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सितंबर 2025 में यूरोपीय संघ की प्रमुख उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने स्पष्ट संकेत दिया था कि यूरोपीय संघ के 27 सदस्य देशों में बच्चों के सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लग सकता है क्योंकि इससे बच्चे कई तरह के खतरों का शिकार हो सकते हैं.
उधर, 10 दिसंबर 2025 को ऑस्ट्रेलिया 16 साल से कम उम्र के बच्चों के सोशल मीडिया इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला देश बन गया.
इसके तहत बच्चों के इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक, स्नैपचैट, टिकटॉक और एक्स जैसे प्लेटफ़ॉर्म पर अकाउंट बंद कर दिए गए हैं.
इस फ़ैसले के आलोचकों का कहना है कि इससे बच्चे अनियंत्रित प्लेटफ़ॉर्मों का इस्तेमाल शुरू कर सकते हैं.
मगर ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज़ का कहना है कि इससे बच्चों को खतरों का शिकार होने से बचाया जा सकता है.
कई दूसरे देशों के नेता इस फ़ैसले को ग़ौर से देख रहे हैं. इसलिए इस हफ़्ते दुनिया जहान में हम यही जानने की कोशिश करेंगे कि क्या ऑस्ट्रेलिया का सोशल मीडिया पर लगाया गया प्रतिबंध दुनिया भर में अपनाया जा सकता है?
सोशल मीडिया की लत
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2019 में कोविड महामारी के दौरान बच्चों और किशोरों के ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्मों के इस्तेमाल में भारी बदलाव आए. कई लोग इस बात से चिंतित हैं कि बच्चे ज़रूरत से ज्यादा समय ऑनलाइन बिता रहे हैं, जिससे उनके मानसिक विकास पर बुरा असर पड़ रहा है.
ऑस्ट्रेलिया के सोशल मीडिया क़ानून के लागू होने से पहले भी कई देशों में इस विषय पर बहस छिड़ चुकी थी. कई किशोरों की आत्महत्या को सोशल मीडिया के इस्तेमाल से जोड़ा गया.
वहीं यह चिंता भी रही है कि सोशल मीडिया पर बच्चों को आसानी से हानिकारक सामग्री मिल रही है. इन सब बातों से सरकारों पर दबाव बढ़ रहा है.
ऑस्ट्रेलिया की सिडनी यूनिवर्सिटी में डिज़िटल संस्कृति और संचार के प्रोफ़ेसर टेरी फ़्लीव का मानना है कि लोग चाहते थे कि सरकार इस विषय में कोई ठोस कदम उठाए.
“दुनियाभर में युवाओं में अवसाद बढ़ रहा है. कई अध्ययनों से यह सबूत मिलता है कि इसका एक कारण सोशल मीडिया की लत है. कम से कम यह तो ज़रूर पता चलता है कि दोनों के बीच संबंध है. अकादमिक दुनिया में इस मुद्दे पर वाद-विवाद हो रहा है.”
कई सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों पर अकाउंट खोलने के लिए किसी व्यक्ति की उम्र 13 साल से अधिक होनी पड़ती है. मगर कई आलोचकों की दलील है कि यह नियम सख़्ती से लागू नहीं किया जाता.
फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप प्लेटफ़ॉर्मों की मालिक कंपनी मेटा का कहना है कि वह बच्चों और किशोरों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए लगातार इस दिशा में काम कर रही है.
टेरी फ़्लीव के अनुसार अब जनता ऐसी दलीलों पर भरोसा नहीं करती. वह नहीं मानती कि ये कंपनियां अपने आपको नियंत्रित कर सकती हैं.
उनके अनुसार, “फ़ेसबुक ने लगभग 20 साल पहले ऐसे नियम बनाए थे, लेकिन अगर उन पर गंभीरता से अमल किया जाता तो आज यह क़ानून बनाने की नौबत नहीं आती.”

ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने पिछले साल के अंत में सोशल मीडिया नियंत्रण से जुड़े इस क़ानून की घोषणा की थी, जिसे 10 दिसंबर 2025 से लागू करने का फ़ैसला किया गया.
इस क़ानून के तहत सोशल मीडिया कंपनियां सोलह साल से कम उम्र के लोगों को अपने प्लेटफ़ॉर्म पर अकाउंट खोलने नहीं दे सकतीं और जिनकी उम्र सोलह से कम है, उनके मौजूदा अकाउंट डीएक्टिवेट करने होंगे.
इस क़ानून के पालन के लिए अगर कंपनियां वाजिब कदम नहीं उठातीं, तो उन पर तीन करोड़ तीस लाख डॉलर का दंड लगाया जा सकता है. हालांकि वाजिब कदम क्या होंगे, यह स्पष्ट नहीं किया गया है.
मगर क्या ऑस्ट्रेलिया में इस बात को लेकर भी चिंता है कि सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगने के बाद बच्चे दूसरे अनियंत्रित प्लेटफ़ॉर्मों का इस्तेमाल करने लगेंगे?
टेरी फ़्लीव का कहना है कि निश्चित ही इस बात को लेकर भी चिंता है. संबंधित सोशल मीडिया कंपनियां आश्वासन दे रही हैं कि वे इस क़ानून के पालन के लिए ज़रूरी कदम उठा रही हैं, मगर यह रातों-रात नहीं होगा.
किसी की उम्र 16 साल से अधिक है या नहीं, इसकी पुष्टि के लिए पासपोर्ट या फ़ेशियल स्कैन का इस्तेमाल किया जा सकता है. साथ ही अकाउंट खोलते समय उस व्यक्ति की ओर से दी गई जानकारी से भी इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
टेरी फ़्लीव का मानना है कि इससे सोलह साल से कम उम्र के लोगों को सोशल मीडिया से पूरी तरह दूर नहीं रखा जा सकेगा. उसी तरह जैसे धूम्रपान पर प्रतिबंध को भी सही मायने में लागू नहीं किया जा सका.
इस क़ानून का एक उद्देश्य मां-बाप के हाथ मज़बूत करना है, ताकि वे अपने बच्चों को इसके बुरे नतीजों से अवगत करा सकें.
दरअसल सोशल मीडिया के प्रति असंतोष बढ़ रहा है. ग़ौरतलब बात यह है कि ऑस्ट्रेलिया की युवा आबादी में सोशल मीडिया का इस्तेमाल घट रहा है और यह रुझान आगे भी जारी रह सकता है.
ध्यान में रखने वाली बात यह भी है कि अब युवा टेक्स्ट आधारित प्लेटफ़ॉर्मों के बजाय वीडियो प्लेटफ़ॉर्मों की ओर मुड़ रहे हैं, जिनका ज़ोर उत्तेजक प्रतिक्रियाओं पर अधिक है.
डिज़िटल विकास
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लगभग बीस साल पहले माईस्पेस और ओर्कुट, मिक्सिट जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म लोकप्रिय थे.
लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में मीडिया और संचार विभाग की प्रोफ़ेसर सोनिया लिविंगस्टोन बताती हैं कि उस समय ज़्यादातर यूज़र म्यूज़िक कंपोज़िशन शेयर करते थे, जिसे सुरक्षित मनोरंजन के लिए इस्तेमाल किया जाता था.
लेकिन तब से अब तक सोशल मीडिया में बड़ा बदलाव आ चुका है. 2006 में फ़ेसबुक के आते ही वह ऑनलाइन गतिविधियों का एक प्रमुख ज़रिया बन गया. इसके बाद ट्विटर या एक्स आया, फिर 2010 में तस्वीरों पर आधारित ऐप इंस्टाग्राम और 2011 में स्नैपचैट बाज़ार में आ गए.
सोनिया लिविंगस्टोन कहती हैं कि आज सोशल मीडिया की पहुंच और स्तर असीमित हो गई है. बच्चे ऐसे लोगों और सामग्री के संपर्क में आने लगे हैं, जिनकी पहले कल्पना नहीं की जा सकती थी. इसलिए बच्चों के लिए सोशल मीडिया से ख़तरा बहुत बढ़ गया है.
संयुक्त राष्ट्र ने 2016 में इंटरनेट की उपलब्धता को मानवाधिकार घोषित कर दिया था और दुनियाभर के लोगों तक इंटरनेट की सुविधा पहुंचाने को अपने विकास से जुड़े लक्ष्यों में शामिल किया था.
हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने यह भी कहा है कि सोशल मीडिया की उपलब्धता से कई ख़तरे पैदा हो गए हैं. उसकी एक रिपोर्ट के अनुसार, तीस देशों में एक तिहाई बच्चों ने कहा है कि सोशल मीडिया पर उन्हें बुलिंग या मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ा है और इनमें हर पांच में से एक बच्चे ने स्कूल जाना बंद कर दिया.
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि सरकारों को डिज़िटल नीतियां बनाते समय बच्चों और किशोरों के लिए सोशल मीडिया से पैदा होने वाले ख़तरों को ध्यान में रखना चाहिए.
सोनिया लिविंगस्टोन ने कहा, “हमें डिज़िटल दुनिया को बेहतर बनाना चाहिए. सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म चीन और पश्चिम में सिलिकॉन वैली में बनने शुरू हुए. चीन में उनके इस्तेमाल और निर्माण पर सरकार का नियंत्रण है.”
“वहां सभी के पास सोशल मीडिया आईडी है और बड़े स्तर पर सोशल मीडिया का इस्तेमाल होता है, जिस पर सरकार नज़र भी रखती है. फिर भी कुछ न्यूनतम उम्र से कम के बच्चे अकाउंट खोल लेते हैं. उधर सिलिकॉन वैली में बने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की पहुंच दुनियाभर में है.”

ऑस्ट्रेलिया का सोशल मीडिया प्रतिबंध कितना प्रभावी होता है और बच्चों के लिए सोशल मीडिया की दुनिया को सुरक्षित बनाने में कितना सफल रहता है, यह देखना अभी बाकी है.
ग़ौरतलब बात यह भी है कि फ़िलहाल केवल मेसेजिंग के लिए इस्तेमाल होने वाले ऐप्स और ऑनलाइन गेमिंग ऐप्स को इस प्रतिबंध से बाहर रखा गया है.
मगर ऑस्ट्रेलिया में सोलह साल से कम उम्र के बच्चों की डिज़िटल सुरक्षा को लेकर अपनाई गई कड़ी नीति कितनी प्रभावी हो सकती है, इस पर दुनियाभर की नज़र होगी.
सोनिया लिविंगस्टोन कहती हैं कि माध्यमिक स्कूल जाने वाले बच्चों के पास मोबाइल फ़ोन होते हैं और उनके लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल सामान्य बात है.
ऑस्ट्रेलिया सरकार की डिज़िटल सुरक्षा से जुड़ी स्वतंत्र संस्था ई-सेफ़्टी ने इसी साल कुछ चौंकाने वाले तथ्य पेश किए थे.
इस संस्था ने सर्वेक्षण के ज़रिए दस से सत्रह साल के 3500 बच्चों के अनुभव जाने. इसमें पाया गया कि 70 प्रतिशत बच्चों ने डिज़िटल प्लेटफ़ॉर्मों पर ऐसे वीडियो देखे हैं, जिनमें नुकसान पहुंचाने की वारदातें थीं.
पचास प्रतिशत बच्चों ने साइबर बुलिंग का सामना किया था और हर पांच में से एक बच्चे ने ऐसी सामग्री देखी थी, जिसमें यह बताया गया था कि ख़ुद को नुकसान कैसे पहुंचाया जा सकता है.
ई-सेफ़्टी का कहना है कि बच्चे सोशल मीडिया का इस्तेमाल सीखने, दूसरों से जुड़ने और मनोरंजन के लिए करते हैं.
सोनिया लिविंगस्टोन मानती हैं, “बच्चे ऐसे लोगों से जुड़ना चाहते हैं जिनके अनुभव उनके जैसे हों या जिनसे वे अपने अनुभव साझा कर सकें. कई बार किसी बीमारी या मानसिक समस्या से जूझ रहे बच्चे दूसरों के साथ अपने अनुभव साझा करना चाहते हैं, ताकि उन्हें ढाढस और मार्गदर्शन मिल सके. यह उनके लिए बहुत ज़रूरी होता है.”
डिज़िटल पहरेदारी को चकमा
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मेलबर्न की आरएमआईटी यूनिवर्सिटी में संचार विज्ञान की प्रोफ़ेसर और मनुष्यों के व्यवहार पर टेक्नोलॉजी के प्रभाव की विशेषज्ञ लीसा गिवन बताती हैं कि ऑस्ट्रेलिया के सोशल मीडिया प्रतिबंध की कनाडा में भी चर्चा हो रही है.
“डेनमार्क, जापान, यूके और अमेरिका में भी मीडिया में इसकी बड़ी चर्चा है. इस विषय पर बच्चे और उनके मां-बाप खुलकर चर्चा कर रहे हैं. हाल में मैंने जर्मनी के एक स्कूल के बच्चों से इस बारे में बात की, तो वे इस प्रतिबंध से ख़ास चिंतित नहीं लगे. हम यह भी देख रहे हैं कि दुनिया में दूसरे देश बच्चों को डिज़िटल दुनिया से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए क्या कर रहे हैं.”
जुलाई में यूके ने पोर्नोग्राफ़ी या अश्लील सामग्री दिखाने वाली वेबसाइटों को सभी यूज़र्स की उम्र जांचने के निर्देश दिए. चंद दिनों के भीतर ही वहां वीपीएन या वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क ऐप्स सबसे अधिक डाउनलोड किए गए ऐप्स बन गए.
इन ऐप्स के ज़रिए यूज़र किस देश से इंटरनेट पर लॉग इन कर रहा है, यह पता नहीं चलता. यही तरीका ऑस्ट्रेलिया में भी बच्चे अपना सकते हैं.
लीसा गिवन की राय है कि जैसे-जैसे लोग इस क़ानून की बारीकियों को देख रहे हैं, उन्हें लग रहा है कि यह वह चीज़ नहीं है जिससे बच्चों को पूरी तरह सोशल मीडिया से बचाया जा सके.
कई किशोर भी इन बारीकियों को देखकर मुस्कुरा रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस प्रतिबंध से बचने के लिए वीपीएन के इस्तेमाल और दूसरे तरीकों को अपनाया जा सकता है.
सोशल मीडिया अकाउंट खोलने के लिए किसी बच्चे की उम्र सोलह साल से अधिक है या नहीं, इसका पता लगाने के लिए सरकार ने प्रतिबंध लागू होने से पहले कई तरह की टेक्नोलॉजी का परीक्षण किया और पाया कि यह संभव है, मगर इसमें कई त्रुटियां भी हैं.
लीसा गिवन ने कहा, “हमें लगता है कि सोशल मीडिया कंपनियां उम्र की पुष्टि के लिए फ़ेशियल स्कैनिंग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करेंगी. लेकिन यह टेक्नोलॉजी उसके डेटाबेस में चेहरों की जानकारी या सैंपल के आधार पर उम्र का अनुमान लगाती है. मगर यह टेक्नोलॉजी सटीक परीक्षण नहीं कर सकती, क्योंकि कई बार तेरह साल का बच्चा अठारह का लग सकता है. साथ ही बच्चे चेहरे पर नकली मूंछें या चश्मा लगा सकते हैं. कमरे की लाइटिंग बदलने से भी स्कैनिंग को चकमा दिया जा सकता है.”
बच्चों ही नहीं, बल्कि वयस्कों को भी सोशल मीडिया का इस्तेमाल जारी रखने के लिए अपनी उम्र की पुख़्ता जानकारी सोशल मीडिया कंपनियों को देनी होगी, जिसे लेकर कई ऑस्ट्रेलियाई लोग नाराज़ हैं, क्योंकि उनके अनुसार यह उनकी निजता का उल्लंघन है.
यूरोप में भी छिड़ी चर्चा
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यूरोपीय पॉलिसी रिसर्च संबंधी संस्था इंटरफ़ेस की फ्रांस स्थित वरिष्ठ शोधकर्ता जेसिका गैलासेयर कहती हैं, “हालांकि पश्चिमी यूरोपीय देशों में डिज़िटल प्लेटफ़ॉर्मों के नियंत्रण के लिए एक जैसे क़ानून हैं, लेकिन इन देशों की संस्कृतियां एक-दूसरे से भिन्न हैं. और सभी देश इस समस्या से परेशान हैं.”
उनके अनुसार, डेनमार्क में चिंता अधिक है क्योंकि वहां पंद्रह साल से कम उम्र के 94 प्रतिशत बच्चों के पास सोशल मीडिया अकाउंट हैं.
फ़्रांस में सोशल मीडिया अकाउंट खोलने वाले बच्चों की औसत उम्र साढ़े आठ साल है. कई सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर अकाउंट खोलने के लिए बच्चे की उम्र 13 साल से अधिक होनी आवश्यक है.
यानी इन नियमों का कड़ाई से पालन नहीं हो रहा या यह नियम प्रभावी नहीं हैं.
इस मुद्दे पर जिन टेक कंपनियों ने बयान दिया है उनकी दलील है कि 18 साल से कम के बच्चों की सुरक्षा के लिए उनके प्लेटफ़ॉर्मों पर कई दूसरे प्रावधान हैं.
मिसाल के तौर पर पैरेंटल कंट्रोल टूल, यानी बच्चों के मां-बाप तय कर सकते हैं कि उनके बच्चे किस प्रकार की सामग्री देख पाएं और कौन सी नहीं. मगर इसके बावजूद बच्चे कई ऐसी सामग्री देख पा रहे हैं जो उनके लिए उचित नहीं है. मां-बाप इसके लिए राजनेताओं को दोषी ठहरा रहे हैं.
जेसिका गैलासेयर कहती हैं, “वरिष्ठ नेता भी समस्या के सामने हाथ पर हाथ धरे बैठे दिखाई देना नहीं चाहते. वो उम्र की सीमा संबंधी क़ानून बनाना चाहते हैं. इस समस्या से जुड़े तथ्यों को गहराई से देखे बिना जल्दबाज़ी में कदम उठाना चाहते हैं.”
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यूरोपीय संघ की प्रमुख ने कहा है कि वो देख रही हैं कि ऑस्ट्रेलिया का सोशल मीडिया प्रतिबंध कितना सफल होता है.
उधर यूके, ग्रीस और डेनमार्क के नेताओं ने भी कहा है कि जल्द ही सोशल मीडिया पर कड़े नियंत्रण लागू हो सकते हैं. यही रुख़ न्यूज़ीलैंड का भी है. जापान और इंडोनेशिया में भी इस विषय पर राजनीतिक बहस चल रही है.
जेसिका गैलासेयर मानती हैं कि ऐसे गंभीर मुद्दों पर राजनेता कुछ करते हुए दिखाई देना चाहते हैं. उनके लिए इसका आसान तरीका कोई नया क़ानून बना देना होता है.
तो क्या ऑस्ट्रेलिया का सोशल मीडिया प्रतिबंध दुनिया भर में अपनाया जा सकता है? ऐसा निश्चित ही हो सकता है.
इस प्रतिबंध की ऑस्ट्रेलिया में सफलता को अन्य देशों के नेता ऐसा क़ानून लागू करने की दलील की तरह इस्तेमाल करेंगे. मगर ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्वीकार करते हैं कि कम उम्र के बच्चों को शराब पीने से रोकने में उम्र सीमा लादने वाला क़ानून सफल नहीं हुआ है.
तो ऐसे में सवाल उठता है कि सोशल मीडिया संबंधी उम्र सीमा का यह क़ानून कितना सफल होगा.
हमारे एक्सपर्ट का मानना है कि सोशल मीडिया को केवल बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि सभी के लिए सुरक्षित करना ज़रूरी है, जिसके लिए उस पर हानिकारक सामग्री की उपलब्धि को समाप्त करना अधिक ज़रूरी है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.