक़ाएई ने कहा, ”ईरान ने क़तर में अमेरिकी एयर बेस अल-उदैद पर हमला आत्मरक्षा में किया था. अमेरिका ने 22 जून को बेवजह ईरानी इलाक़े और हमारी राष्ट्रीय अखंडता पर हमला किया था. इसी के जवाब में हमने यूएन चार्टर के आर्टिकल 51 के तहत हमला किया. यह हमला आत्मरक्षा में था और क़तर के साथ हमारी कोई समस्या नहीं है.”
यानी ईरान ने स्पष्ट कर दिया है कि वह आत्मरक्षा में गल्फ में स्थित अमेरिकी सैन्य ठिकानों पर हमला कर सकता है.
अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी केवल क़तर में ही नहीं है बल्कि मध्य-पूर्व के कई देशों में है. दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पश्चिम एशिया अध्ययन केंद्र में प्रोफ़ेसर अश्विनी महापात्रा कहते हैं कि ईरान को युद्ध केवल अमेरिका और इसराइल से नहीं लड़ना है बल्कि अमेरिका के सैन्य ठिकाने ईरान के कई पड़ोसी देशों में भी हैं.
‘प्रासंगिकता का संकट’
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प्रोफ़ेसर महापात्रा कहते हैं, ”गल्फ़ में ज़्यादातर देशों के साथ प्रासंगिकता का संकट है. इनके साथ लेजिटिमिसी का ख़तरा है. यानी यहाँ के शासक डरे रहते हैं कि शासन की प्रासंगिकता कब तक रहेगी. ये आंतरिक ख़तरों से भी घिरे रहते हैं और पड़ोस में कुछ होता है तो उससे भी डरे रहते हैं.”
”इसीलिए यहाँ के लगभग सभी देशों ने अमेरिका के साथ द्विपक्षीय समझौता किया है. ऐसे में ईरान के साथ कोई भी पंगा होगा तो अमेरिका इन्हें बचाएगा. जब ईरान की जंग इसराइल से होगी तो अमेरिका भी इसमें शामिल होगा और आख़िरकार गल्फ़ के जिन देशों में अमेरिकी सैन्य ठिकाने हैं, वो भी शामिल हो जाएंगे.”
प्रोफ़ेसर महापात्रा कहते हैं, ”अब क़तर, बहरीन, कुवैत, यूएई, ओमान और सऊदी अरब में अमेरिका के सैन्य ठिकाने हैं तो ईरान इन्हें टारगेट करेगा. एक डर यह भी रहता है कि इन हमलों में सैन्य बेस से बाहर कोई मिसाइल या बम ना गिर जाए. युद्ध के दौरान तो ऐसा होना आम बात है.”
”ऐसे में ईरान को अपने पड़ोसी देशों से भी उलझना होगा. जैसे क़तर ने कहा कि ईरान ने उसकी संप्रभुत्ता का उल्लंघन किया है. क़तर भले अमीर देश है लेकिन वो ईरान से युद्ध नहीं लड़ सकता है. क़तर और ईरान में अच्छे संबंध रहे हैं. जब सऊदी अरब ने यमन पर हमला किया था तो क़तर ईरान के साथ था.”
क़तर में अमेरिकी एयरबेस पर ईरानी हमले की जितनी कड़ी आलोचना सऊदी अरब ने की है, उतनी क़तर ने भी नहीं की है.
सऊदी अरब के विदेश मंत्रालय ने क़तर में अमेरिकी एयर बेस पर ईरानी हमले की आलोचना करते हुए कहा है, ”क़तर के ख़िलाफ़ ईरान की आक्रामकता अंतरराष्ट्रीय नियमों, अच्छे पड़ोसी के सिद्धांतों का खुला उल्लंघन है और यह किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं है. हम इसे किसी भी परिस्थिति में सही नहीं ठहरा सकते हैं.”
प्रोफ़ेसर महापात्रा कहते हैं कि सऊदी अरब इसलिए ज़्यादा कड़ी आलोचना कर रहा है क्योंकि उसे भी ईरान का डर है कि कहीं उसके यहाँ के अमेरिकी सैन्य ठिकाने को न निशाना बना दे.
कुछ विश्लेषक यह भी मानते हैं कि अमेरिका की विश्वसनीयता पहले से ही गिरी हुई थी लेकिन इसराइल और ईरान के मामले में राष्ट्रपति ट्रंप का जो रुख़ रहा, उससे अमेरिका की विश्वसनीयता और नीचे चली गई है और इसका असर मध्य-पूर्व में भी साफ़ दिखेगा.
अमेरिका की विश्वसनीयता
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गोनुल तोल तुर्की की हैं और मिडल ईस्ट इंस्टिट्यूट में टर्किश प्रोग्राम की डायरेक्टर हैं. गोनुल तोल ने लिखा है, ”दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप गल्फ़ गए. ट्रंप ने यहाँ आकर कहा कि वह ट्रेड और निवेश चाहते हैं न कि जंग. ट्रंप ने कहा कि ईरान के साथ उसके परमाणु कार्यक्रम को लेकर वार्ता चल रही है और 15 जून तक इस वार्ता के परिणाम का इंतज़ार करना चाहिए. अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि इसके पहले वह नहीं चाहते हैं कि इसराइल हमला करे. इस मामले में ट्रंप ने नेतन्याहू को चेतावनी भी दी थी.”
गोनुल तोल कहती हैं, ”अमेरिका की ख़ुफ़िया सर्विस ने भी बताया था कि ईरान परमाणु हथियार नहीं बना रहा है और 2003 में स्थगित किए गए परमाणु कार्यक्रम को ख़ामेनेई फिर से शुरू नहीं कर रहे हैं. 12 जून को कहा गया कि अमेरिका और ईरान बातचीत जारी रखेंगे.”
”इसके बावजूद 13 जून को इसराइल ने ईरान पर हमला कर दिया. फिर ट्रंप ने कहा कि अमेरिका युद्ध में शामिल नहीं होगा. ट्रंप ने कहा कि वह डिप्लोमैसी चाहते हैं लेकिन दो घंटे बाद आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई को मार देने की धमकी दी. इसके बाद ट्रंप एक बार फिर पीछे हटे और कहा कि दो हफ़्ते बाद फ़ैसला करेंगे कि अमेरिका ईरान के ख़िलाफ़ युद्ध में शामिल होगा या नहीं. लेकिन इसके अगले ही दिन अमेरिका युद्ध में शामिल हो गया.”
गोनुल तोल कहती हैं, ”या तो अमेरिकी राष्ट्रपति की सेहत ठीक नहीं है या तो उन्हें नेतन्याहू ने अंधेरे में रखा. चाहे जो भी हो अमेरिका की विश्वसनीयता इस हद तक नीचे कभी नहीं गिरी थी. मेरा मानना है कि इस इलाक़े को तत्काल ‘पोस्ट-अमेरिकन’ माइंडसेट में आ जाना चाहिए, जिसकी तैयारी वहां अरसे से चल रही है.”
सऊदी अरब में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद कहते हैं, ”हर अरब देश में अमेरिका की फ़ौज मौजूद है. पूरे गल्फ़ में 70 हज़ार अमेरिकी सैनिक हैं. इनके पास एक्स्ट्रा टेरिटोरियल राइट हैं. यानी इन पर वहाँ के नियम-क़ानून लागू नहीं होते हैं. अमेरिका के इन देशों में सैन्य ठिकाने हैं और इनके पास पूरा अधिकार है कि इसे कैसे हैंडल करें. इसमें कोई अरब देश अमेरिका को रोक नहीं सकता है. ज़ाहिर है कि इसराइल का ड्रोन जॉर्डन से होकर ही आ रहा है. जॉर्डन की ये ज़िम्मेदारी थी कि इन ड्रोन्स को रोकें. कई ड्रोन तो जॉर्डन में ही गिर जाते हैं.”
मध्य-पूर्व में क़तर के अलावा अमेरिकी सैन्य ठिकाने
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यहाँ अमेरिकी नेवी फिफ्थ फ्लीट का मुख्यालय है. समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, अमेरिका ने इस सैन्य ठिकाने को गल्फ़, लाल सागर, अरब सागर की ज़िम्मेदारी दी है और कुछ इलाक़े हिन्द महासागर के भी हैं.
कुवैत में अमेरिका के कैंप अरिफ़जान सैन्य ठिकाने के अलावा अली अल सालेम एयर बेस है. यह एयर बेस इराक़ी सीमा से होते हुए 40 किलोमीटर में फैला हुआ है. कुवैत के उत्तर-पश्चिम में कैंप बैरिंग सैन्य ठिकाना है. इसे अमेरिका ने 2003 में इराक़ के साथ युद्ध के दौरान बनाया था.
अल दहाफ़्रा एयर बेस यूएई की राजधानी अबू धाबी के दक्षिण में स्थित है. यह यूएई के एयर फ़ोर्स की साझेदारी में है. यह अमेरिका का अहम एयर फोर्स हब माना जाता है. इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ लड़ाई में इस बेस की अहम भूमिका रही थी. दुबई के जेबेल अली पोर्ट को औपचारिक रूप से सैन्य बेस नहीं माना जाता है लेकिन इसे मध्य-पूर्व में अमेरिकी नेवी का लार्जेस्ट पोर्ट ऑफ कॉल कहा जाता है.
पश्चिमी इराक़ के अनबार प्रांत में अइन अल असद एयर बेस अमेरिका की मौजूदगी है. व्हाइट हाउस के मुताबिक़ अमेरिका यहां इराक़ी सुरक्षाबलों का समर्थन करता है और नेटो मिशन में योगदान देता है. 2020 में ईरान ने इस बेस पर मिसाइल हमला किया था. इसके जवाब में अमेरिका ने ईरानी जनरल क़ासिम सुलेमानी को मार दिया था. इसके अलावा उत्तरी इराक़ के अर्द्ध स्वायत्त इलाक़ा कुर्दिस्तान में इरबिल एयर बेस है. यहां अमेरिका के गठबंधन सैनिक ट्रेनिंग और युद्धाभ्यास करते हैं. कांग्रेसल रिपोर्ट के अनुसार, यहाँ से अमेरिका ख़ुफ़िया सूचना को भी साझा करता है.
व्हाइट हाउस के एक पत्र के अनुसार, 2024 में सऊदी अरब में अमेरिकी सैनिकों की संख्या 2321 थी. ये सैनिक सऊदी सरकार के साथ मिलकर काम करते हैं. इनमें से कुछ सैनिक रियाद से क़रीब 60 किलोमीटर दूर प्रिंस सुल्तान एयर बेस पर रहते हैं. इस एयर बेस को अमेरिकी आर्मी एयर डिफेंस एसेट से मदद मिलती है.
जॉर्डन में मुवाफ़ाक़ अल सलाती एयर बेस है, जो यूएस एयर फोर्स सेंट्रल 332 एयर विंग का हिस्सा है. यह जॉर्डन की राजधानी अम्मान से 100 किलोमीटर दूर अज़राक़ में है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित