इमेज कैप्शन, झारखंड से केरल पहुंचे मज़दूर बरन मरांडी मुश्किल में फंसे तो पुलिस ने मदद की….में
झारखंड के एक शख़्स का केरल में तैनात एक पुलिस सब-इंस्पेक्टर को ‘भगवान जैसा’ कहना अजीब लग सकता है.
लेकिन पूर्वी सिंहभूम ज़िले के बोता गांव के रहने वाले 30 साल के खेतिहर मज़दूर बरन मरांडी का गला ये कहते हुए रुंध जाता है, ”वो भगवान जैसे आए थे. मेरा परिवार वही कहता है. वो बहुत ही बढ़िया आदमी था.”
कुंजीकुज़ी पुलिस स्टेशन के सब-इंस्पेक्टर ताजुद्दीन अहमद के लिए बरन की यह तारीफ़ उस अनुभव से जुड़ी है, जिससे वो पिछले सप्ताह केरल के इडुक्की ज़िले के पांबला इलाक़े में गुज़रे थे. वह झारखंड से अपनी पत्नी और बच्चों से मिलने वहां पहुंचे थे.
बरन झारखंड से ट्रेन से एर्नाकुलम पहुंचे. वहां उन्हें एक बस ड्राइवर मिला जो हिंदी बोल सकता था.
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बरन कहते हैं, ”मैंने उसे पता दिखाया. उसने कहा कि इसी बस में बैठो. मेरे पास सिर्फ़ 200 रुपये थे, वही मैंने उसे दे दिए.”
जब बस पांबला पहुंची तो ड्राइवर ने कहा कि यही वो जगह है, जहां उन्हें पहुंचना था.
बरन बस से उतरे और इडुक्की ज़िले के उदुमनचोला तालुका के चक्कुप्पावलम गांव का रास्ता पूछने लगे.
‘मैं पागल जैसा हो गया था’
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इमेज कैप्शन, इडुक्की में भटकते बरन मरांडी पुलिस जीप के पास
बरन की बात कोई भी नहीं समझ पा रहा था. बरन को मलयालम नहीं आती थी और स्थानीय लोगों को हिंदी नहीं आती थी.
जिस गांव को वह ढूंढ रहे थे, उसका नाम भी कोई नहीं समझ पा रहा था. असल में वह गांव उस जगह से क़रीब 80 किलोमीटर दूर था, जहां वह बस से उतरे थे.
बरन कहते हैं, “मैं इधर-उधर घूमता रहा, यह सोचकर कि गांव पास ही होगा. भाषा नहीं जानने की वजह से मैं किसी से यह भी नहीं कह सका कि वह उस नंबर पर फ़ोन कर दे, जो मैंने काग़ज़ पर लिखा था. मेरे पास फ़ोन भी नहीं था.”
बरन ने बताया, ”मैं पागल हो गया था. मुझे रोना भी आता था. मेरे पास पैसा भी नहीं था. जो था, वो बस के लिए दे दिया था.”
पांबला इलाके में कई लोगों ने उन्हें इधर-उधर भटकते देखा, लेकिन किसी ने कुछ नहीं कहा.
हालांकि एक बस कंडक्टर को शक हुआ. उसकी पत्नी और बच्चे घर में अकेले थे और उसे ड्यूटी पर जाना था. लेकिन उसने पुलिस को सूचना दी कि एक आदमी कंधे पर थैला लटकाए इलाके़ में घूम रहा है.
शुरुआत में पुलिस उसे नहीं ढूंढ पाई. काफ़ी देर बाद उसे गांव के बाहर एक छोटे डैम के पास पाया गया.
पुलिस की भूमिका
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इमेज कैप्शन, बरन मरांडी को बस में बिठाकर उनकी मंज़िल तक पहुंचाने का इंतज़ाम करते पुलिस सब-इंस्पेक्टर ताजुद्दीन अहमद
सब-इंस्पेक्टर ताजुद्दीन अहमद ने बीबीसी न्यूज़ हिन्दी से कहा, “वह बहुत परेशान, थका हुआ, कांपता हुआ और बदहवास दिख रहा था. लेकिन जब मैंने उससे हिंदी में बात की, तो उसने जवाब दिया.”
उन्होंने बताया कि उनके साथ सब-इंस्पेक्टर अजीत कुमार और हेड कांस्टेबल शेरिफ़ पीए ने बरन के लिए खाने की व्यवस्था की.
पुलिस ने बरन का थैला चेक किया. उसमें कुछ कपड़े, आधार कार्ड और एक काग़ज़ पर लिखा हुआ एक फ़ोन नंबर मिला. जब उस नंबर पर फ़ोन किया गया तो पता चला कि वह चक्कुप्पावलम स्थित एक आश्रम के निदेशक का नंबर है.
नंदीशा आश्रम के निदेशक अशोकन पालपांडी ने पुलिस को बताया कि बरन की पत्नी ने उसकी गुमशुदगी की शिकायत भी दर्ज कराई थी, क्योंकि उसे तीन दिन पहले गांव पहुंच जाना था.
अहमद कहते हैं, “खाना खाने के बाद वह थोड़ा बेहतर महसूस करने लगा. उसने बताया कि वह यहां भटकता रहा और पैसे न होने की वजह से कुछ खा नहीं पाया. हमने उसे उसकी मंज़िल तक ले जाने वाली बस का इंतज़ाम किया और ड्राइवर को उसकी स्थिति समझाई.”
बस ड्राइवर से कहा गया कि वह यह सुनिश्चित करे कि बरन को सीधे आश्रम तक छोड़े और वहां पहुंचने पर उसकी पत्नी के साथ एक तस्वीर भेजे.
अहमद ने कहा, ”ड्राइवर ने ऐसा ही किया. तस्वीर मिलने के बाद ही हमें राहत मिली.”
बरन केरल क्यों आए?
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इमेज कैप्शन, केरल पहुंचे बरन मरांडी पत्नी मिरी सोरेन के साथ
बरन कहते हैं, “लोगों ने बताया था कि केरल में काम मिलता है और मज़दूरी भी अच्छी है. इसलिए हम यहां आए. मेरी पत्नी और बच्चे पहले आ गए थे.”
बरन एक खेतिहर मज़दूर हैं. झारखंड में उनके पास दो-तीन खेता ज़मीन है. एक खेता क़रीब 720 वर्ग फ़ुट का होता है. लेकिन ज़मीन से ज़्यादा आमदनी नहीं होती.
बरन ने बताया कि झारखंड में खेत में काम करने पर उन्हें क़रीब 300 रुपये रोज़ मिलते थे. बाज़ार में मज़दूरी करने पर 400 रुपये मिलते थे. इडुक्की में उन्हें 500 रुपये रोज़ मिल रहे हैं.
वह कहते हैं, “मैंने इलायची के बागान में काम शुरू कर दिया है.”
बरन वहां मल्चिंग का काम करते हैं. एक बड़ी वजह यह भी है कि नंदीशा आश्रम अपने बागान में काम करने वाले मज़दूरों को रहने की सुविधा देता है.
मल्चिंग मिट्टी को किसी सामग्री की परत से ढकने को कहते हैं. मिट्टी की सेहत सुधारने, पानी बचाने, खरपतवारों को नियंत्रित करने और मिट्टी के तापमान को नियंत्रित करने के लिए लकड़ी के बुरादे, भूसे या प्लास्टिक जैसी चीज़ों का इस्तेमाल किया जाता है. इससे बागों और खेतों को फ़ायदा होता है.
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इमेज कैप्शन, मददगार पुलिसकर्मी (बाएं से दाएं) – सब-इंस्पेक्टर अजित कुमार, सब-इंस्पेक्टर ताजुद्दीन अहमद और हेड-कांस्टेबल मुफ़्ती शेरिफ़ पी.ए
आश्रम में क़रीब 200 मज़दूर परिवार रहते हैं, जिनमें उत्तर भारत, तमिलनाडु, असम और पश्चिम बंगाल के लोग शामिल हैं.
फ़िलहाल असम और पश्चिम बंगाल के मज़दूर चुनाव की वजह से अपने-अपने राज्यों में हैं.
अशोकन पालपांडी ने बीबीसी न्यूज़ हिन्दी को बताया, “सभी लोग बागान में काम करते हैं. मज़दूरों के लिए पक्के मकान हैं और उनका कोई किराया नहीं लिया जाता. हर हफ्ते राशन के लिए पैसे दिए जाते हैं. वेतन हर महीने दिया जाता है. इसके अलावा सालाना 21,900 रुपये का बोनस भी दिया जाता है.”
यह आश्रम हारो वेलफे़यर फ़ाउंडेशन नाम के एक एनजीओ के तहत चलता है, जो बुज़ुर्गों को भोजन भी मुहैया कराता है.
अशोकन कहते हैं कि अगले शैक्षणिक सत्र में मज़दूरों के बच्चों के लिए स्कूल शुरू करने की योजना है. समस्या यह है कि झारखंड से आने वाले कई लोगों के पास बच्चों के जन्म प्रमाण पत्र नहीं हैं.
बरन इस बात से खुश हैं कि उन्हें उसी बागान में काम मिल गया है, जहां उनकी पत्नी भी काम करती हैं. उनकी पत्नी को 400 रुपये रोज़ मिलते हैं. वह अपने दो छोटे बेटों, एक बेटी और पति के साथ रहती हैं.
बरन कहते हैं, “अगर हम उनसे (पुलिस सब-इंस्पेक्टर ताजुद्दीन) मिलेगा, तो हम उनको थैंक्यू बोलेगा.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.