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हर साल ठंड शुरू होते ही एक ख़ास ट्रेंड चल पड़ता है, जिसे आज की डेटिंग दुनिया में ‘कफ़िंग सीज़न’ कहते हैं.
कफ़िंग सीज़न यानी वह मौसम जहां सिंगल लोग सर्दियों में प्यार ढूंढते हैं. लेकिन क्या इसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार है?
मैं पहले ही बता दूं कि मैं किसी तरह के ग़लत बर्ताव को बढ़ावा नहीं दे रही हूं. मैं सिर्फ़ उस कल्चर की बात कर रही हूं जिसे ‘कफ़िंग सीज़न’ कहते हैं.
गर्मियों में सिंगल लोग ख़ूब आज़ादी और मस्ती से रहते हैं, लेकिन जैसे ही नवंबर-दिसंबर आता है, अचानक सब को एक पार्टनर की ज़रूरत महसूस होने लगती है.
कोई ऐसा जो सर्द रातों में साथ रहे, जिसके साथ चमचमाती लाइट्स में डांस किया जाए… या जिसे किसी पारिवारिक कार्यक्रम में साथ ले जाया जा सके ताकि जब आप कुछ खा रहे हों तब कोई रिश्तेदार आपकी डेटिंग लाइफ़ के बारे में पूछकर उस डिश का स्वाद फ़ीका न करे और आपको अकेलापन न खले.
इस मौसम में लोग जान-बूझकर रिलेशनशिप तलाशते हैं.
इसे ही कफ़िंग सीज़न कहते हैं, जैसे हाथ में हथकड़ी (अंग्रेज़ी में इसे Cuff कहते हैं) लग गई हो और अब भागना मुश्किल हो. ये शब्द क़रीब 2009 से प्रचलन में आया. ‘हथकड़ी लग गई’ यानी अब कमिटेड रिलेशनशिप में बंध गया.
अब सवाल ये है कि क्या यह सिर्फ़ मज़ाक है या सच में लोग सर्दियों में ज़्यादा पार्टनर ढूंढते हैं? अगर हां, तो क्या यह व्यवहार हमें मनोविज्ञान और इवोल्यूशनरी बायोलॉजी के बारे में कुछ बताता है?
कैलिफ़ोर्निया की सैन जोस स्टेट यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफ़ेसर, क्रिस्टीन मा-केलम्स कहती हैं, “कफ़िंग सीज़न से अर्थ उस विचार से है कि मनुष्यों के मिलन संबंधी व्यवहार भी मौसम के साथ बदलते हैं.”
छुट्टियों और रोमांस का संबंध
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हालांकि इस बात पर वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं कि ऐसा होता क्यों है. वह कहती हैं कि अगर आप आज के समय के व्यवहार को देखें तो, “अश्लील सामग्री (Porn), डेटिंग वेबसाइट्स, यहां तक कि यौनकर्मियों की सर्च साल में दो बार ज़ोर पकड़ती है, सिर्फ़ सर्दियों में ही नहीं, गर्मियों में भी”.
90 के दशक में एक और शोध में यह पता लगाने की कोशिश हुई कि क्या सेक्स करने का मूड भी मौसम के साथ बदलता है? इसके लिए शोधकर्ताओं ने चार चीज़ें देखीं- शादी के बाहर होने वाले बच्चे, गर्भपात के मामले, यौन संक्रमण और कंडोम्स की बिक्री.
उन्होंने पाया कि क्रिसमस के समय के दौरान यौन गतिविधियों और (असुरक्षित सेक्स) में बढ़ोत्तरी होती है. हालांकि ऐसा कोई हालिया अध्ययन नहीं है जिससे पता चले कि यह ट्रेंड अब भी चल रहा है.
फिर भी डेटिंग ऐप्स का डेटा साफ़ बताता है कि सर्दी में पार्टनर के साथ जुड़ने की संभावना सबसे ज़्यादा होती है. डेटिंग ऐप बम्बल के एक अध्ययन के अनुसार, स्वाइप करने का सबसे ज़्यादा समय नवंबर के अंत से लेकर फ़रवरी के मध्य तक होता है – जो वैलेंटाइन डे ब्रेकअप के लिए बिल्कुल सही समय है.
शोधकर्ताओं के अनुसार, एक ऐसा दिन जो तयशुदा उम्मीदों और परंपरागत दबावों से भरा होता है, रिश्तों को मज़बूत करने के बजाय उनके टूटने का कारण भी बन सकता है.”
जस्टिन गार्सिया, इंडियाना यूनिवर्सिटी के यौनिकता और रिश्तों पर केंद्रित एक अंतर्विषयक शोध केंद्र, किन्सी इंस्टीट्यूट के कार्यकारी निदेशक हैं. वे ‘द इंटिमेट एनिमल’ नाम की किताब के लेखक भी हैं. वह कहते हैं, “हम जानते हैं कि लोग छुट्टियों और रोमांस को जोड़कर देखते हैं.”
गार्सिया डेटिंग वेबसाइट मैच.कॉम (Match.com) के वैज्ञानिक सलाहकार भी हैं. वह कहते हैं, “ऑनलाइन डेटिंग तो साल भर चलती रहती हैं. रोज़ लाखों-करोड़ों स्वाइप और मैसेज होते हैं लेकिन सर्दियों के महीनों में सचमुच एक बड़ा उछाल आता है.”
ख़ैर इसका कारण सोचना मुश्किल नहीं हैं- संभवतः इसलिए कि आप घर में बंद हैं, बाहर ठंड है, नए लोगों से मिलने का एकमात्र रास्ता फ़ोन ही बचता है तो स्वाइप करते-करते कोई मिल ही जाता है.
इस मामले में मौक़ापरस्त हैं इंसान
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इस बात का पता करने के लिए कि क्या डेटिंग मौसमी है, हम अपने नज़दीकी जानवरों की ओर देख सकते हैं. कई जानवर मौसम के हिसाब से बच्चे पैदा करते हैं. क्या इंसान भी इसी तरह से बदल गए हैं?
सू कार्टर, इंडियाना यूनिवर्सिटी की विशिष्ट वैज्ञानिक और जीवविज्ञान की मानद सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं. वह कहती हैं, “कुछ ऐसी प्रजातियां हैं जो मौसम के हिसाब से बच्चे पैदा करती हैं. मिसाल के तौर पर गाय. इनका गर्भ बहुत बड़ा होता है, इसलिए ये सिर्फ़ वसंत में बच्चे पैदा करती हैं ताकि जब बच्चा आए तो चारों तरफ़ ताज़ा हरी घास हो.”
पक्षी भी ऐसा ही करते हैं. लेकिन क्या इंसान भी ऐसा ही करते हैं?
सू कार्टर कहती हैं, “अपने सामाजिक और यौन व्यवहार में इंसान मौक़ापरस्त होते हैं. इस मामले में हम मौसमी नहीं होते. अगर सेक्स करने का मौक़ा मिले तो ज़्यादातर लोग चूकेंगे नहीं.”
जन्म दर में मौसमी उतार-चढ़ाव इस बात का समर्थन करता है. अमेरिका में सबसे ज़्यादा बच्चे सितंबर में पैदा होते हैं. वेस्ट वर्जीनिया यूनिवर्सिटी में न्यूरोलॉजिकल रिसर्च के प्रोफ़ेसर चेयर रैंडी नेल्सन बताते हैं, “लोग कहते हैं कि यह क्रिसमस-न्यू ईयर की छुट्टियों की देन है.”
प्रोफ़ेसर नेल्सन कहते हैं, “इंसानों में ऐसा कोई ब्रीडिंग सीज़न नहीं दिखा जो सिर्फ़ जीव-विज्ञान की वजह से हो. जो भी उछाल आता है, वह हमेशा सामाजिक या सांस्कृतिक कारणों से होता है.”
कई आदिवासी, खेती करने वाले समुदायों में फ़सल कटने के ठीक 9 महीने बाद सबसे ज़्यादा बच्चे पैदा होते हैं.
रिसर्च बताती है कि ठंडे मौसम वाले देशों जैसे ब्रिटेन में सर्दियों में लोगों का मानसिक स्वास्थ्य थोड़ा कमज़ोर हो जाता है. दिन छोटे हो जाते हैं, धूप बहुत कम मिलती है, ठंड बहुत रहती है, इसलिए लोग ज़्यादातर घर के अंदर ही रहते हैं. इससे अकेलापन और उदासी बढ़ जाती है. धूप कम पड़ने से हमारे दिमाग़ में सेरोटोनिन कम बनता है.
सेरोटोनिन, एक खास न्यूरो ट्रांस्मिटर है जो हमारे सिरसेडियन रिदम को नियमित करता है. इसका काम हमारे नींद और जागने के चक्र को सही रखना है और यह मूड को अच्छा बनाता है.
सेरोटोनिन कम हुआ तो पूरा शरीर और मन दोनों सुस्त पड़ जाते हैं. सेरोटोनिन की कमी से हमारे जैविक क्रियाकलाप पर सीधा असर पड़ता है.
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डेटिंग कल्चर में बदलाव
प्रोफ़ेसर नेल्सन बहुत साधारण तरीके से समझाते हैं, “पतझड़ और सर्दी में हम मानो गुफा में रहने लगते हैं. सुबह अंधेरे में उठो, दिन भर नकली रोशनी में काम करो, शाम को फिर अंधेरे में घर लौटो. हमारे शरीर की घड़ी को 24 घंटे ठीक से चलाने के लिए तेज़ धूप चाहिए, पर सर्दी में वह मिलती ही नहीं.”
शायद इसलिए लोग ख़ुद को अच्छा महसूस कराने का कोई न कोई रास्ता ढूंढते हैं. यही वजह है कि सर्दी में लोग रोमांस ढूंढते हैं.
प्रोफ़ेसर नेल्सन कहते हैं, “शरीर की दैनिक लय का बिगड़ना भी उदासी जैसे लक्षण और कुछ ख़ास हार्मोन की कमी पैदा कर सकता है, जिनमें ऑक्सीटोसिन भी शामिल है, साथ ही दिमाग़ में डोपामाइन और सेरोटोनिन से जुड़ी क्रिया-प्रतिक्रिया भी कम हो जाती है. इसलिए मुझे लगता है कि सर्दी में मन अपने आप यह सोचने लगता है, मुझे थोड़ा डोपामाइन चाहिए, मुझे थोड़ा ऑक्सीटोसिन चाहिए. शायद यह इंसान मुझे दे सके.”
सू कार्टर कहती हैं, “इंसान बहुत ज़्यादा सामाजिक जीव है. हम गांव बनाते हैं, शहर बसाते हैं, सभ्यता बनाते हैं इसके लिए हमारे शरीर में ख़ास व्यवस्था है. ऑक्सीटोसिन हमें एक-दूसरे के क़रीब लाता है और पास रखता भी है.”
शारीरिक रूप से छूने, जैसे कि गले लगने, सेक्स करने से भी ऑक्सीटोसिन बहुत तेज़ी से बढ़ता है. इसलिए पहली-पहली बार का प्यार या हनीमून वाला फ़ेज़ इतना अच्छा लगता है.
शरीर की गर्मी का भी अपना रोल है. पुरुषों और औरतों के शरीर में ठंड-गर्मी महसूस करने का तरीक़ा अलग-अलग होता है.
नेल्सन कहते हैं, “तो सर्दी में शायद यह होता है कि मन सोचता है कि मुझे कोई चाहिए जो मेरे हाथ-पैर गर्म कर दे. हो सकता है कि यह सब-कॉनशियस में चलने वाली प्रक्रिया हो लेकिन ऐसा हो सकता है.”
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गार्सिया कहते हैं, “अगर कुछ और नहीं तो कफ़िंग सीज़न हमें एक बात ज़रूर सिखाता है, हमारा अपने रिश्तों से रिश्ता कैसा है.”
“ख़ास तौर पर त्यौहारों में जब हम परिवार और दोस्तों से घिरे होते हैं, तो थोड़ा रुककर सोचने का वक़्त मिलता है, अगली छुट्टियों में मैं किसके साथ घर लौटना चाहता हूँ? कैसा इंसान चाहिए मुझे?”
गार्सिया कहते हैं, “दुनिया के किसी भी जीव से ज़्यादा इंसान के प्यार और शादी-ब्याह में परिवार का दख़ल होता है. परिवार का दबाव रहता है, भले ही इस पर खुलकर न बोला जाए.”
“जब हम अपनों के बीच होते हैं तो बार-बार याद दिलाया जाता है कि समाज को हमसे पार्टनर और अपना परिवार बनाने की उम्मीद है. ये बात विशुद्ध रूप से सिर्फ़ इंसानों में ही होती है.”
तो क्या कफ़िंग सीज़न को लेकर वैज्ञानिक सबूत हैं? मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं. जैसा कि एक्सपर्ट्स ने बताया, इंसानों का सेक्सुअल बिहेवियर मौसम पर निर्भर नहीं है. यह सामाजिक और कल्चरल पैटर्न ज़्यादा लगता है, जैसे परिवार का दबाव, छुट्टियों की उदासी या बस ठंड में कोई गर्माहट ढूंढने की ज़रूरत.
अब मॉडर्न डेटिंग की बात, ख़ासकर जेन ज़ी और मिलेनियल्स रिश्तों को री-इवैल्यूएट कर रहे हैं. ट्रेंड्स आते-जाते रहते हैं, और डेटिंग ऐप्स का फीका पड़ना इसका बड़ा सबूत है.
हालांकि पहले यह रोमांच भरा लगता था. लोकल एरिया में सैकड़ों प्रोफ़ाइल्स पर स्वाइप करना लेकिन अब यह थकान में बदल गया है.
फ़ोर्ब्स हेल्थ के 2025 की गर्मियों में पब्लिश एक सर्वे के मुताबिक, यूएस में 78% डेटिंग ऐप यूज़र्स कभी-कभी, अक्सर या हमेशा इमोशनली, मेंटली या फिज़िकली एग्ज़ॉस्टेड फील करते हैं.
डेटिंग कल्चर में काफ़ी बदलाव हो रहा है. गार्सिया कहते हैं कि “मुझे लगता है कि एक बड़ी वजह ये है कि आजकल बहुत ज़्यादा ज़ोर अपनी क्षमताओं को पूरा इस्तेमाल करने पर है. ख़ासकर नौजवान सोचते हैं पहले मुझे अपने आप को ठीक करना है, करियर सेट करना है, मानसिक रूप से मज़बूत होना है उसके बाद ही रिलेशनशिप में जाऊंगा.”
लेकिन याद रहे, इंसान सामाजिक प्राणी है. गार्सिया कहते हैं, “हम रिश्तों में ही परिपक्व होते हैं. रिश्ते में ग़लतियां करते हैं, सीखते हैं, समझते हैं कि हम कौन हैं और हमें चाहिए क्या. रिश्ते ही वह बर्तन हैं जिसमें हम पकते हैं, निखरते हैं.”
तो शायद मुझे भी स्वाइप करना शुरू कर देना चाहिए. दरअसल मैं वैसे भी ऐसी इंसान नहीं हूं जो ज़्यादा बंधन में पड़े.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.