राज्य ब्यूरो, जागरण, कोलकाता। कलकत्ता हाई कोर्ट ने गुरुवार को दलबदल विरोधी कानून के तहत ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए तृणमूल कांग्रेस के नेता मुकुल राय की बंगाल विधानसभा की सदस्यता रद कर दी। हाई कोर्ट के न्यायाधीश देबांग्शु बसाक और जस्टिस मोहम्मद शब्बर रशीदी की खंडपीठ ने विपक्ष के नेता सुवेंदु अधिकारी और भाजपा विधायक अंबिका राय की याचिकाओं पर यह फैसला दिया।
यह देश में अपनी तरह का पहला मामला है, जब किसी कोर्ट ने दलबदल विरोधी कानून के तहत किसी की विधानसभा की सदस्यता रद कर दी है। हाई कोर्ट मुकुल को लेकर विधानसभा अध्यक्ष बिमान बनर्जी के फैसले को भी खारिज कर दिया है। बता दें कि मुकुल लंबे समय से बीमार हैं। हालांकि, नियम के तहत सीट पर कोई उपचुनाव नहीं होगा। क्योंकि, 2026 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।
मुकुल राय की सदस्यता रद
मुकुल राय 2017 में टीएमसी छोडक़र भाजपा में शामिल हुए थे। मई 2021 में भाजपा के टिकट पर वह नदिया जिले की कृष्णानगर उत्तर सीट से विधायक बने थे लेकिन 11 जून 2021 को राय और अपने बेटे सुभ्रांशु राय के साथ टीएमसी में शामिल हो गए थे। हालांकि, उन्होंने विधायक पद से इस्तीफा नहीं दिया।
इसके बाद 18 जून 2021 को सुवेंदु अधिकारी ने विधानसभा अध्यक्ष बिमान बनर्जी को मुकुल की सदस्यता खत्म करने को लेकर अर्जी दी थी। उन्होंने दलबदल कानून के तहत सदन में राय की सदस्यता को अयोग्य घोषित करने की मांग की थी। लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने कार्रïïवाई करने से इन्कार कर दिया। उनका तर्क था कि मुकुल के दलबदल का सौ प्रतिशत सुबूत नहीं है।
उन्होंने कहा कि मुकुल ने खुद दलबदल को नहीं माना। बल्कि, उन्होंने कहा कि वह शिष्टाचार के तौर पर तृणमूल भवन गए थे। बाद में मुकुल को विधानसभा की लोक लेखा समिति (पीएसी) का चेयरमैन भी बना दिया गया। आमतौर पर इस पद पर विपक्षी दल का कोई सदस्य नियुक्त किया जाता है। हाई कोर्ट ने मुकुल राय को पीएसी चेयरमैन बनाने के फैसले को भी गलत ठहराया है।
सुवेंदु ने दायर की थी याचिका
सुवेंदु ने पहले दलबदल कानून के तहत मुकुल का विधायक पद रद करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाई कोर्ट में याचिका दायर करने को कहा। इसके बाद सुवेंदु ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अलग से भाजपा विधायक अंबिका राय ने भी मुकुल के खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका दायर की।
हाई कोर्ट ने फैसले में दी यह व्याख्या
अपने फैसले में खंडपीठ ने कहा कि विधानसभा अध्यक्ष का यह फैसला कि इस मामले में सौ प्रतिशत सुबूत चाहिए, सही नहीं है। दूसरी बात, मुकुल ने खुद माना है कि वह तृणमूल भवन गए थे। उन्होंने मीडिया में इससे जुड़ी किसी भी खबर का विरोध नहीं किया।
इसलिए, जिस बात से इन्कार नहीं किया गया, उसे कानून के हिसाब से सच माना जा सकता है। मुकुल के तृणमूल भवन जाने और तृणमूल में शामिल होने की तस्वीरें, वीडियो हैं। उन सभी सुबूतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि अगर शिकायत करने वाला कोई सुबूत देता है, अगर विरोधी उससे इन्कार नहीं करता है, तो उसे मान लिया जाता है। इस मामले में भी यही हुआ।
मुकुल ने उन सुबूतों से इन्कार नहीं किया जो सुवेंदु ने मुकुल के खिलाफ उठाए थे। हालांकि तब मुकुल ने दलील दी कि वह मानसिक रूप से तनाव में थे क्योंकि उस समय उनकी पत्नी बीमार थीं। वह शिष्टाचार के तौर पर तृणमूल भवन गए थे। कोई औपचारिक ज्वाइनिंग नहीं हुई थी। कोर्ट ने उस दलील को खारिज कर दिया।
सुवेंदु ने फैसले का किया स्वागत
सुवेंदु ने हाई कोर्ट के फैसले को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि देर से ही सही, लेकिन सच्चाई की जीत हुई है। वहीं विधानसभा अध्यक्ष ने कहा कि मैंने मामले की प्रकृति के अनुसार फैसला दिया था। मैं कोर्ट के फैसले की कापी देखूंगा। उसके बाद ही अगला निर्णय लिया जाएगा।
यह है दलबदल विरोधी कानून
दलबदल विरोधी कानून एक ऐसा कानून है जो संसद सदस्यों और विधायकों को अपनी पार्टी छोडक़र दूसरी पार्टी में शामिल होने से रोकता है, ताकि राजनीतिक स्थिरता बनी रहे। यह कानून 1985 में संविधान की 10वीं अनुसूची के रूप में 52वें संशोधन अधिनियम द्वारा लाया गया था। इस कानून के तहत, दलबदल करने वाले सदस्यों को अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
संविधान की दसवीं अनुसूची में कहा गया है कि किसी भी राजनीतिक दल से संबंधित सदन का कोई सदस्य अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा यदि उसने स्वेच्छा से उस राजनीतिक दल की सदस्यता त्याग दी हो, या उस राजनीतिक दल द्वारा जारी किसी निर्देश के विरुद्ध उस सदन में मतदान किया हो या मतदान से परहेज किया हो। दलबदल पर निर्णय लेने का दायित्व अध्यक्ष का है और निर्णय लेने की कोई समय-सीमा नहीं है।