“आपको भी तो कम अंक मिलते थे. आप कौन-सा कलेक्टर बन गए? आप भी तो टीचर ही बन पाए ना?”
ये बात 12वीं की छात्रा साधना भोसले ने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा नीट के लिए हुए प्रैक्टिस टेस्ट में कम मार्क्स आने पर अपने पिता से कही थी.
ये सुनकर धोंडीराम भोसले को ग़ुस्सा आ गया और उन्होंने साधना भोसले की पिटाई कर दी, जिसके बाद उनकी मौत हो गई.
ये मामला महाराष्ट्र के सांगली ज़िले के आटपाडी तालुका के नेलकरंजी गांव का है.
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे बच्चों और उनके अभिभावकों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बहस एक बार फिर चर्चा का विषय बन गई है.
नेलकरंजी निवासी धोंडीराम भोसले उच्च शिक्षित थे. उनकी पत्नी नेलकरंजी की सरपंच रह चुकी हैं.
बेटी की मौत के बाद साधना की मां प्रीति भोसले ने आटपाडी पुलिस स्टेशन में धोंडीराम भोसले के ख़िलाफ़ मामला दर्ज कराया है. धोंडीराम भोसले को 24 जून तक पुलिस हिरासत में भेज दिया गया है.
12वीं कक्षा में पढ़ने वाले विद्यार्थियों पर परीक्षा का दबाव और इसमें अभिभावकों की भूमिका पर एक बार फिर चर्चा छिड़ गई है.
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बच्चों को इंजीनियर या डॉक्टर ही क्यों बनाया जाए?
हर साल लाखों छात्र मेडिकल की प्रवेश परीक्षा (नीट) देते हैं. लेकिन इनमें से सिर्फ़ कुछ हज़ार छात्रों को ही एडमिशन मिल पाता है. हालाँकि, पिछले कुछ सालों में देशभर में इन प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी कराने वाली कोचिंग क्लासेस में काफ़ी बढ़ोतरी हुई है.
कोरोना काल के बाद लाखों रुपये फ़ीस लेकर ऑनलाइन कोचिंग देने वाली क्लासेज़ की संख्या में भी काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ है.
इस बारे में शिक्षा विशेषज्ञ भाऊसाहेब चास्कर कहते हैं, “माता-पिता के पास पैसा है, इसलिए वे नीट या जेईई जैसी परीक्षाओं की तैयारी के लिए बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हैं. 10वीं में मिले उच्च अंक 11वीं-12वीं की विज्ञान और उसके आगे की प्रवेश परीक्षाओं में बहुत काम नहीं आते. उनके बच्चे सरकारी मेडिकल कॉलेज या आईआईटी में जाने का सपना देखते हैं. माता-पिता अपने बच्चों के लिए निवेश और रिटर्न जैसी बाज़ार की भाषा का इस्तेमाल करते नज़र आते हैं. उनका मानना है कि पैसा लगाओ तो अंक भी मिलने चाहिए.”
बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर ही बनना चाहिए, यह मानसिकता आख़िर कहां से आती है?
पुणे में मनोचिकित्सा पर काम करने वाली संस्था ‘मनोब्रम्ह’ चलाने वाली डॉ. किरण चव्हाण कहती हैं, “अक्सर माता-पिता किसी क्षेत्र में करियर बनाने में असफल हो जाते हैं और फिर उन्हें लगता है कि उनके बच्चों को उनके अधूरे सपने को पूरा करना चाहिए. ऐसा करते समय वे यह नहीं देखते कि उनके बच्चे में उस क्षेत्र में योग्यता या रुचि है या नहीं और ये बातें सीधे-सीधे बच्चों पर थोप दी जाती हैं.”
भाऊसाहेब चास्कर कहते हैं, “बहुत से माता-पिता इंजीनियरिंग या मेडिकल को ग़रीबी से बाहर निकलने का रास्ता मानते हैं और अपने बच्चों की शिक्षा पर भारी निवेश करते हैं. एक तरफ़ ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में 11वीं और 12वीं के स्कूल ख़ाली पड़े हैं, तो दूसरी तरफ़ प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग क्लासेस की भरमार है. इसलिए, इन प्रतियोगी परीक्षाओं का सामना करने वाले बच्चों पर इसके प्रभाव का अध्ययन करने की आवश्यकता है.”
शिक्षा और मनोविज्ञान पर शोध करने वाली डॉ. श्रुति पानसे मानती हैं कि माता-पिता का अपने बच्चों पर भरोसा न करना एक बड़ी समस्या है.
वह कहती हैं, “माता-पिता के दिमाग़ में यह बात बैठा दी गई है कि डॉक्टर, इंजीनियर या कोई आकर्षक पेशा या नौकरी होना ज़रूरी है. माता-पिता अक्सर अपने बच्चों पर यह भरोसा नहीं करना चाहते कि उनका बच्चा जिस क्षेत्र में रुचि रखता है, उसमें आगे बढ़ेगा. हम जानते हैं कि कई कॉलेज सिर्फ़ साइंस और कॉमर्स पढ़ाते हैं. लेकिन उन कॉलेजों में आर्ट्स के विषय नहीं पढ़ाए जाते. ऐसा इसलिए है क्योंकि डॉक्टर और इंजीनियर जैसे कुछ क्षेत्रों के प्रति बहुत ज़्यादा आकर्षण है.”
डॉ. श्रुति पानसे का मानना है कि बच्चों पर निवेश की शुरुआत उनके बचपन से ही हो जाती है.
वह कहती हैं, “माता-पिता किंडरगार्टन से लेकर कॉलेज और विभिन्न पाठ्यक्रमों तक किसी भी चीज़ के लिए भुगतान करने को तैयार हैं, भले ही कितनी भी बड़ी फ़ीस क्यों न ली जाए. अगर अभी पैसे ख़र्च हो जाएं तो भी कोई बात नहीं, लेकिन एक बार जब बच्चे पढ़-लिखकर नौकरी पा लेंगे तो उनके लिए सफलता के रास्ते खुल जाएंगे. लेकिन इससे माता-पिता बहुत तनाव में आ जाते हैं. समय-समय पर वे अपने बच्चों से उस वित्तीय निवेश के बारे में बात करते हैं. इससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बच्चे भी तनाव में आ जाते हैं.”
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इस ‘निवेश’ का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
आईआईटी बॉम्बे में पढ़ रहे एक छात्र के परिजन कहते हैं, “आईआईटी की तैयारी के दौरान मेरा बेटा अचानक आधी रात को मेरे पास आया और रोने लगा. मुझे नहीं पता था कि वास्तव में क्या हुआ. उससे बात करने के बाद मुझे पता चला कि उसने आईआईटी प्रवेश परीक्षा का तनाव ले लिया था. मैंने कभी अपने बेटे पर उम्मीदों का बोझ नहीं डाला, लेकिन फिर भी उस पर दबाव था. आख़िर में, हमने उससे कहा कि भले ही तुम असफल हो जाओ, हम तुम्हारे साथ हैं.”
इस बातचीत के बाद, लड़के ने परीक्षा के लिए जमकर पढ़ाई की, दिन-रात मेहनत की और फ़िलहाल आईआईटी बॉम्बे में पढ़ाई कर रहा है.
क्या होता अगर वह उस दिन वह अपने माता-पिता के सामने नहीं रोता? क्या होता अगर उसके माता-पिता को यह अहसास नहीं होता कि वह दबाव में है?
डॉ. किरण चव्हाण कहती हैं कि बच्चों पर यह दबाव कई कारणों से होता है.
किरण चव्हाण कहती हैं, “छात्रों को यह नहीं बताया जाता कि उन पर आने वाले दबाव को कैसे संभालना है. बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान दिए बिना उन पर ये चीज़ें थोपी जाती हैं. इनमें से कुछ बच्चे इस दबाव को सकारात्मक तरीक़े से संभाल लेते हैं और कुछ बच्चों पर इसका नकारात्मक असर पड़ता है और धीरे-धीरे बच्चे अवसादग्रस्त होने लगते हैं. कई बार माता-पिता के ख़र्च किए गए पैसे भी बच्चों पर दबाव बनाते हैं.”
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पढ़ाई का तनाव और अवसाद
भाऊसाहेब चास्कर का मानना है कि, “ऐसी स्थिति में माता-पिता मज़बूत हो जाते हैं और बच्चे कमज़ोर. उनके पास इस दबाव को बेबस होकर झेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. इससे बच्चे अवसादग्रस्त हो सकते हैं. जब राजस्थान के कोटा में नीट और जेईई की परीक्षा की तैयारी करने गए कई बच्चे कम अंक लेकर वापस आते हैं, तो उन्हें अपने माता-पिता का सामना कुछ इस तरह से करना होता है, जैसे कि वे अपराधी हों.”
“हालाँकि वहाँ बच्चों की आत्महत्या की दर गंभीर चिंता का विषय है, लेकिन कई मध्यम वर्ग और निम्न-मध्यम वर्ग के माता-पिता अपने बच्चों को इस चक्र में धकेलते हैं. यह समस्या दिन-प्रतिदिन और भी गंभीर होती जा रही है.”
नेलकरंजी की घटना इसका एक उदाहरण है. लेकिन इस आयु वर्ग के छात्र, ख़ासकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले विद्यार्थी, कई तरह के दबाव का सामना करते हैं. इस वजह से कई छात्र अवसाद का सामना करते हैं और कुछ छात्र आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर आधारित एक रिपोर्ट 28 अगस्त, 2024 को प्रकाशित हुई.
आईसी3 नामक संस्था ने विद्यार्थियों की आत्महत्याओं पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है (‘छात्र आत्महत्याएँ: भारत में फैलती महामारी’). इसके आंकड़ों के अनुसार, छात्र आत्महत्याओं के मामले में महाराष्ट्र शीर्ष राज्य है, उसके बाद तमिलनाडु और मध्य प्रदेश का स्थान है.
महाराष्ट्र में 2022 में 1764 छात्रों ने आत्महत्या की और 2021 में 1834 छात्रों ने ऐसा किया.
छात्रों द्वारा आत्महत्या करने के मुख्य कारणों में पढ़ाई का अधिक तनाव, मजबूरी में करियर का चुनाव, शैक्षिक संस्थानों से समर्थन की कमी, भेदभाव, रैगिंग, बदलती पारिवारिक परिस्थितियां और भावनात्मक उपेक्षा शामिल हैं.
आत्महत्या एक गंभीर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्या है. अगर आप भी तनाव से गुजर रहे हैं तो भारत सरकार की जीवनसाथी हेल्पलाइन 18002333330 से मदद ले सकते हैं. आपको अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से भी बात करनी चाहिए.
परिजनों को क्या समझना चाहिए?
अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनाने की चाहत के पीछे कई सामाजिक और आर्थिक कारण हो सकते हैं. अक्सर, बच्चों पर थोपे गए करियर विकल्पों की वजहें माता-पिता के निजी जीवन में पाई जा सकती हैं.
इस बारे में बात करते हुए डॉ. किरण चव्हाण कहती हैं, “बच्चों पर कोई भी पढ़ाई थोपने से पहले अभिभावकों को यह देखना चाहिए कि क्या उनके बच्चे वाक़ई ऐसा करना चाहते हैं. परीक्षा देने के बाद ही उन्हें देखना चाहिए कि उन्हें करियर के बारे में पता है या नहीं और क्या उन्हें दूसरे विकल्प तलाशने चाहिए.”
डॉ. किरण कहती हैं, “माता-पिता अपने बच्चों की ख़ूबियों और कमज़ोरियों से अच्छी तरह वाकिफ़ होते हैं. हालांकि, वे अक्सर उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते. माता-पिता को ईमानदारी से इसकी जांच करनी चाहिए और फिर अगला फ़ैसला लेना चाहिए. इसके लिए माता-पिता और उनके बच्चों के बीच संवाद बहुत ज़रूरी है.”
12वीं कक्षा के बच्चे की परवरिश करना कई लोगों के लिए एक कठिन काम हो सकता है. किशोरावस्था में प्रवेश करते ही बच्चे अपने निजी और सार्वजनिक जीवन में नई चुनौतियों का सामना कर रहे होते हैं, और अगर माता-पिता के साथ संवाद बाधित होता है, तो ग़लत निर्णय लेने की संभावना होती है.
भाऊसाहेब चास्कर कहते हैं, “माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य को लेकर वाक़ई चिंतित हैं, इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. उनके बच्चों का क्या होगा? माता-पिता के मन में यह असुरक्षा की भावना होती है. यह स्वाभाविक है. लेकिन, इस उलझन का सीधा असर बच्चों पर पड़ रहा है. इस बारे में समाज में जागरुकता लाने की ज़रूरत है.”
श्रुति पांसे का मानना है कि बच्चों को अपनी रुचि के अनुसार काम करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए.
“सिर्फ़ इसलिए कि कोई बच्चा किसी विशेष परीक्षा में असफल हो जाता है, इसका मतलब यह नहीं है कि उसके सारे विकल्प ख़त्म हो गए हैं. आजकल, बच्चों के लिए कई विकल्प उपलब्ध हैं. इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि बच्चों को उनकी रुचि के क्षेत्र में करियर बनाने दिया जाए और उन्हें हतोत्साहित न किया जाए.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित