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(ये कहानी पूर्व में 2 अप्रैल 2022 को प्रकाशित हुई थी)
सालों तक कांग्रेस के सदस्य रहे मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने 1989 के लोकसभा चुनाव से तुरंत पहले कांग्रेस का साथ छोड़कर जनता दल का दामन थाम लिया था.
चुनाव जीतने के बाद वीपी सिंह ने उन्हें गृह मंत्री नियुक्त किया.
मुफ़्ती भारत के पहले और अब तक के एकमात्र मुसलमान गृह मंत्री रहे हैं.
उन्हें गृह मंत्री बनाकर वीपी सिंह शायद कश्मीरियों को एक सकारात्मक संदेश देना चाह रहे थे.
लेकिन मुफ़्ती सईद के शपथ लेने के चार दिनों बाद ही वो घटना घटी, जिसने कश्मीर के इतिहास के संभवतः सबसे भयानक दौर को जन्म दिया.
8 दिसंबर, 1989 को 3 बजकर 45 मिनट पर मुफ्ती मोहम्मद सईद की मंझली बेटी रुबैया सईद जैसे ही ललदद्द अस्पताल से बाहर निकलीं, उनकी मिनी बस में पाँच नौजवान सवार हुए.
धीरे-धीरे बस के यात्री कम होते चले गए और वो श्रीनगर के बाहरी इलाक़े नौगाम की तरफ़ बढ़ने लगी जहाँ रुबैया सईद का घर था.
अचानक पाँचों नौजवान खड़े हुए और उन्होंने ड्राइवर से बस को नातीपोरा ले जाने के लिए कहा.
नातीपोरा में एक नीली मारुति कार उनका इंतज़ार कर रही थी.
रुबैया को ज़बरदस्ती उस कार में बैठाया गया और उसे सोपोर में राज्य सरकार के जूनियर इंजीनियर जावेद इक़बाल मीर के घर ले जाया गया.
जाने-माने पत्रकार मनोज जोशी अपनी किताब ‘द लॉस्ट रेबेलियन, कश्मीर इन द नाइनटीज़’ में लिखते हैं, “रुबैया के साथ जेकेएलएफ़ के नेता यासीन मलिक, अशफ़ाक माजिद वानी और ग़ुलाम हसन भी गए. कार चलाने वाला शख़्स अली मोहम्मद मीर भी राज्य सरकार की कंपनी स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन में टेक्निकल ऑफ़िसर के पद पर काम कर रहा था.”
उन्होंने अपनी किताब में आगे लिखा, “उसी शाम जेकेएलएफ़ के प्रवक्ता ने दैनिक अख़बार ‘कश्मीर टाइम्स’ को फ़ोन करके कहा कि उसके मुजाहिदों ने डॉक्टर रुबैया सईद का अपहरण कर लिया है, क्योंकि वे अपने साथी हामिद शेख़ को रिहा करवाना चाहते हैं. हामिद शेख़ के अलावा उन्होंने अपने चार दूसरे साथियों- शेर ख़ाँ, जावेद अहमद ज़रगर, नूर मोहम्मद कलवल और मोहम्मद अल्ताफ़ बट की भी रिहाई की मांग की.”
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उस समय राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्लाह देश में नहीं थे. वो अपना इलाज कराने के लिए इंग्लैंड गए थे.
कुछ लोगों का कहना है कि उस समय वो अवसाद में थे, लेकिन उनके समर्थकों की दलील थी कि उनकी ईसीजी में कुछ गड़बड़ियाँ पाए जाने के बाद वो इलाज करवाने के लिए रवाना हुए थे.
मनोज जोशी लिखते हैं, “इस अपहरण से लोगों को बहुत बड़ा झटका लगा था, लेकिन दूसरी ओर राज्य में मुफ़्ती के प्रतिद्वंद्वी उनकी इस परेशानी से ख़ुश थे. राज्य के पुलिस प्रमुख को केंद्र सरकार की तरफ़ से निर्देश दिया गया था कि वो कोई ऐसा काम न करें, जिससे चरमपंथियों को रुबैया सईद को मारने का बहाना मिल जाए.”
भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत अपनी किताब ‘कश्मीर, द वाजपेयी इयर्स’ में लिखते हैं, “जेकेएलएफ़ ने सबसे पहले फ़ारुक़ अब्दुल्लाह की सबसे बड़ी बेटी सफ़िया अब्दुल्लाह को अगवा करने की योजना बनाई थी. लेकिन ऐसा कर पाना इसलिए मुश्किल था क्योंकि उनके निवास गुपकर रोड की सुरक्षा व्यवस्था बहुत मज़बूत थी और दूसरे उन दिनों सफ़िया बहुत बाहर भी नहीं निकलती थीं.”
उन्होंने आगे लिखा है, “इस योजना को छोड़ने के बाद जेकेएलएफ़ ने सीनियर एसपी अल्लाहबख़्श की बेटी का अपहरण करने की योजना बनाई. अल्लाहबख़्श पर 1987 के चुनाव में धाँधली करवाने के आरोप लगे थे. एक जेकेएलएफ़ नेता ने सोचा क्यों न रुबैया सईद को उठा लिया जाए. रुबैया ललदद्द अस्पताल में इंटर्न के तौर पर काम कर रही थीं. वो वहाँ हर दूसरे दिन जाती थीं. पता लगाया गया कि वो कितने बजे वहाँ जाती हैं और कितने बजे वहाँ से वापस आती हैं. इसके बाद उनके अपहरण की साज़िश को अंतिम रूप दिया गया.”
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सरकार की तरफ़ से गुजरात काडर के आईएएस अधिकारी मूसा रज़ा ने चरमपंथियों से बात शुरू की. रज़ा तब कश्मीर के मुख्य सचिव थे.
पर्दे के पीछे उनका साथ दे रहे थे श्रीनगर में तैनात इंटेलिजेंस ब्यूरो के वरिष्ठ अधिकारी एएस दुलत.
कश्मीर टाइम्स के एक पत्रकार ज़फ़र मेराज ने इस कांड में शामिल अश्फ़ाक माजिद वानी के पिता से उनकी मुलाक़ात तय करवाई.
दुलत लिखते हैं, “हम एक सरकारी फ़्लैट में मिले और ज़मीन पर बैठे. वो बार-बार ज़ोर देकर कह रहे थे कि किस तरह दिल्ली ने हमेशा कश्मीरियों के साथ नाइंसाफ़ी की है. फिर वो ये बताने लगे कि अपहरण में शामिल लड़के बुरे नहीं हैं. वो उनकी तरफ़ से ये आश्वासन दे सकते हैं कि वो किसी को नुक़सान नहीं पहुँचाएँगे और रुबैया उनकी बहन की तरह हैं. अश्फ़ाक के पिता ने हमें बताया कि अपहरण का मुख्य उद्देश्य हामिद शेख़ को रिहा करवाना है.”
दुलत लिखते हैं, “आख़िर में उन्होंने बहुत नाटकीय अंदाज़ में मेरा हाथ पकड़कर कहा, ये बच्चे बहुत अच्छे बच्चे हैं. अगर दिल्ली कुछ भी न करे, तब भी वो रुबैया को कोई नुक़सान नहीं पहुँचाएँगे और उन्हें रिहा कर दिया जाएगा. उस समय हमें लगा कि रुबैया को रिहा करवाने के लिए हमें किसी को छोड़ना नहीं पड़ेगा और अगर छोड़ना भी पड़ा, तो ज़्यादा से ज़्यादा हामिद शेख़ को रिहा करने भर से काम चल जाएगा.”

इस बीच रुबैया सईद को छुड़ाने की मुहिम में कई और लोग भी शामिल हो गए.
उनमें शामिल थे इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज मोती लाल कौल, विधायक मीर मुस्तफ़ा और एमयूएफ़ के संस्थापक और बाद में हुर्रियत के प्रमुख बने मौलवी अब्बास अंसारी.
11 दिसंबर, 1989 की सुबह फ़ारुक़ अब्दुल्लाह लंदन से वापस श्रीनगर लौट आए.
आते ही उन्होंने अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई. उनके मंत्रियों ने उनसे शिकायत की कि उनको कुछ भी नहीं पता कि अपहरण मामले में क्या हो रहा है.
एक मंत्री ने कहा कि सब कुछ इंटेलिजेंस ब्यूरो के दफ़्तर से चल रहा है. मुख्य सचिव हमें रिपोर्ट नहीं करते और इंटेलिजेंस ब्यूरो के दफ़्तर में ही बैठे रहते हैं.
दुलत लिखते हैं, “अब्दुल्लाह ने फ़ौरन मूसा को तलब करके कहा कि आप आइंदा चरमपंथियों से बात नहीं करेंगे. जब मूसा ने इसका कारण पूछा, तो अब्दुल्लाह ने जवाब दिया आपने अपनी बातचीत का विवरण मंत्रिमंडल को क्यों नहीं दिया? मूसा ने जवाब दिया कि मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति में कोई मंत्रिमंडल था ही नहीं. उन्हें मालूम नहीं था कि किसको रिपोर्ट करना है. सच ये था कि कि मूसा उस समय दिल्ली में कैबिनेट सचिव टीएन शेषन को रिपोर्ट कर रहे थे.”

फ़ारूक़ अब्दुल्लाह को इस बात का अंदाज़ा था कि अगर रुबैया सईद की जगह एक भी चरमपंथी को रिहा किया गया, तो इसके क्या परिणाम होंगे.
लेकिन दिल्ली से चरमपंथियों के साथ समझौता करने का बहुत अधिक दबाव था.
11 दिसंबर से 13 दिसंबर तक फ़ारूक़ अब्दुल्लाह ने वो सब कुछ किया जो केंद्र सरकार चाहती थी, सिवाय उन पाँच चरमपंथियों को रिहा करने के.
जब जज मोती लाल कौल फ़ारूक़ के पास मुफ़्ती मोहम्मद सईद का संदेश लेकर गए कि सभी पाँच चरमपंथियों को छोड़ा जाना है, तो उनके सब्र का बाँध टूट गया.
नाराज़ फ़ारूक़ ने सवाल पूछा कि एक चरमपंथी को छोड़ने की मांग बढ़कर पाँच कैसे हो गई? अगर मेरी बेटी का भी वो अपहरण कर लें, तब भी मैं उनको रिहा नहीं करूँगा.
दुलत लिखते हैं, “फ़ारूक़ ने मेरे सामने मुफ़्ती को फ़ोन मिलाकर कहा, देखिए हम अपना पूरा ज़ोर लगा रहे हैं. मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि मैं कुछ भी गड़बड़ी नहीं होने दूँगा. मुफ़्ती साहब मैं आपकी बेटी के लिए वो सब कुछ कर रहा हूँ, जो मैंने अपनी ख़ुद की बेटी के लिए किया होता.”
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लेकिन 13 दिसंबर की सुबह प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने फ़ारूक़ को फ़ोन करके पाँच चरमपंथियों को रिहा करने का अनुरोध किया.
फ़ारूक़ ने तब भी ऐसा करने में अपनी झिझक दिखाई. कुछ ही घंटों में वीपी सिंह के मंत्रिंमंडल में मंत्री इंद्र कुमार गुजराल और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख एमके नारायणन के साथ श्रीनगर पहुँच गए.
दुलत लिखते हैं, “जब मैंने फ़ारूक़ को बताया कि मैं इन लोगों को लेने एयरपोर्ट जा रहा हूँ, तो उन्होंने मुझसे कहा कि वो उन्हें सीधे उनके निवास स्थान पर ले आऊँ. ये बैठक दो घंटे तक चली. इस बीच हम लोगों ने तीन प्याली चाय पी डाली. आख़िर में इन दो मंत्रियों ने फ़ारूक़ को कमरे के बाहर ले जाकर कहा कि उन्हें क्या करना है.”
उन्होंने आगे लिखा है, “फ़ारूक़ का जवाब था, अगर आप उन्हें छोड़ देना ही चाहते हैं तो छोड़ दीजिए. लेकिन मैं अपना विरोध दर्ज कराना चाहता हूँ. उन्होंने साफ़-साफ़ कहा कि अगर सरकार धीरज रखे, तो रुबैया को बिना किसी हानि के छुड़वाया जा सकता है वो भी बिना किसी चरमपंथी को छोड़े हुए. लेकिन अगर सरकार ने उनकी बात मान ली, तो बाँध टूट जाएगा और फिर कश्मीर में चरमपंथ को बढ़ने से कोई नहीं रोक सकेगा.”
उसी दिन दोपहर 3 बजे पाँचों चरमपंथियों को अवामी एक्शन कमेटी के मुख्यालय मीरवाइज़ मंज़िल के पास राजौरी कदल में रिहा कर दिया गया.
वहाँ उनके स्वागत में एक बड़ी भीड़ जमा हो गई और उनको एक जुलूस की शक्ल में श्रीनगर की सड़कों पर घुमाया गया.
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कुछ घंटे बाद शाम सात बजे रुबैया सईद को रिहा कर दिया गया. इससे पहले रिहा किए गए सभी चरमपंथी भूमिगत हो गए.
मनोज जोशी लिखते हैं, “जब इन चरमपंथियों की रिहाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले केंद्रीय मंत्री दिल्ली जाने के लिए हवाई अड्डे जा रहे थे, उन्हें रास्ते में इन चरमपंथियों की रिहाई पर ख़ुशी मनाता हुजूम दिखाई दिया. इन मंत्रियों को हवाई-अड्डे छोड़ने जाने वाले अधिकारियों की कारें जब वापस आ रही थीं तो उत्साहित भीड़ ने उन्हें रोककर आंदोलन के लिए उनसे चंदा मांगा.”
इस घटना ने चरमपंथी हिंसा के दरवाज़े खोल दिए और अपहरणों की झड़ी-सी लग गई.
छह अप्रैल, 1990 को कश्मीर विश्वविद्यालय के उप-कुलपति मुशीरुल हक़ और उनके निजी सचिव अब्दुल ग़नी और श्रीनगर में हिंदुस्तान मशीन टूल्स के महाप्रबंधक एचएल खेड़ा का अपहरण कर लिया गया.
सरकार ने इनके बदले में चरमपंथियों की रिहाई की माँग ठुकरा दी, जिसके बाद इन तीनों की हत्या कर दी गई.
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अगस्त, 1991 में जब श्रीनगर के दौरे पर आए भारतीय तेल निगम के कार्यकारी निदेशक के दुरैस्वामी का अपहरण हुआ, तो सरकार ने उनकी रिहाई के बदले फिर पाँच चरमपंथियों को छोड़ दिया.
पीएलडी पारिमू ने अपनी किताब ‘कश्मीर एंड शेर ए कश्मीर: ए रिवोल्यूशन डिरेल्ड’ में लिखा, “हिंदू, मुस्लिम और सिखों के प्रभावशाली सदस्यों की चुन-चुन कर हत्या भय का माहौल बनाने और वैचारिक मतभेदों का गला घोटने के लिए की गई. 1989 के बाद से कई लोग जो चरमपंथियों के उद्देश्यों से सहमत नहीं थे और समस्या के शांतिपूर्ण समाधान की तरफ़ लोगों की सोच को मोड़ सकते थे, उनका निशाना बन गए.”
दो दशकों तक छिटपुट हिंसक गतिविधियों में लगे जेकेएलएफ़ को पहली बार ये आभास हुआ था कि वो सरकार को घुटनों पर ला सकते हैं.
इस तरह रुबैया सईद के अपहरण और पाँच चरमपंथियों की रिहाई को कश्मीर में अलगाववाद के इतिहास में एक टर्निंग प्वाइंट के रूप में देखा जाता है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.