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जम्मू-कश्मीर के अखल में पिछले 12 दिनों से सुरक्षा बलों और चरमपंथियों के बीच मुठभेड़ चल रही है. साल 2021 के बाद यह सबसे लंबी चलने वाली मुठभेड़ है.
श्रीनगर से क़रीब 90 किलोमीटर दूर कुलगाम ज़िले के अखल गाँव में एक अगस्त से मुठभेड़ शुरू हुई थी. स्थानीय ज़बान में इस जगह को ‘अक्हाल’ कहते हैं. इस ऑपरेशन के दौरान यह इलाक़ा ‘अखल’ नाम से चर्चित हो गया है. अखल, कुलगाम ज़िले का निहायत ख़ूबसूरत गाँव है. यह हरे-भरे घने जंगलों से घिरा है. इन्हीं जंगलों में मुठभेड़ चल रही है.
इस मुठभेड़ में अब तक सेना के दो जवानों और एक चरमपंथी की मौत हुई है. कई सुरक्षाकर्मी घायल हुए हैं.
एक अगस्त को सेना ने सोशल मीडिया ‘एक्स’ पर चरमपंथियों के ख़िलाफ़ ‘ऑपरेशन अखल’ और संयुक्त अभियान के बारे में जानकारी दी थी. दो अगस्त को सेना ने एक दूसरे बयान में बताया कि रात भर फ़ायरिंग चलती रही. सेना ने घेरे को और सख़्त किया है.
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इस बीच, कुलगाम में तैनात एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया कि चरमपंथियों के ख़िलाफ़ अखल में अभियान जारी है.
इस अभियान में सेना, जम्मू-कश्मीर पुलिस और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (सीआरपीएफ़) शामिल हैं. चरमपंथियों को खोजने के लिए इस अभियान में ड्रोन, हेलीकॉप्टर और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है.
हाल की सबसे लंबी मुठभेड़
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इससे पहले, साल 2021 में पुंछ में नौ दिनों तक चरमपंथियों के ख़िलाफ़ अभियान चलाया गया था. उस अभियान में सेना के दो अफ़सरों समेत नौ जवानों की मौत हुई थी. हालाँकि, उस अभियान में किसी चरमपंथी की मौत हुई थी या नहीं, इसका पता नहीं चल पाया था.
साल 2023 में कश्मीर घाटी के गाडूल में सुरक्षाबलों और चरमपंथियों के बीच सात दिनों तक मुठभेड़ चली थी. उस मुठभेड़ में दो अफ़सर, दो जवान और दो चरमपंथी मारे गए थे.
ये दोनों मुठभेड़ घने, दुर्गम और ऊँचे पहाड़ों में हुई थी.
साल 2025 के मार्च महीने में जम्मू क्षेत्र के कठुआ में 48 घंटों तक सुरक्षाबलों और चरमपंथियों के बीच मुठभेड़ चली थी. इस मुठभेड़ में एक अफ़सर समेत चार पुलिसकर्मी और दो चरमपंथी मारे गए थे. यह मुठभेड़ भी जंगलों के बीच हुई थी.
क्या बीते कुछ सालों में चरमपंथ ने रणनीति बदली?
साल 2019 के बाद जम्मू-कश्मीर में सक्रिय चरमपंथियों ने अपनी गतिविधियों का दायरा जंगलों की तरफ़ बढ़ा दिया है. हालाँकि, इससे पहले चरमपंथी रिहायशी बस्तियों में रहते थे. अब ऐसा बहुत ही कम हो रहा है.
हाल के दिनों में सुरक्षाबलों ने एक बड़ा अभियान श्रीनगर से क़रीब 30 किलोमीटर दूर दाछीगाम के जंगलों में चलाया था. यहाँ तीन चरमपंथियों को मारने का दावा किया गया. गृह मंत्री अमित शाह ने मारे गए इन तीन चरमपंथियों को पहलगाम हमले के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है.
पहलगाम की बैसरन घाटी में चरमपंथियों ने 25 पर्यटकों और एक स्थानीय व्यक्ति को मारा था. यह घटना भी जंगलों के बीच हुई थी.
अखल एनकाउंटर के संबंध में तीन दिन पहले कश्मीर ज़ोन के इंस्पेक्टर जनरल विधि कुमार बिरदी से बीबीसी हिंदी की बात हुई थी. उन्होंने बताया था कि घने जंगल और दुर्गम पहाड़ियों के कारण इस अभियान में ज़्यादा समय लग रहा है.
चरमपंथी जंगल में क्यों पनाह ले रहे हैं?
इसमें कोई शक़ नहीं है कि बीते कुछ सालों से चरमपंथी जम्मू-कश्मीर के जंगलों को अपनी गतिविधियों के लिए ज़्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं.
सवाल यह है कि जंगलों का इस्तेमाल करने से चरमपंथियों को क्या हासिल होता है?
जानकार बताते हैं कि जंगल दरअसल चरमपंथियों को लंबे समय तक मुठभेड़ में टिके रहने का मौक़ा देता है.
जम्मू-कश्मीर पुलिस के पूर्व एडिशनल डायरेक्टर जनरल (एडीजीपी) मुनीर ख़ान बताते हैं, “जंगल वारफ़ेयर बीते दो सालों से बढ़ गया है. आतंकवादी जंगलों में बैठना इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि उनको वहाँ कई तरह के फ़ायदे मिलते हैं. वह आसानी से पकड़ में नहीं आते हैं.”
उनके मुताबिक, ”जंगल में होने की वजह से आतंकवादियों को शुरुआती फ़ायदा रहता है. सुरक्षाबल उन तक जल्दी नहीं पहुँच पाते. वे इस कोशिश में रहते हैं कि सुरक्षाबलों को ज़्यादा से ज़्यादा नुक़सान पहुँचा सकें.”
मुनीर ख़ान बताते हैं, “पहले क्या होता था कि आतंकवादी आबादी वाले इलाक़ों में रहते थे. उन्हें बहुत जल्द पकड़ लिया जाता था. जंगलों में वे काफ़ी दिन गुज़ार पाते हैं. आख़िरकार उनको मारा जाता है लेकिन सुरक्षाबलों को उन्हें मारने के लिए काफ़ी मेहनत करनी पड़ती है.”
जम्मू-कश्मीर पुलिस के पूर्व महानिदेशक शेषपाल वैद कहते हैं कि जंगल वारफ़ेयर सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है. उनका यह भी कहना था कि यह पाकिस्तान की एक नई रणनीति है.
जानकारों का मानना है कि साल 2019 के बाद जम्मू-कश्मीर में चरमपंथ के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर अभियान चलाया गया. इसकी वजह से चरमपंथियों ने रिहायशी इलाक़ों में रहना बंद कर दिया.
कितना मुश्किल है जंगलों-पहाड़ों में अभियान चलाना?
मुनीर ख़ान का कहना है कि जंगल वारफ़ेयर कोई आसान मामला नहीं है.
वे कहते हैं, ” बीते सालों में आपने देखा कि किन सख़्त और दुर्गम पहाड़ियों में हमारे जवानों को आतंकवादियों के साथ मुक़ाबला करना पड़ा है. ऐसा नहीं है कि हमारी सेना को जंगल वारफ़ेयर की ट्रेनिंग नहीं है लेकिन कभी-कभी उन्हें नुक़सान उठाना पड़ता है. पहाड़ी इलाक़ों में अभियान चलाना ख़ुद में एक चुनौती है.”
अखल में लोगों का क्या हाल है?
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बारह दिनों से लगातार इस इलाक़े में रात-दिन फ़ायरिंग और धमाकों की आवाज़ें सुनी जा रही हैं. इसकी वजह से गाँव वालों में ख़ौफ़ है. गाँव के ज़्यादातर लोग घर छोड़कर दूसरी जगहों पर जा चुके हैं.
अखल गाँव के चौकीदार ग़ुलाम हसन ने बीबीसी हिंदी को फ़ोन पर बताया, “रात-दिन धमाकों और फ़ायरिंग से तो कोई भी ख़ौफ़ज़दा हो सकता है. हम रात-दिन यह सब कुछ देख और सुन रहे हैं. छोटे बच्चे-बच्चियाँ काफी ज़्यादा डरते हैं.”
”गाँव के ज़्यादातर लोग दूसरी जगहों पर चले गए हैं. रात को सोना मुश्किल हो जाता है. ऊपरी इलाक़ों में गुज्जर समुदाय के लोग रहते हैं. वे अपने माल-मवेशियों को बाहर खुले में छोड़ नहीं सकते. जंगल में एनकाउंटर चल रहा है. उनके लिए घास का इंतज़ाम करना मुश्किल हो गया है.”
ग़ुलाम हसन बताते हैं, “इन दिनों यहाँ नाशपाती, सेब और दूसरी अन्य फ़सलों के उतारने का वक़्त है. कुछ फ़सलें बीते दस दिनों में उतारनी थीं लेकिन किसान ऐसा नहीं कर पाए. जब गोलियाँ और धमाके की घन-गरज हो तो अपने बागों में कौन कैसे जा सकता है.”
वह कहते हैं, ”अब एक नई दिक़्क़त पैदा हो गई है. क़रीब तीन सौ बंदर हमारे बागों में घुस गए हैं. वे हमारी फ़सल को नुक़सान पहुँचा रहे हैं. इन हालात में बागों से बंदरों को भगाने का जोख़िम कौन उठा सकता है?”
गाँव के लम्बरदार महबूब उल हक़ से भी बीबीसी हिंदी ने फ़ोन पर बात की.
उन्होंने बताया, ” बीते 11 दिनों से स्कूल बंद पड़े हैं. बागों की फ़सल ख़राब हो गई है. बीते दिनों खान-पान की चीज़ें खत्म हो गई थीं. दवाइयाँ ख़त्म हो रही थीं. हालाँकि, अब चीज़ें मिलने लगी हैं.”
महबूब उल हक़ के मुताबिक़, ”गाँव की 90 प्रतिशत आबादी गाँव छोड़कर चली गई है.” उनका कहना था कि अखल गाँव में पहली बार मुठभेड़ हो रही है. हमने आज तक कभी ऐसा नहीं देखा है.
एक दूसरे स्थानीय व्यक्ति ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि ग्रामीणों की मुश्किलें कई हैं. सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि यहाँ का हायर सेकंडरी स्कूल बंद पड़ा है. बच्चे-बच्चियाँ स्कूल नहीं जा पा रहे हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.