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25 मई, 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने आख़िरकार तय कर लिया कि अमृतसर में मौजूद स्वर्ण मंदिर से सिख चरमपंथियों को हटाने के लिए सेना की मदद ली जाएगी.
इंदिरा गाँधी ने सेनाध्यक्ष जनरल एएस वैद्य को तलब कर उनसे कहा कि वो सावधान की मुद्रा में रहें क्योंकि पंजाब का प्रशासन वहाँ के हालात से निपटने के लिए किसी भी समय उनकी मदद माँग सकता है.
इंदिरा गाँधी के प्रधान सचिव रहे पी. सी. एलेक्ज़ेंडर अपनी क़िताब ‘थ्रू द कॉरीडोर्स ऑफ़ पावर’ में लिखते हैं, “वैद्य ने प्रधानमंत्री को आश्वस्त किया कि ताक़त का अधिकतम प्रदर्शन किया जाएगा लेकिन उसका इस्तेमाल न्यूनतम होगा.”
“इंदिरा ने बार-बार जनरल वैद्य से कहा कि आपके ऑपरेशन से मंदिर को और ख़ासकर हरमंदिर साहिब को किसी तरह की क्षति नहीं पहुँचनी चाहिए. मैं यहाँ बिल्कुल साफ़ कर देना चाहता हूँ कि 25 मई को प्रधानमंत्री ने जिस सैनिक ऑपरेशन की अनुमति दी थी और जिसके बारे में वैद्य ने 27 मई को हमसे चर्चा की थी, उसे सिर्फ़ गुरुद्वारों की घेराबंदी कर चरमपंथियों को बाहर निकालने तक सीमित रखा गया था.”
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जनरल वैद्य ने इंदिरा को अपना बदला हुआ प्लान बताया
चार दिन बाद जनरल वैद्य ने इंदिरा गाँधी से तुरंत मुलाक़ात का समय माँगा .
29 मई को हुई इस बैठक में उन्होंने प्रधानमंत्री को अपनी परिवर्तित योजना और उसके कारणों के बारे में विस्तार से बताया. इस बैठक में रामनाथ काव (भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख), पी.सी. एलेक्ज़ेंडर और रक्षा राज्य मंत्री के पी सिंहदेव भी मौजूद थे.
जनरल वैद्य ने बताया, “घेराबंदी की योजना दूसरे सभी गुरुद्वारों पर तो लागू की जा सकती है लेकिन स्वर्ण मंदिर पर नहीं. स्वर्ण मंदिर में अचानक घुसकर कम से कम ताक़त का इस्तेमाल करते हुए चरमपंथियों पर क़ाबू पाया जा सकता है. इस ऑपरेशन को सेना के कमांडो इतनी तेज़ी से अंजाम देंगे कि चरमपंथियों को सोचने का समय नहीं मिलेगा और मंदिर के भवन को भी कोई नुक़सान नहीं पहुंचेगा.”
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इंदिरा ने जनरल वैद्य से पूछे कई कठिन सवाल
पी. सी. एलेक्ज़ेंडर लिखते हैं, “योजना में अचानक हुए इस परिवर्तन से प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी अचंभे में आ गईं. वो मंदिर के अंदर ताक़त के इस्तेमाल से काफ़ी परेशान दिखीं और उन्होंने वैद्य से कई सवाल पूछे.”
“उन्होंने पूछा अगर चरमपंथी कड़ा प्रतिरोध करते हैं तो आप उससे कैसे निपटेंगे? वो ये भी जानना चाहती थीं कि चरमपंथियों पर क़ाबू पाने में कितना समय लगेगा? और तब आप क्या करेंगे जब चरमपंथी उस जगह में शरण ले लेंगे जहाँ गुरु ग्रंथ साहिब को रखा गया है?”
“उन्होंने ये भी सवाल किया कि घेरेबंदी की योजना को इतनी जल्दी क्यों छोड़ा जा रहा है? इंदिरा गाँधी ने इस ऑपरेशन में होने वाले संभावित नुक़सान पर भी जनरल वैद्य से सवाल पूछे. उन्होंने जनरल वैद्य से ये भी जानना चाहा कि क्या इस तरह के ऑपरेशन से भारतीय सेना में सिख जवानों की वफ़ादारी और अनुशासन पर कोई असर पड़ेगा?”
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जनरल सुंदरजी की इंदिरा गाँधी से मुलाक़ात
चार दिन बाद पश्चिमी कमान के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल सुंदरजी ने दिल्ली आकर इंदिरा गाँधी से मुलाक़ात की. ऐसा ज़ाहिर होता है कि इस मामले में इंदिरा गाँधी ने जनरल वैद्य से ज़्यादा पश्चिमी कमान के प्रमुख जनरल सुंदरजी की सलाह पर भरोसा किया.
उस समय अमृतसर के ज़िला मजिस्ट्रेट और बाद में पंजाब के मुख्य सचिव रहे रमेश इंदर सिंह अपनी क़िताब ‘टरमॉएल इन पंजाब बिफ़ोर एंड आफ़्टर ब्लू स्टार’ में लिखते हैं, “सुंदरजी ने तेज़ ‘ब्लिट्ज़’ की वक़ालत की, जिसे आजकल की भाषा में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कहा जाता है और राजनीतिक नेतृत्व ने उसे मान लिया.”
“सुंदरजी को इस ऑपरेशन के लिए खुली छूट दे दी गई क्योंकि एलेक्ज़ेंडर के शब्दों में ‘इंदिरा गाँधी जनरलों के पेशेवर फ़ैसलों का सम्मान करती थीं.’ बाद में सुंदरजी की मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई उनकी ऑटोबायोग्राफ़ी में उनकी पत्नी वाणी ने लिखा- ‘जब सुंदरजी इंदिरा से मिलकर दो बजे रात को घर लौटे तो उन्होंने मुझसे सिर्फ़ इतना कहा, ‘इट इज़ अ टफ़ वन’.”
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चेन ऑफ़ कमांड का उल्लंघन
सुंदरजी ने दिल्ली में इंदिरा गाँधी से एक से अधिक बार मुलाक़ात की.
इसकी पुष्टि करते हुए उस समय मिलिट्री ऑपरेशन्स के अतिरिक्त महानिदेशक लेफ़्टिनेंट जनरल वी के नायर अपनी क़िताब ‘फ़्रॉम फ़टीग्स टू सिवीज़’ में लिखते हैं, “जनरल सुंदरजी और उनके चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ जनरल दयाल को कई बार प्रधानमंत्री कार्यालय से बाहर निकलते हुए देखा गया जबकि वैद्य का कहीं अता-पता नहीं था. राजनीतिक नेतृत्व चेन ऑफ़ कमांड को धता बताते हुए ऑपरेशनल कमांडरों से सीधे संपर्क में था.”
“भारत के सैन्य इतिहास में ये दूसरी बार था जब राजनीतिक नेतृत्व ने सेनाध्यक्ष की अनदेखी कर जूनियर जनरल से सलाह मशविरा किया था और दोनों बार सेना को इसके बुरे परिणाम झेलने पड़े थे. पहली बार यह 1962 में चीन से लड़ाई के समय हुआ था, जब लेफ़्टिनेंट जनरल बी एम कौल को सेनाध्यक्ष के ऊपर तरजीह दी गई थी. दूसरी बार ऐसा ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान हुआ था.”
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सेना के कई अफ़सरों ने किया ऑपरेशन ब्लू स्टार का विरोध
उस ज़माने में रक्षा मामलों से जुड़े एक थिंक टैंक के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल सी एन सोमन्ना हुआ करते थे.
उनका मानना था कि सेना को सिर्फ़ पेशेवर कारणों से पंजाब से अलग रखना चाहिए. मेजर जनरल वी के नायर का भी मानना था कि पंजाब एक धार्मिक-राजनीतिक समस्या है, इसका समाधान सैन्य कार्रवाई से नहीं हो सकता. उन्होंने एक से ज़्यादा बार जनरल वैद्य के सामने अपने विचार रखे थे लेकिन उनकी तरफ़ से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई थी.
जनरल नायर अपनी क़िताब में लिखते हैं, “किसी भी संकट पर कोई प्रतिक्रिया न देना जनरल वैद्य की शख़्सियत की ख़ासियत थी. मुझे लगा कि इतने नाज़ुक समय पर एक ग़लत व्यक्ति सेना का नेतृत्व कर रहा था. वो बिना सवाल किए अपने राजनीतिक नेतृत्व का आदेश मानने वाले शख़्स थे.”
“फ़ील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ जैसा उनका क़द और हिम्मत भी नहीं थी, जिन्होंने अप्रैल, 1971 में प्रधानमंत्री के बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई में कूदने के आदेश को ये कहकर अस्वीकार कर दिया था कि सेना अभी इसके लिए तैयार नहीं है. शायद इसके पीछे ये कारण भी रहा हो कि वो सबसे वरिष्ठ जनरल एस के सिन्हा को सुपरसीड कर भारत के 13वें सेनाध्यक्ष बने थे.”
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‘रक्षा मंत्रालय और सेनाध्यक्ष मात्र दर्शक की भूमिका में’
जब ये लगभग तय हो गया कि पंजाब में सेना को भेजा ही जाएगा तो लेफ़्टिनेंट जनरल वी के नायर ने मई, 1984 में कर्नल जी एस बाल और कर्नल एस पी कपूर की मदद से एक वैकल्पिक प्लान बनाया था.
इसमें सेना को ऑपरेशनल फ़ोर्स की बजाए एक मनोवैज्ञानिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाना था. इस रणनीति का उद्देश्य लोक-मत को अपने पक्ष में करना था.
रमेश इंदर सिंह लिखते हैं, “सुंदरजी ने रक्षा मंत्रालय के प्रस्ताव और सेना के चेन ऑफ़ कमांड की अनदेखी करते हुए प्रधानमंत्री से सीधे संपर्क किया. रक्षा मंत्रालय और सेनाध्यक्ष मात्र दर्शक की भूमिका में खड़े रह गए.”
जनरल नायर अपनी क़िताब में लिखते हैं, “सेना के अंदर इस विषय पर फ़रवरी, 1984 से ही चर्चा शुरू हो गई थी. सारी सूचनाएं जमा करने और उनके आकलन के बाद मेरी बंद कमरे में सेनाध्यक्ष से मुलाक़ात हुई थी. मैंने उन्हें साफ सलाह दी थी कि वो प्रधानमंत्री से मिलकर उन्हें सेना के विचारों से अवगत कराएं. इसके पीछे एक वजह ये भी थी कि सेना के लिए पंजाब बहुत महत्वपूर्ण था.”
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सेना भेजने के अलावा अन्य विकल्पों पर विचार
क्या पंजाब में सेना भेजने के अलावा सरकार ने किसी और विकल्प पर विचार किया था?
उस समय सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक रहे बीरबल नाथ ने अपनी क़िताब ‘द अनडिस्क्लोज़्ड पंजाब इंडिया बिसीज़्ड बाई टेरर’ में रहस्योद्घाटन किया था कि “भिंडरावाले से निपटने के लिए सरकारी हल्कों में इसराइल की तरह एक योजना पर विचार हुआ था.”
“इसका लब्बोलुआब ये था कि भिंडरावाले पर दूर से एक शार्पशूटर निशाना लगाए, लेकिन जिस केंद्रीय एजेंसी को इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी, उसने सामने आने का बहाना बनाते हुए इससे अपना हाथ खींच लिया था.”
बीरबल नाथ ने इसके लिए पैसों के बदले एक विदेशी व्यक्ति की मदद लेने का प्रस्ताव भी किया था, लेकिन इसकी अनुमति बहुत देर से आई थी.
रॉ के पूर्व अतिरिक्त निदेशक जीबीएस सिद्धू ने बीबीसी से बातचीत करते हुए कहा था, “एक टॉप सीक्रेट हेलीबॉर्न ऑपरेशन पर बहुत गंभीरता से विचार किया गया था, जिसमें भिंडरावाले को स्वर्ण मंदिर में गुरु नानक निवास से अगवा किया जाना था. इसको ऑपरेशन ‘सन डाउन’ का नाम भी दिया गया था. लेकिन इसके पक्ष-विपक्ष पर विचार करने के बाद इंदिरा गाँधी ने इसकी अनुमति नहीं दी थी.”
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इंदिरा गाँधी का राष्ट्र के नाम संदेश
दो जून को रात आठ बजे से पहले सरकार के नियंत्रण वाली आकाशवाणी और दूरदर्शन केंद्रों ने अपने नियमित कार्यक्रम रोककर एलान किया कि प्रधानमंत्री साढ़े आठ बजे देश को संबोधित करेंगी.
मार्क टली और सतीश जैकब अपनी क़िताब ‘अमृतसर मिसेज़ गाँधीज़ लास्ट बैटल’ में लिखते हैं, “साढ़े आठ बजे का समय निकल गया लेकिन कोई संदेश प्रसारित नहीं हुआ. लगभग 45 मिनट देरी से सवा नौ बजे उनका प्रसारण शुरू हुआ.”
“उन्होंने अंतिम समय में अपने भाषण में कुछ परिवर्तन किए थे. उन्होंने सभी पंजाबवासियों से अपील की , ‘ख़ून मत बहाइए, नफ़रत बहाइए.’ लेकिन प्रधानमंत्री ने पहले ही तय कर लिया था कि वो, अगर ज़रूरी हुआ तो ख़ून बहाएंगी.”
इंदिरा गाँधी के स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने के क़दम का राजनीतिक जोख़म तो था ही, उनकी अपनी और उनके परिवार की सुरक्षा भी दांव पर थी.
मार्क टली और सतीश जैकब लिखते हैं, “राजीव गाँधी को पहले ही प्रधानमंत्री के सुरक्षा सलाहकारों ने बता दिया था कि वो अपने बेटे और बेटी को बोर्डिंग स्कूल से हटा लें. उनका कहना था कि बच्चों की सुरक्षा की गारंटी तभी दी जा सकती है, जब वो दिल्ली में प्रधानमंत्री निवास के अंदर ही रहें.”
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जनरल दयाल को बनाया गया राज्यपाल का सलाहकार
इस बीच 28 मई को ही पंजाब के राज्यपाल बी डी पांडे को इंदिरा गाँधी ने दिल्ली बुलवाकर बता दिया था कि सरकार पंजाब में सेना को बुला रही है. उनसे कहा गया कि वो इस बात को गुप्त रखें और इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक तक से इसकी चर्चा न करें.
दो जून को पांडे ने केंद्र सरकार के फ़ैसले की जानकारी पंजाब के मुख्य सचिव और गृह सचिव को दी. इसके बाद पश्चिमी कमान के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल को इस बारे में पत्र लिखा गया.
रमेश इंदर सिंह लिखते हैं, “इससे पहले कि सेना भेजने का पत्र जनरल सुंदरजी के पास पहुंचता लेफ़्टिनेंट जनरल आर एस दयाल को पंजाब के राज्यपाल का सुरक्षा सलाहकार नियुक्त कर दिया गया.”
“ये शायद पहला मौक़ा था कि सेना में काम कर रहे जनरल को कोई असैनिक ज़िम्मेदारी दी गई थी. उसी दिन जनरल दयाल ने पंजाब के पुलिस प्रमुख पी एस भिंडर के साथ एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया. लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया कि सेना स्वर्ण मंदिर के अंदर घुसने वाली है.”
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सेना के सर्वोच्च सेनापति को ऑपरेशन ब्लू स्टार की जानकारी नहीं
29 जून को मेरठ स्थित 9 इंफैन्ट्री डिवीज़न के सैनिक 300 मील का सफ़र तय करते हुए अमृतसर पहुँचना शुरू हो गए थे. वो आए तो थे स्थानीय प्रशासन की मदद करने लेकिन स्थानीय प्रशासन को इसकी आधिकारिक जानकारी नहीं थी.
तीन जून को स्वर्ण मंदिर परिसर को हो रही बिजली और पानी की सप्लाई को काट दिया गया. सेना के सर्वोच्च सेनापति होने के बावजूद राष्ट्रपति ज्ञानी जै़ल सिंह को ऑपरेशन ब्लू स्टार की कोई पूर्व सूचना नहीं दी गई.
उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मेमॉएर्स ऑफ़ ज्ञानी ज़ैल सिंह’ में लिखा, “मुझे ऑपरेशन ब्लू स्टार के बारे में विश्वास में नहीं लिया गया. मुझे इसके बारे में तब पता चला जब वो शुरू हो गया.”
पी. सी. एलेक्ज़ेंडर इसके दो कारण बताते हैं. वो लिखते हैं, “तब तक प्रधानमंत्री के उनसे ताल्लुक़ात इतने ख़राब हो चुके थे कि वो उनमें अपना विश्वास खो चुकी थीं. दूसरे उन्हें नुक़सान की गंभीरता का अंदाज़ा नहीं था.”
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राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह की नाराज़गी
ये सर्वविदित है कि इंदिरा गाँधी 30 मई को ज्ञानी ज़ैल सिंह से मिलने गई थीं और उन्होंने उनके साथ दो घंटे बिताए थे.
ज़ैल सिंह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “मैंने प्रधानमंत्री को भड़काने वाले हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ सचेत किया था और उन्हें सलाह दी थी कि बारीक रणनीति अपना कर बंदूकधारियों को मंदिर से बाहर निकालने की कोशिश करें.”
ज़ाहिर था कि राष्ट्रपति की बात नहीं मानी गई थी और उनके मुताबिक़ उन्हें ये आभास करा दिया गया था कि पुलिस कार्रवाई की योजना बनाई जा रही है जबकि 29 मई को ही सेना की 9 इंफैन्ट्री डिवीज़न अमृतसर पहुंच चुकी थी.
उन्होंने अपनी आत्मकथा में सवाल उठाया, “ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद मैंने उनसे पूछा कि इतने बड़े क़दम से पहले कम से कम वो मुझे सूचित तो कर सकते थे लेकिन इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था.”
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इंदिरा गाँधी ने प्रणब मुखर्जी का तर्क नहीं माना
दरअसल, पंजाब में सेना भेजने का फ़ैसला मई में हुई राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति की बैठक में ले लिया गया था.
तब प्रणब मुखर्जी ने इस बारे में अपने संदेह व्यक्त किए थे, लेकिन इंदिरा गाँधी ने ये कहते हुए उनकी बात नहीं मानी थी कि मुझे परिणामों के बारे में जानकारी है.
मुखर्जी ने अपनी क़िताब ‘द टरब्यूलेंट ईयर्स 1980-1996’ में लिखा था, “मैंने कैबिनेट कमेटी की बैठक में याद किया, पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद अहमद शाह अब्दाली ने जब स्वर्ण मंदिर के साथ कुछ गड़बड़ करने की कोशिश की तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने पड़े थे.”
“लेकिन इंदिरा गाँधी का जवाब था, ‘कभी-कभी इतिहास का तकाज़ा होता है कि ऐसे क़दम उठाए जाएं जो चाहे बाद में सही साबित न हों लेकिन उस समय वो सबसे उचित क़दम प्रतीत हों. इस फ़ैसले को टाला नहीं जा सकता’.”
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सेना और ज़िला प्रशासन के अधिकारियों की बैठक
तीन जून को सैनिक वर्दी में एक मोटरसाइकिल सवार अमृतसर के ज़िला मजिस्ट्रेट के दफ़्तर पहुंचा. उसके पास जिला मजिस्ट्रेट गुरदेव सिंह के लिए 9 इंफ़ैन्ट्री डिवीज़न के मेजर जनरल केएस बरार का एक डीओ पत्र था.
इस पत्र में बताया गया था जनरल बरार अमृतसर पहुंच चुके हैं और उन्होंने सेना की अलग-अलग इकाइयों और अर्धसैनिक बलों के कमांडर के रूप में कार्यभार सँभाल लिया है.
इस पत्र में ये भी लिखा गया था कि उन्होंने शाम पांच बजे वरिष्ठ प्रशासनिक और सैन्य अधिकारियों की बैठक बुलाई है ताकि लोग एक दूसरे के बारे में जान सकें.
रमेश इंदर सिंह लिखते हैं, “हमने पहली बार ब्लू स्टार नाम तीन जून को शाम पांच बजे हुई इस बैठक में सुना. मैंने अमृतसर के डीएम का विधिवत कार्यभार नहीं संभाला था, लेकिन गुरुदेव सिंह छुट्टी पर जाने वाले थे, इसलिए निरंतरता बनाए रखने के लिए मैं उनके साथ इस बैठक में शामिल होने चला गया था. केएस बरार ने हमें उनको दी गई ज़िम्मेदारी के बारे में ब्रीफ़ किया. उन्होंने हमें ये भी बताया कि तीन जून को रात नौ बजे से पूरे राज्य में कर्फ़्यू लगा दिया जाएगा.”
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बरार और सीमा सुरक्षा बल के डीआईजी के बीच तकरार
इसी बैठक में जनरल बरार और सीमा सुरक्षा बल के डीआईजी जीएस पंधेर के बीच तकरार हो गई.
रमेश इंदर सिंह लिखते हैं, “बरार चाहते थे कि सेना के घुसने से पहले मंदिर के पास तैनात किए गए सीआरपीएफ़ और सीमा सुरक्षा बल के सैनिक चार-पांच जून की रात को परिसर के अंदर बनी क़िलेबंदी पर फ़ायर करें, ताकि चरमपंथी उस फ़ायर का जवाब दें जिससे पता चल सके उन्होंने कहाँ-कहाँ मोर्चेबंदी कर रखी है.”
“पंधेर ने बरार का आदेश मानने से ये कहते हुए इनकार कर दिया कि वो तब तक इसका पालन नहीं करेंगे, जब तक उन्हें इस बारे में लिखित आदेश नहीं मिलते. उनका ये भी तर्क था कि सीमा सुरक्षा बल के जवान तभी फ़ायरिंग करेंगे जब उनपर चरमपंथियों की तरफ़ से पहले फ़ायर आएगा. अपना आपा खोते हुए बरार चिल्लाए थे, ‘दिस इज़ म्यूटिनी’ यानी ‘ये विद्रोह है’ लेकिन इसका पंधेर पर कोई असर नहीं हुआ.”
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सेना और नागरिक प्रशासन में समन्वय नहीं
ज़ाहिर है जनरल बरार ने उनकी शिकायत अपने वरिष्ठ अफ़सरों से करते हुए पंधेर को हटाने की माँग की.
उधर पंधेर भी किसी जनरल के मातहत काम नहीं करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को वायरलेस संदेश भेजा कि उन्हें छुट्टी पर जाने की अनुमति दी जाए.
उस समय सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक बीरबल नाथ ने पंधेर को हटाने के अनुरोध का विरोध नहीं किया. बाद में पंधेर के ख़िलाफ़ जनरल बरार के मौखिक आदेश न मानने के लिए जाँच बैठाई गई.
उनके ख़िलाफ़ आरोप सिद्ध नहीं हो पाए और उन्हें पहले मणिपुर का पुलिस महानिदेशक और बाद में ब्यूरो ऑफ़ पुलिस रिसर्च एंड डेवेलपमेंट का महानिदेशक बनाया गया.
रमेश इंदर सिंह लिखते हैं, “नागरिक प्रशासन से सेना जिस तरह के सहयोग और समन्वय की उम्मीद कर रही थी, वो हमें बताए ही नहीं गए. जनरल के रवैये से साफ़ झलक रहा था कि उनमें अति आत्मविश्वास था, ज़मीनी परिस्थितियों की कोई समझ नहीं थी और वो ज़िला प्रशासन को साथ लेकर नहीं चलना चाहते थे.”
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सीआईडी के आकलन की अनदेखी
एसपी सीआईडी पंडित हरजीत सिंह का आकलन था कि मंदिर परिसर में 400-500 चरमपंथी हैं और अगर सेना परिसर में घुसती है तो वो (चरमपंथी) आख़िरी दम तक उनका मुक़ाबला करेंगे.
उन्होंने ये भी बताया कि चरमपंथियों के पास हथियारों की कमी नहीं है. हरजीत सिंह का ये भी आकलन था कि मंदिर परिसर के अंदर क़रीब 1500 तीर्थयात्री फंसे हुए हैं.
रमेश इंदर सिंह लिखते हैं, “लेकिन जनरल बरार ने इसको ये कहते हुए नकार दिया कि जब चरमपंथी हमारे काले भूतों (काली वर्दी पहने कमांडोज़) को देखेंगे, तो वो भाग खड़े होंगे. इतिहास बताता है कि जनरल बरार का आकलन पूरी तरह ग़लत साबित हुआ था.”
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