आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अहम टिप्पणी की है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुलिस के लिए आईपीसी की धारा 306 का सहारा लेना बहुत ही सरल लगता है और उन्हें इस संबंध में संवेदनशीलता से काम लेने की जरूरत है। इसी के साथ कोर्ट ने एमपी हाईकोर्ट के एक फैसले को पलट दिया।
पीटीआई, नई दिल्ली। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस आत्महत्या से जुड़े एक मामले पर सुनवाई करते हुए अहम टिप्पणी की है। अक्सर देखा जाता है कि आत्महत्या के मामले में पुलिस की ओर से धारा 306 लगा दी जाती है। एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये धारा केवल पीड़ित परिवार की भावनाओं को शांत करने के लिए इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि भारतीय दंड संहिता के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला मशीनी अंदाज में सिर्फ इसलिए नहीं बनाना चाहिए क्योंकि मृतक के परिवार के सदस्यों की भावनाओं को उससे राहत मिलती है। ऐसे मामलों में जांच एजेंसियों को संवेदनशील बनाने की जरूरत है ताकि किसी व्यक्ति को न्यायिक प्रक्रिया के तहत अपुष्ट अभियोजन के आधार पर निशाना नहीं बनाया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
जस्टिस अभय एस ओका और केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने शुक्रवार को कहा कि पुलिस के लिए आईपीसी की धारा 306 का सहारा लेना बहुत ही सरल लगता है और उन्हें इस संबंध में संवेदनशीलता से काम लेने की जरूरत है।
इस कानूनी प्रविधान को किसी व्यक्ति के खिलाफ सिर्फ इसलिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए कि इससे मारे गए व्यक्ति के परिवार की भावनाओं को फौरी राहत मिलेगी। जबकि असली मामलों में जहां जांच में हालात वैसे ही नजर आ रहे हैं, वहां आरोपित व्यक्ति को कतई बख्शा नहीं जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में मारे गए व्यक्ति और प्रस्तावित आरोपित के आपसी बर्ताव पर नजर रखनी चाहिए। दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु से पहले उनके बीच की बातचीत और व्यवहार पर व्यवहारिक नजरिया अपनाना चाहिए। ऐसे मामलों में रोजमर्रा की जिंदगी की वास्तविकता से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। इसलिए सुनवाई अदालतों को ऐसे मामलों में ‘लकीर के फकीर’ बनने की आदत से बचना चाहिए। यंत्रवत आरोप तय करने की परंपरा बदलनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने पलटा हाईकोर्ट का फैसला
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