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चुनावी साल में बिहार कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह की छुट्टी कर दी गई है. उनकी जगह राजेश कुमार को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया है.
बिहार कांग्रेस में राजेश कुमार को मिलाकर कुल 42 प्रदेश अध्यक्ष हुए हैं.
राजेश, बिहार कांग्रेस के चौथे दलित अध्यक्ष हैं. इससे पहले 1977 में मुंगेरी लाल, 1985 में डुमर लाल बैठा और 2013 में अशोक चौधरी दलित अध्यक्ष बने थे.
बिहार कांग्रेस के नए अध्यक्ष राजेश कुमार ने मीडिया से बातचीत में कहा है कि राहुल गांधी ने उन्हें चुनकर बिहार में सामाजिक न्याय की विचारधारा शुरू कर दी है.
उन्होंने, “हम लोग बिहार में 23 फ़ीसदी की राजनीति करने जा रहे हैं. हमारा लक्ष्य दलित, अल्पसंख्यक और सवर्ण को साधना है. लेकिन इसके लिए जुनून के साथ काम करने की जरूरत है, जो हम करेंगें.”
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इससे पहले राजेश कुमार की नियुक्ति के पत्र में कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने 18 मार्च को लिखा , “पार्टी अखिलेश प्रसाद सिंह के योगदान की सराहना करती है.”
दरअसल, इस साल की शुरुआत से ही सक्रिय दिख रही बिहार कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन तय माना जा रहा था.
साथ ही ये भी लगभग तय था कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व किसी दलित नेता के हाथ में ही बिहार कांग्रेस की कमान सौंपेगा.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पहले 18 जनवरी को पटना में आयोजित संविधान सुरक्षा सम्मेलन और फिर पाँच फ़रवरी को दलित नेता जगलाल चौधरी की जयंती में शिरकत करके दलित वोटों की गोलबंदी का इरादा ज़ाहिर कर दिया था.
ऐसे में ये सवाल अहम है कि चुनावी वर्ष में बिहार कांग्रेस क्या बैक टू रूट्स मोड में है?
इस नेतृत्व परिवर्तन के मायने क्या हैं? साथ ही क्या अखिलेश प्रसाद सिंह की छुट्टी और महागठबंधन में कांग्रेस के ‘ए’ टीम बनने की तैयारी में कोई संबंध है?
कौन हैं राजेश कुमार?
राजेश कुमार, बिहार के औरंगाबाद ज़िले के कुटुंबा विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं.
वो साल 2015 और 2020 में इस सीट से जीते. कुटुंबा सीट 2008 में परिसीमन के बाद बनी थी और ये अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट है.
मूल रूप से औरंगाबाद के ओबरा के रहने वाले राजेश कुमार के पिता दिलकेश्वर राम भी कांग्रेस से 1980 और 1985 में विधायक रहे.
वो औरंगाबाद की देव सीट से विधायक थे. दिलकेश्वर राम, कांग्रेस सरकार में पशुपालन-मत्स्य मंत्री और स्वास्थय मंत्री भी बने थे.
56 साल के राजेश कुमार ने साल 2015 में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के बेटे और फिलहाल बिहार सरकार में मंत्री संतोष कुमार सुमन को हराया था.
साल 2020 में राजेश कुमार ने हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के ही श्रवण मांझी को हराया.
राजेश कुमार साल 2010-16 के बीच प्रदेश कांग्रेस कमिटी के महासचिव रहे.
वो पार्टी की अनुसूचित जाति-जनजाति प्रकोष्ठ के भी अध्यक्ष रहे. राजेश कुमार ने 1989 से संत कोलंबस कॉलेज हजारीबाग से ग्रैजुएशन किया था.
बिहार कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता राजेश राठौड़ कहते हैं, “राजेश कुमार के अध्यक्ष बनने से पार्टी कार्यकर्ताओं में ख़ुशी है और इसका लाभ पार्टी के साथ-साथ महागठबंधन को भी मिलेगा.”
बुरे दिनों के साथी हैं राजेश कुमार
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वरिष्ठ पत्रकार और राजस्थान पत्रिका के बिहार ब्यूरो प्रमुख प्रियरंजन भारती कहते हैं, “राजेश कुमार कांग्रेस के बुरे दिनों के साथी है. इनका परिवार समर्पित कार्यकर्ता रहा है.”
“वर्तमान में बिहार सरकार में मंत्री अशोक चौधरी जब कांग्रेस छोड़कर जा रहे थे, तो इन्होंने जेडीयू में ये कहकर जाने से इनकार कर दिया था कि सदाकत आश्रम (पार्टी दफ्तर) में झाडू लगा लूंगा लेकिन कांग्रेस छोड़कर नहीं जाऊंगा.”
औरंगाबाद से प्रकाशित अख़बार नवबिहार टाइम्स के संपादक कमल किशोर भी बताते हैं, “दिलकेश्वर राम इस इलाक़े के लोकप्रिय नेता थे. इसकी वजह थी कि उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए ग्रामीण इलाक़ों में स्वास्थ्य उप केन्द्र अच्छी संख्या में खुलवाए थे.”
“राजेश कुमार भी शांत और सहज स्वभाव के हैं. अपनी इसी छवि और पिता की विरासत का फ़ायदा उन्हें मिला है.”
राजेश कुमार दलित हैं. बिहार में हुए जातीय सर्वे के मुताबिक़ रविदास जाति 5.25 फ़ीसदी है. राजेश कुमार इसी जाति से ताल्लुक रखते हैं. बिहार में दलितों की आबादी 19 फ़ीसदी है.
अभी अगर बिहार में तीन प्रमुख राजनीतिक दलों यानी बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी को देखें तो किसी भी पार्टी का अध्यक्ष दलित नहीं है.
किसी दलित को अध्यक्ष नियुक्त करना बिहार कांग्रेस के लिए “बैक टू रूट्स” जैसा है. दरअसल, 90 तक बिहार में सत्तासीन रही कांग्रेस का वोट बैंक सवर्ण, मुस्लिम और दलित थे.
कांग्रेस ने जहां एक तरफ़ कन्हैया को सक्रिय कर सवर्णों को साधने की कोशिश की है, वहीं राजेश कुमार को लाकर दलित वोटों को.
अखिलेश प्रसाद सिंह की छुट्टी क्यों हुई?
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दिसंबर 2022 में अखिलेश प्रसाद सिंह को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था. उनसे पहले मदन मोहन झा कांग्रेस अध्यक्ष थे. कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष का कार्यकाल तीन साल का होता है.
इस हिसाब से अखिलेश प्रसाद सिंह का कार्यकाल दिसंबर 2025 में ख़त्म होना चाहिए. लेकिन, नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें बीती 18 जनवरी से ही लगने लगी थी.
इस वक्त राहुल गांधी संविधान सुरक्षा सम्मेलन में हिस्सा लेने पटना आए तो सदाकत आश्रम (पार्टी दफ्तर) में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की अच्छी संख्या में जुटान हुआ था. लेकिन, राहुल गांधी यहां महज़ आठ मिनट बोले.
इसके बाद चार फ़रवरी को राहुल गांधी फिर पटना आए. लेकिन, राहुल गांधी के पटना आगमन के इन दोनों कार्यक्रम की जानकारी बिहार कांग्रेस को नहीं थी.
पार्टी को ये जानकारी आयोजकों से मिली. ऐसे में अखिलेश प्रसाद सिंह से राहुल गांधी की नाख़ुशी की अटकलें लगने लगी थीं.
इन अटकलों को मज़बूती तब मिली जब फ़रवरी में कृष्णा अल्लवारू कांग्रेस प्रभारी बनाए गए और उन्होंने मार्च में कन्हैया के साथ बिहार में पदयात्रा का कार्यक्रम तय कर लिया.
16 मार्च को शुरू हुई पदयात्रा से पहले बीते 10 मार्च को पार्टी दफ्तर में हुई प्रेस कॉन्फ़्रेंस में अखिलेश प्रसाद सिंह मौजूद नहीं थे.
इसके बाद 12 मार्च को दिल्ली में बिहार कांग्रेस के प्रमुख नेताओं के साथ राहुल गांधी की बैठक भी टाल दी गई. पार्टी सूत्रों के मुताबिक़, केंद्रीय नेतृत्व किसी तरह की कलह को सतह पर आने नहीं देना चाहती थी.
क्या कन्हैया की एंट्री ने असहजता बढ़ा दी?
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दरअसल, राज्यसभा सांसद अखिलेश प्रसाद सिंह की छवि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के क़रीबी होने की है.
कृष्णा अल्लवारू ने कांग्रेस प्रभारी बनने के बाद अन्य कांग्रेस प्रभारियों से अलग अब तक राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव या किसी अन्य नेता से मुलाक़ात नहीं की है.
साथ ही वो ये दोहराते रहे हैं कि वो कांग्रेस को बी टीम नहीं बल्कि ए टीम बनाना चाहते हैं.
जानकारों की मानें तो कृष्णा अल्लवारू के साथ अखिलेश प्रसाद सिंह पहले ही सहज महसूस नहीं कर रहे थे और कन्हैया को, ‘नौकरी दो पलायन रोको’ यात्रा का चेहरा बनने से इस असहजता को बढ़ा दिया है.
पत्रकार प्रियरंजन भारती कहते हैं, “कांग्रेस अब लालू की जेब में नहीं रहना चाहती, बल्कि अपने संगठन को मज़बूत करना चाहती है. इसलिए कांग्रेस तन कर खड़ी हो गई है.”
“पार्टी ने राजेश कुमार को अध्यक्ष बनाकर दलित कार्ड खेला है, साथ ही सवर्णों को साधने की कोशिश की है. लालू यादव के प्रभाव में कन्हैया को पीछे धकेल दिया गया था, लेकिन पार्टी उसे फ्रंट में लाई है.”
“ज़ाहिर तौर पर अखिलेश प्रसाद लालू यादव के क़रीबी रहे हैं, उनके रहते इस काम में मुश्किल आती.”
1990 के बाद कांग्रेस का पतन हुआ, वहीं दूसरी तरफ़ राजद की सत्ता में पकड़ मज़बूत होती गई.
पार्टी की हालत ये भी कि 1985 तक ही पार्टी की जीत का आंकड़ा तीन अंकों को छू पाया था. साल 2010 में जब पार्टी ने राजद से अकेले लड़ी तो पार्टी को मात्र चार सीट मिली थी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.