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उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाति को अहम फैक्टर माना जाता है.
राज्य का समाजिक ढांचा इतनी विविधताओं से भरा और जटिल है कि किसी भी चुनावी समीकरण को समझने के लिए जातीय परतों को पलटना ज़रूरी है.
लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट का हवाला देकर राज्य सरकार ने जाति आधारित रैलियों पर रोक लगाने का फ़ैसला लिया है.
यह फ़ैसला न केवल राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय बना बल्कि सामाजिक और क़ानूनी दृष्टि से भी बेहद अहम माना जा रहा है.
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सरकार के आदेश के मुताबिक़, ”राजनीतिक उद्देश्यों से आयोजित जाति आधारित रैलियां समाज में जातीय संघर्ष को बढ़ावा देती हैं. ये लोक व्यवस्था और राष्ट्रीय एकता के विपरीत है. इन पर उत्तर प्रदेश राज्य में पूर्ण प्रतिबंध रहेगा.”
हाई कोर्ट का आदेश
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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 16 सितंबर को राज्य सरकार को आदेश दिया था कि पुलिस रिकॉर्ड और सार्वजनिक स्थलों पर जाति के उल्लेख पर रोक लगाई जाए.
अदालत ने माना कि यह प्रथा भेदभाव को बढ़ावा देती है और संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है.
हाई कोर्ट के निर्देशों के बाद कार्यवाहक मुख्य सचिव दीपक कुमार ने सभी अपर मुख्य सचिवों, प्रमुख सचिवों, पुलिस महानिदेशक, अपर पुलिस महानिदेशक (क़ानून-व्यवस्था), पुलिस कमिश्नरों, सभी ज़िला मजिस्ट्रेट और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षकों को आदेश जारी किए हैं.
इसमें स्पष्ट किया गया कि एफ़आईआर और गिरफ़्तारी मेमो में भी अभियुक्त की जाति नहीं लिखी जाएगी, बल्कि माता-पिता का नाम दर्ज किया जाएगा.
हालांकि यह एससी और एसटी मामलों में प्रभावी नहीं होगा. ऐसे मामलों को नए प्रावधानों से अलग रखा गया है.
राजनीतिक समीकरणों पर असर
1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के मंडल कमीशन लागू करने के फ़ैसले के बाद बीजेपी ने इसकी काट के तौर पर राम जन्म भूमि आंदोलन को आगे बढ़ाया.
धर्म बनाम जाति या कहें मंडल बनाम कमंडल की राजनीति में बीजेपी को सफलता मिलती रही. लेकिन इसके अगले कुछ सालों बाद तक उत्तर प्रदेश में बीजेपी का ग्राफ़ नहीं बढ़ सका.
हालाँकि, 2014 में बीजेपी ने हिंदुत्व और सामाजिक इंजीनियरिंग के फ़ॉर्मूले से फिर से रफ़्तार पकड़नी शुरू की.
सवर्णों के अलावा चुनावी नतीजों में भी बीजेपी ने गैर यादव ओबीसी को एकसाथ लाने में कामयाबी हासिल की.
सवर्ण यानी ऊंची जातियों के अलावा राज्य में ओबीसी वर्ग में कई जातियां है, जिनका राजनीतिक वजूद भी है. यादव, कुर्मी, शाक्य, कुशवाहा, निषाद, मौर्य, इनके अपने नेता भी हैं.
सवर्ण में भी ठाकुर, ब्राह्मण, कायस्थ और वैश्य जैसी जातियां हैं. ठाकुरों में इस वक़्त मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ निर्विवाद नेता हैं.
प्रदेश सरकार के इस आदेश के लागू होने के बाद किसी भी राजनीतिक दल के जाति आधारित रैलियों या सम्मेलनों पर रोक लग जाएगी.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राज्य में बीजेपी की सहयोगी निषाद पार्टी, सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) और अपना दल की राजनीति पर भी इस आदेश का कुछ असर हो सकता है.
प्रदेश मे मंत्री और निषाद पार्टी के नेता संजय निषाद ने सरकार के इस फैसले की आलोचना की है,निषाद ने मीडिया से कहा , ”हम कह रहे हैं कि सरकार को इस मसले पर पुनर्विचार करना चाहिए. सरकार को न्यायालय में जाना चाहिए. जिन जातियों का अभी तक उत्पीड़न हुआ है ,उनको लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात कहने का हक है.”
सुभासपा का नेतृत्व अभी ओम प्रकाश राजभर के पास है और इस समुदाय का समर्थन भी पार्टी को मिलता रहा है.
अपना दल के समर्थकों में कुर्मी जाति को अहम माना जाता है. हालाँकि, अपना दल के नेता इसे सबकी पार्टी बता रहे हैं. इसकी स्थापना सोनेलाल पटेल ने की थे. मौजूदा केंद्र सरकार में अनुप्रिया पटेल राज्य मंत्री हैं, वहीं उनके पति आशीष पटेल प्रदेश में मंत्री हैं.
लेकिन अपना दल के संगठन में ऊंचे पद पर काम कर रहे एक नेता ने नाम ना बताने की शर्त पर कहा कि उनकी पार्टी जाति आधारित नहीं है, बल्कि मीडिया ने इसको इस तरह प्रस्तुत किया है, अगर अपना दल का कोई कार्यकर्ता सम्मेलन करे, तो उसको कैसे रोका जा सकता है.
इस रोक पर सपा ने क्या कहा?
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सरकार के इस निर्देश पर समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने एक्स पर लिखा, “और 5000 सालों से मन में बसे जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए क्या किया जाएगा? और वस्त्र, वेशभूषा और प्रतीक चिह्नों के माध्यम से जाति-प्रदर्शन से उपजे जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए क्या किया जाएगा?”
समाजवादी पार्टी लंबे समय से मुस्लिम और यादव के समीकरण के साथ चल रही है. साल 2024 में पार्टी ने पीडीए का नारा दिया और लोकसभा चुनाव में प्रदेश में सबसे ज़्यादा सीटें जीतीं.
समाजवादी पार्टी ने पीडीए का मतलब पिछड़ा दलित और अल्पसंख्यक बताया था. लेकिन समय-समय पर अखिलेश यादव अपने फ़ॉर्मूले में और सामाजिक तबकों को जोड़ते रहे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक़ बीजेपी की अयोध्या लोकसभा चुनाव में हार की एक बड़ी वजह सपा का पीडीए फॉर्मूला भी था.
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता मोहम्मद आज़म का कहना है, ”हमारी राजनीति दबे कुचले और मज़लूमों को हक़ दिलाने के लिए है.”
बसपा ने दलितों को एकजुट करके अपनी राजनीतिक पहचान बनाई और प्रदेश में मायावती चार बार मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन 2012 के बाद से मायावती राजनीतिक तौर पर कमज़ोर हो गई हैं.
वो 2024 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाईं. वहीं प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में एक विधायक है.
माना जाता रहा कि इससे पहले कांग्रेस भी ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम गठजोड़ के सहारे राजनीति करती रही है.
हालाँकि, अयोध्या में बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद मुस्लिम तबके ने कांग्रेस से दूरी बना ली और ब्राह्मण बीजेपी के साथ हो गया. बीएसपी के उदय से दलित भी कांग्रेस से दूर हो गया था.
इसलिए पार्टी लगातार कमज़ोर होती गई. अपवाद के तौर पर 2009 में पार्टी के 23 सांसद जीते लेकिन तब नरेंद्र मोदी की हिंदुत्व की राजनीति हावी नहीं हुई थी.
मोदी के आने के बाद 2019 में राहुल गांधी अपनी अमेठी सीट हार गए थे.
बीजेपी ने सवर्णों और अत्यंत पिछड़े वर्गों को केंद्र में रखकर अपना विस्तार किया. बीजेपी सोशल इंजीनियरिंग की बदौलत प्रदेश की सत्ता दूसरी बार हासिल करने में कामयाब रही है.
बीजेपी ने साल 2017 के विधानसभा चुनाव में केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश की कमान दी और अन्य दलों से भी पिछड़े वर्ग के नेताओं को पार्टी में शामिल किया था.
हालाँकि, बीजेपी के ओबीसी प्रकोष्ठ के अध्यक्ष और पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री नरेन्द्र कश्यप ने कहा, ”बीजेपी वर्ग की राजनीति करती है जाति की नहीं करती है. वैसे भी ये पूरा फ़ैसला कोर्ट का है.”
बीजेपी को हो सकता है फ़ायदा
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‘बीजेपी खुद को सबका साथ, सबका विकास’ की राजनीति करने वाली पार्टी बताती है. हालांकि, ज़मीनी स्तर पर वह भी जातीय समीकरण साधती है.
इस फ़ैसले का असर बीजेपी पर भी पड़ सकता है. सियासी गलियारों में माना जाता है कि बीजेपी चुनाव के दौरान कई ऐसे स्मारकों और प्रतीकों को लेकर चुनावी मैदान में उतरी, जिसका उसे सियासी फ़ायदा मिला है.
सुहेल देव के नाम पर बीजेपी ने प्रदेश के एक जाति के लोगों को अपने साथ जोड़ने का अभियान चलाया, इसमें उसको सफलता भी मिली है. सुहेल देव को बीजेपी ने प्रतीक के रूप में पेश किया और बताया किस तरह उन्होंने सलार मसूद ग़ाज़ी को हराया था.
वहीं महाराजा बिजली पासी के नाम पर भी सफ़ल सियासी प्रयोग किया है. 10 जून 2025 को प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बिजली पासी के नाम पर लखनऊ में स्मारक बनाने का एलान किया था.
बिजली पासी को पासी समाज अपने प्रतीक के तौर पर देखता है.12वीं शताब्दी में इनका अवध से बड़े इलाकों में राज था.
इसके अलावा भी बीजेपी ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल करती रही है.
कांग्रेस नेता अनिल यादव ने कहा, “समता मूलक समाज के लिए ज़रूरी है कि जातियाँ समाप्त हों, लेकिन जातियों को छुपाकर जातिवाद ख़त्म नहीं होगा, बल्कि इससे वर्चस्ववादी जातिवाद और बढ़ेगा. योगी सरकार इसी नक्शे-कदम पर चल रही है.”
उन्होंने कहा, ”क्या इसके बाद पूरे प्रदेश में पिछड़ों का उत्पीड़न बंद हो जाएगा? क्या दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा रुक जाएगी? क्या जाति-धर्म के नाम पर फ़र्ज़ी मुठभेड़ें बंद हो जाएँगी? सरकार जाति देखकर उत्पीड़न कर रही है, जाति देखकर संरक्षण दे रही है.”
लेकिन इस रोक से भाजपा को लाभ मिल सकता है क्योंकि विपक्ष खुलकर जातीय वोट बैंक को खुले तौर पर सक्रिय नहीं कर पाएगा. पिछले चुनावों में यह स्पष्ट दिखा कि जातीय सम्मेलन कितने प्रभावी रहे हैं.
सरकार के इस फ़ैसले पर विपक्षी राजनीतिक दलों की दलील आलोचनात्मक है. लेकिन विशेषज्ञों की राय बंटी है.
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में प्रोफ़ेसर आरएन त्रिपाठी कहते हैं, ”संविधान में कहा गया है, हम भारत के लोग, तो हमें संविधान में जो मौलिक अधिकार मिले हैं, वो नागरिक होने की वजह से है. संविधान की भावना धर्म और जाति नहीं है. ऐसे में जातिगत सम्मेलन भारत के विकास में बाधक हैं.”
हालाँकि, ये तर्क कई लोग नहीं मान रहे हैं.
दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने कहा, ”उत्तर प्रदेश सरकार को चलाने वाली पार्टी का काम हर मौके का राजनीतिक इस्तेमाल करने का ही है. जबकि हाई कोर्ट का आदेश जाति व्यवस्था को समाप्त करने का पक्षधर लग रहा है, क्योंकि जाति और जातिवाद केवल काग़ज़ों में नहीं है. विचार और संस्था के रूप में जड़ जमाए हुए है, अदालत ने डॉक्टर आंबेडकर को फ़ैसले में उद्धृत किया है.”
उनका कहना है, “कोर्ट ने जाति को ख़त्म करने के लिए अंतर्जातीय संस्थाएं बनाने पर जोर दिया है.”
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उत्तर प्रदेश की राजनीति
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प्रदेश की राजनीति में पिछले दो दशक में मायावती ने साल 2007 में अपने दम पर सर्व समाज का नारा देकर सत्ता हासिल की थी. बसपा को 206 सीटों पर जीत मिली थी.
इसके बाद कमोबेश अखिलेश यादव सबकी बात करके और मायावती सरकार के ख़िलाफ बने माहौल पर चुनाव जीते और 2012 में मुख्यमंत्री बने थे.
बीजेपी ने 2017 और 2022 में सरकार बनाई है. इन दोनों चुनाव में हिंदुत्व का और सोशल इंजीनियरिंग का ख़ास ख्याल किया गया था.
2014 के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद बीजेपी ने पूरा ध्यान प्रदेश पर लगाया और अमित शाह को प्रदेश में चुनाव जीतने की कमान थमा दी.
अमित शाह ने पहले अपनी पार्टी के पिछड़ी जाति के नेताओं के साथ धीरे-धीरे जाति आधारित पार्टियों के साथ गठबंधन किया.
इसमें कट्टर हिंदुत्व की इमेज ने सहारा दिया और बीजेपी ने पहली बार प्रदेश में 312 सीटें जीती थीं. 2022 में बीजेपी की सीटें पहले से कम हुई लेकिन तब भी पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और आदित्यनाथ दोबारा मुख्यमंत्री बने.
उत्तर प्रदेश में 2027 में विधानसभा चुनाव है. समाजवादी पार्टी पीडीए के भरोसे राजनीतिक दांव चल रही है. बीजेपी सोशल इंजीनियरिग के दम पर है.
कांग्रेस अभी एसपी के साथ है. मायावती 9 अक्तूबर की रैली में अपने पत्ते खोलने की तैयारी कर रही हैं.
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