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साल 1948 में जब इसराइल की स्थापना हुई, उस वक्त तुर्की के बाद ईरान, इसराइल को मान्यता देने वाला दूसरा मुस्लिम बहुल देश बना. उस दौर में इसराइल और ईरान के रिश्ते दोस्ताना थे, लेकिन बाद में हालात बिल्कुल बदल गए और दोनों एक-दूसरे के दुश्मन बन गए.
बीते 13 जून को इसराइल ने एक बार फिर ईरान पर हमला किया. इसराइल ने ईरान के कई सैन्य और परमाणु ठिकानों को निशाना बनाया, जिनमें तेहरान, नतांज़ और इस्फ़हान शामिल हैं.
इसराइल ने इस अभियान को ‘ऑपरेशन राइज़िंग लायन’ नाम दिया. जवाबी हमले में ईरान ने भी इसराइल के शहरों पर ड्रोन और बैलिस्टिक मिसाइलें दागीं.
मौजूदा हालात यह है कि दोनों तरफ से हमले लगातार जारी हैं और फिलहाल इनके थमने के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं. ऐसे में इस रिपोर्ट में समझते हैं कि आख़िर कभी दोस्त रहे इसराइल और ईरान के बीच दुश्मनी इतनी कैसे बढ़ गई.
वो दौर जब दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्ते थे
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इसराइल और ईरान के संबंध 1979 तक काफी सौहार्दपूर्ण थे. उस दौरान अयातुल्लाह ख़ुमैनी की अगुवाई में इस्लामिक क्रांति के बाद आंदोलनकारियों ने ईरान की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया था.
हालांकि, ईरान ने फ़लस्तीन के विभाजन की उस योजना का विरोध किया था, जिसकी वजह से 1948 में इसराइल राज्य का गठन हुआ. इसके बावजूद तुर्की के बाद ईरान इसराइल को मान्यता देने वाला दूसरा मुस्लिम बहुल देश बना.
उस समय ईरान, पहलवी वंश के शाहों की ओर से शासित एक राजतंत्र था और मध्य-पूर्व में अमेरिका का प्रमुख सहयोगी माना जाता था. यही कारण था कि इसराइल के संस्थापक और पहले प्रधानमंत्री डेविड बेन-गुरियन ने अपने अरब पड़ोसियों की नाराज़गी के बावजूद ईरान से दोस्ती कायम करने की कोशिश की और उसे सफलतापूर्वक निभाया.
लेकिन 1979 में अयातुल्लाह ख़ुमैनी की क्रांति ने शाह की सत्ता को उखाड़ फेंका और एक इस्लामी गणराज्य की स्थापना की. ख़ुमैनी ने खुद को दुनिया के ‘पीड़ितों का रक्षक’ बताया और अमेरिका के साथ-साथ उसके सहयोगी इसराइल के ‘साम्राज्यवाद’ को ख़ारिज करना अपनी वैचारिक बुनियाद बनाया.
ख़ुमैनी की सरकार ने इसराइल से सारे संबंध तोड़ लिए. इसराइली नागरिकों के पासपोर्ट को वैध मानना बंद कर दिया और तेहरान स्थित इसराइली दूतावास को ज़ब्त कर उसे फ़लस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (पीएलओ) को सौंप दिया. उस समय पीएलओ, अलग फ़लस्तीन राष्ट्र की मांग को लेकर इसराइल के ख़िलाफ़ संघर्ष की अगुवाई कर रहा था.
कैसे दोनों के बीच दुश्मनी गहराती गई
इसे जानने के लिए बीबीसी मुंडो ने इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप सेंटर में ईरान प्रोग्राम के निदेशक अली वेज से बातचीत की थी.
अली वेज ने बताया कि इसराइल के लिए दुश्मनी, नई ईरानी सरकार की बुनियादी नीतियों में शामिल थी. इसकी एक वजह यह थी कि सरकार में शामिल कई नेताओं ने फ़लस्तीनियों के साथ लेबनान जैसी जगहों पर गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण लिया था और उसमें भाग भी लिया था. उनके मन में फ़लस्तीनियों के लिए गहरी सहानुभूति थी.
वेज के मुताबिक़, नया ईरान खुद को एक इस्लामी ताकत के रूप में प्रस्तुत करना चाहता था. इसी वजह से उसने फ़लस्तीनी मुद्दे को उठाया, जिसे अधिकतर अरब मुस्लिम देशों ने उस वक्त पीछे छोड़ दिया था.
इस तरह ख़ुमैनी ने फ़लस्तीनी मुद्दे पर अपना दावा जताना शुरू कर दिया. इसके बाद तेहरान में फ़लस्तीन समर्थकों के बड़े-बड़े प्रदर्शनों का आयोजन आम बात हो गई. इन प्रदर्शनों को सरकार का पूरा समर्थन हासिल था.
वेज बताते हैं कि इसराइल में ईरान के लिए असली दुश्मनी 1990 के दशक तक शुरू नहीं हुई थी, क्योंकि उस दौर में इसराइल के लिए सबसे बड़ा ख़तरा सद्दाम हुसैन का इराक था.
इतना ही नहीं, उस समय इसराइल उन मध्यस्थों में से एक था जिसने तथाकथित ‘ईरान-कॉन्ट्रा’ डील को संभव बनाया था. यह एक गुप्त कार्यक्रम था जिसके ज़रिए अमेरिका ने 1980 से 1988 के बीच ईरान को पड़ोसी इराक के ख़िलाफ़ युद्ध में इस्तेमाल के लिए हथियार दिए थे.
लेकिन समय के साथ इसराइल ने ईरान को अपने अस्तित्व के लिए एक बड़े ख़तरे के रूप में देखना शुरू कर दिया.
इसराइल-ईरान का छाया युद्ध
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वेज बताते हैं कि ईरान को एक और बड़ी क्षेत्रीय शक्ति, सऊदी अरब का भी सामना करना पड़ा. ईरान मुख्य रूप से फ़ारसी और शिया बहुल है, जबकि अरब जगत ज़्यादातर सुन्नी आबादी वाला है. ईरान की सरकार को यह एहसास हुआ कि उसके विरोधी देश किसी दिन उस पर हमला कर सकते हैं. इसी आशंका की वजह से उसने एक रणनीतिक योजना पर काम शुरू किया.
इसके बाद ईरान से गठबंधन करने वाले संगठनों का एक नेटवर्क तैयार हुआ. इन संगठनों ने अपने-अपने हितों के अनुसार सशस्त्र कार्रवाई को अंजाम दिया. अमेरिका और यूरोपीय संघ की नज़र में आतंकी घोषित किया गया लेबनान का हिज़बुल्लाह इनमें सबसे प्रमुख है. आज ईरान का तथाकथित ‘एक्सिस ऑफ रेज़िस्टेंस’ लेबनान, सीरिया, इराक और यमन तक फैला हुआ है.
इसराइल चुप नहीं बैठा. उसने ईरान और उसके सहयोगी गुटों पर हमले किए. ये हमले अक्सर तीसरे देशों में हुए, जहां ईरान अपने समर्थक सशस्त्र संगठनों को धन और संसाधन मुहैया कराता है.
ईरान और इसराइल के बीच इस टकराव को ‘छाया युद्ध’ कहा गया है, क्योंकि दोनों देशों ने अधिकतर मौकों पर अपनी कार्रवाई की आधिकारिक पुष्टि किए बिना एक-दूसरे को निशाना बनाया.
ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर इसराइल की नज़र
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ईरानी परमाणु कार्यक्रम को रोकना और उसे परमाणु हथियार संपन्न बनने से रोकना, इसराइल का प्रमुख लक्ष्य है.
इसराइल ईरान की इस दलील को ख़ारिज करता है कि उसका परमाणु कार्यक्रम केवल नागरिक उद्देश्यों के लिए है. व्यापक तौर पर माना जाता है कि इसराइल ने अमेरिका के सहयोग से ‘स्टक्सनेट’ नामक एक कंप्यूटर वायरस विकसित किया था, जिसने इस सदी के पहले दशक में ईरान की परमाणु सुविधाओं को गंभीर नुकसान पहुंचाया.
ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम के प्रमुखों और कुछ अन्य वरिष्ठ वैज्ञानिकों पर हुए हमलों के लिए इसराइली खुफिया एजेंसी को ज़िम्मेदार ठहराया है.
इनमें सबसे उल्लेखनीय घटना 2020 में मोहसिन फखरीज़ादेह की हत्या थी. हालांकि, इसराइली सरकार ने कभी भी इन हत्याओं में अपनी संलिप्तता को स्वीकार नहीं किया है.
मौजूदा हमलों की शुरुआत में भी इसराइल के प्रधानमंत्री ने कहा कि ये हमले ईरान के ‘परमाणु कार्यक्रम’ से जुड़े ठिकानों को निशाना बनाकर किए जा रहे हैं. नेतन्याहू ने आगे कहा, “अगर ईरान को नहीं रोका गया, तो वह बहुत कम समय में परमाणु हथियार बना सकता है. यह एक साल में हो सकता है, कुछ महीनों में या इससे भी पहले. यह इसराइल के अस्तित्व के लिए एक प्रत्यक्ष और गंभीर ख़तरा है.”
फिलहाल, दोनों देश एक-दूसरे पर लगातार हमले कर रहे हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित