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भारतीय मुक्केबाज़ी, ख़ासतौर से महिला मुक्केबाज़ी में काफ़ी समय से अच्छी ख़बर का इंतजार किया जा रहा था.
इस इंतजार को जैस्मीन लंबोरिया और मीनाक्षी हुड्डा ने लिवरपूल में हुई महिला विश्व बॉक्सिंग चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीतकर ख़त्म कर दिया है.
जैस्मीन ने पेरिस ओलंपिक के हताशा भरे प्रदर्शन से उबरकर 57 किलोग्राम वर्ग में और मीनाक्षी ने 48 किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण पदक जीता.
जैस्मीन ने फ़ाइनल में पेरिस ओलंपिक की रजत पदक विजेता पोलैंड की जूलिया स्जेरेमेटा को और मीनाक्षी ने पेरिस ओलंपिक की कांस्य पदक विजेता कज़ाख़स्तान की नाजिम काइजेबे को हराया.
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स्वर्ण पदक जीतकर भारत का गौरव बढ़ाने वाली दोनों मुक्केबाज़ अलग-अलग माहौल से निकलकर आई हैं.
जैस्मीन को मुक्केबाज़ी विरासत में मिली है और वो देश के महान मुक्केबाज़ हवा सिंह के परिवार से ताल्लुक रखती हैं. वहीं मीनाक्षी ऐसे परिवार से आती हैं, जिसका खेलों से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं रहा है.
जैस्मीन को भी आसानी से प्रवेश नहीं मिला
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यह सही है कि वह 1966 और 1970 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले हवा सिंह के परिवार से आती हैं. यही नहीं उनके दो चाचा परमिंदर और संदीप दोनों ही अपने समय के राष्ट्रीय चैंपियन रहे हैं. पर फिर भी उन्हें बाबा चंद्रभान लंबोरिया से बॉक्सिंग में भाग लेने की अनुमति आसानी से नहीं मिल सकी.
जैस्मीन की मां जोगिंदर कौर बताती हैं कि बाबा चंद्रभान लड़कियों को मुक्केबाज़ी में भेजने के पक्षधर नहीं थे. इसलिए बाबा को मनाने के लिए उन्होंने चाचाओं को राजी किया और वह अपने पिता को अनुमति देने के लिए तैयार करने में सफल हो गए.
जैस्मीन के घर से मात्र चार किलोमीटर की दूरी पर भिवानी मुक्केबाज़ी क्लब है. अनुमति मिलने पर जैस्मीन को मुक्केबाज़ बनने में कोई दिक्कत नहीं हुई.
पिता जयवीर कहते हैं कि भिवानी के इस क्लब को भले ही आज अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाज़ों की नर्सरी कहा जाता है. पर इस क्लब में 2002 में महिला मुक्केबाज़ों का प्रशिक्षण शुरू होने से पहले तक राज्य में मुक्केबाज़ रेवाड़ी और हिसार से ही निकला करते थे. पर अब भिवानी ने चैंपियनों की लंबी फ़ेहरिस्त खड़ी कर दी है.
मां के लिए जैस्मीन हमेशा रहेगी चीनू
मां जोगिंदर कौर कहती हैं कि बेटी के स्वर्ण पदक जीतने की खबर आते ही घर में बधाई देने वालों का तांता लग गया. इन बधाई देने वालों में देश में मुक्केबाज़ी की अलख जगाने वाले विजेंदर भी शामिल रहे. वह जैस्मीन के चाचा परमिंदर के साथ वाले मुक्केबाज़ रहे हैं और वह 2008 में बीजिंग ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर यह सम्मान पाने वाले पहले भारतीय बने थे.
जोगिंदर कौर कहती हैं , ”मेरी बेटी भाग्यशाली है, जो हरियाणा में पैदा हुई है. यहां उसे बॉक्सर बनने की सभी सुविधाएं मिल गई. बधाई देने वाले मुझे बता रहे थे कि वह अब विश्व चैंपियन बन गई है. पर मैंने उनसे कहा कि वह हमारे लिए तो हमेशा चीनू ही रहेगी. घर वाले उसे इसी नाम से बुलाते हैं. वह हमारी भाग्यशाली संतान है.”
मां ने कहा कि जैस्मीन के यह पदक जीतने के अलावा मेरे लिए वह दिन भी गर्व वाला था, जब वह भारतीय सेना की मिलिट्री पुलिस में शामिल हुई थी.
जैस्मीन ने पेरिस की हताशा से उभारा
जैस्मीन वैसे तो 57 किग्रा वर्ग की ही बॉक्सर रही है. वह पेरिस ओलंपिक में भाग लेना चाहती थी. पर उसके वर्ग में परवीन हुड्डा थी, इस कारण वह 60 किग्रा वर्ग में चली गई. पर परवीन को ओलंपिक से एक माह पहले निलंबित कर दिया गया. इससे जैस्मीन को 57 किग्रा वर्ग में भाग लेने का मौका मिल गया. लेकिन शुरुआती दौर में हारने से वह बेहद निराश हो गई.
जैस्मीन हारने के बाद भी अपनी ख़ामियों को समझने में कामयाब रही. उसने 2022 से अपने साथ काम करने वाले कोच छोटे लाल से कहा कि मैं मजबूत बॉक्सर बनना चाहती हूं. मैं चाहती हूं कि मेरा जब भी पंच पड़े तो उसका उसे फ़ायदा मिले. छोटे लाल कहते हैं कि वह मैरीकॉम की तरह ही मानसिक मजबूती वाली मुक्केबाज़ है. वह जानती है कि किन क्षेत्रों में काम करने की जरूरत है.
मीनाक्षी आती हैं साधारण परिवार से
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रोहतक के रुरकी किलोरी गांव से ताल्लुक रखने वाली मीनाक्षी बहुत ही साधारण परिवार से आती है. उनका इस ऊंचाई तक पहुंचना बहुत मायने रखता है. उनकी मुक्केबाज़ बनने की कहानी बहुतों को इस तरफ लाने की प्रेरणा बन सकती है.
मीनाक्षी के पिता श्रीकृष्ण ऑटो चलाते हैं. पिता की कमाई इतनी नहीं थी कि वह बेटी को मुक्केबाज़ बना सकते थे. पर उनकी बेटी को मुक्केबाज़ बनाने के इरादे बुलंद थे. इसमें घर से मात्र 400 मीटर दूरी पर स्थित शहीद बतून सिंह स्टेडियम में बॉक्सिंग अकादमी चलाने वाले विजय हुड्डा ने बहुत मदद की.
अकादमी घर के करीब होने का मीनाक्षी को भरपूर फ़ायदा मिला. वह दिन में तीन बार अकादमी जाकर नौ घंटे अभ्यास किया करती थी और इस लगन का ही उसे परिणाम मिला है.
मीनाक्षी को ताने भी ख़ूब मिले
मीनाक्षी मुक्केबाज़ी सीखने वाली साथी लड़कियों के साथ अकादमी चली जाती थी. इस तरह से ही उसका इस खेल के प्रति लगाव बना. लेकिन जब एक बार बॉक्सर बन जाने के बाद उसे अन्य लड़कियों की तरह सफलताएं नहीं मिलीं तो लोगों के ताने भी सुनने को मिले.
मीनाक्षी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर करीब चार साल पहले पहली सफलता मिलने पर कहा था, ”कुछ गांव वाले कहा करते थे कि देखो बाकी सब लड़कियां पदक जीत रहीं हैं और तुम तो समय बिताने के लिए प्रतियोगिताओं में जाया करती हो और खाली हाथ लौटती हो. लड़कियों को ऐसे बाहर नहीं घूमना चाहिए.”
अब मीनाक्षी की सफलता ने सभी को अपना फ़ैन बना दिया है. गांव में आलोचना करने वाले भी उसकी तारीफों के बुल बांधने में लगे हुए हैं.
माता-पिता का त्याग भी रहा है अहम
पिता ने बेटी को बॉक्सर बनाने के लिए ख़ुद भी ख़ूब मेहनत की है. वह कहते हैं, ”मैं ऑटो चलाकर अगर दिनभर में 200 रुपए भी कमाता था, तो उसमें से सौ रुपए निकालकर अपनी बेटी की खुराक के लिए रख देता था.”
बेटी की तैयारियों में इससे भी पूर्ति नहीं होने पर पिता ने सुबह खेतों में काम करना शुरू कर दिया था. साथ ही मां भी इसमें पीछे नहीं रहीं. वह घर में मौजूद कुछ भेंसों का दूध निकालकर गांव में उसे बेचने जाती थी.
मां-बाप के इन प्रयासों की कद्र को मीनाक्षी ने अच्छे से समझा और अब अपने घर वालों के जीवन-यापन को काफी सहज बना दिया है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.