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सुप्रीम कोर्ट ने 30 जनवरी को अपने आदेश में सिर पर मैला ढोने और गटर में उतरकर मजदूरी करने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने का फैसला सुनाया था.
इसके बावजूद, चार दिनों बाद ही कोलकाता के ‘लेदर कॉम्प्लेक्स’ में तीन मजदूरों की मौत हो गई, जबकि नंदीग्राम में दो और लोगों ने जान गंवा दी.
इस घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट ने ‘कोलकाता म्युनिसिपल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी’ के मुख्य कार्यपालक अभियंता को तलब किया और सरकार से जवाब मांगा.
सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा कि ये प्रथा संविधान के अनुच्छेद 17 और 21 का उल्लंघन है और इसे पूरी तरह से ख़त्म करना बेहद जरूरी है.
वहीं, पीड़ित परिवारों का कहना है कि वे अपने घरों के कमाने वाले सदस्यों को खो चुके हैं और सरकार से मुआवजा और न्याय की मांग कर रहे हैं.
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सुप्रीम कोर्ट का आदेश और कानूनी स्थिति
सुप्रीम कोर्ट ने 30 जनवरी को अपने आदेश में कहा था कि दो दशकों से प्रतिबंध के बावजूद ये प्रथा अब भी जारी है, जबकि इसे लेकर ‘एम्प्लॉयमेंट ऑफ़ मैन्युअल स्कैवेंजर एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ़ ड्राई लैट्रीन (प्रोहिबिशन) एक्ट, 1993’ पहले से मौजूद है.
अदालत ने ये भी कहा कि उसके हस्तक्षेप की वजह से सरकार को इस कानून में 2013 में संशोधन करना पड़ा था, जिससे इसे और सख्त बनाया जा सके.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि 1993 से लेकर अब तक इस काम को करते हुए जितने भी मजदूरों की मौत हुई है, उनकी जानकारी जुटाई जाए और पीड़ित परिवारों को 10 लाख रुपए मुआवजे के रूप में दिया जाए.
अदालत ने साफ़ किया कि शीर्ष अदालत की निगरानी जरूरी नहीं है, लेकिन राज्य सरकारों को अपने स्तर पर इसे ख़त्म करने की दिशा में प्रयास करने होंगे और उल्लंघन करने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानूनी कार्रवाई करनी होगी.
लेकिन आदेश के बाद भी लोगों ने गंवाई जान
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देश के सबसे बड़े कोर्ट के आदेश, टिप्पणी और निर्देशों के बावजूद पश्चिम बंगाल में लोगों को अपनी जान इस ‘प्रथा’ की वजह से गंवानी पड़ी है. मामला कोलकाता के ‘लेदर कॉम्प्लेक्स’ का है, जहां जब तीन श्रमिक गटर में उतरे और जहरीली गैस की चपेट में आकर उन्होंने दम तोड़ दिया.
एक ऐसी ही घटना पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में हुई, जहां एक निजी मकान की सफाई के दौरान दो लोगों की मौत हो गई, जबकि मकान मालिक गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती हैं.
कोलकाता की घटना के सिलसिले में अब तक सिर्फ़ एक ठेकेदार की गिरफ्तारी हुई, लेकिन उसे जल्द ही ज़मानत मिल गई.
मजदूरों का दावा है कि कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन की सफाई मशीनें ठीक से काम नहीं कर रही थीं, जिससे सीवेज जमा हो गया था.
पश्चिम बंगाल सरकार ने पीड़ित परिवारों के लिए 10-10 लाख रुपये मुआवजे की घोषणा की, लेकिन परिवारों का कहना है कि ये उनकी जिंदगी की भरपाई नहीं कर सकता.
अपनों को खोने वाले क्या कह रहे हैं?
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मृत श्रमिक संदेशखाली और मुर्शिदाबाद के रहने वाले थे, जो रोज़गार की तलाश में कोलकाता गए थे. कोलकाता से संदेशखाली की दूरी लगभग 50 किलोमीटर है. मृतकों में शामिल 32 साल के सुमन सरदार इसी इलाके के आदिवासी बहुल पतनीपाड़ा के रहने वाले थे. उनके पिता देख नहीं सकते हैं, और बूढ़ी मां बेटे की मौत की ख़बर को अब भी मान नहीं पा रही हैं.
सुमन की मां रोते हुए कहती हैं, “मेरा एक ही बेटा था. एक बेटी भी है. काम पर जाने से पहले वो बोला था, मां, मैं सरस्वती पूजा के दिन आ जाऊंगा. अब हमारे घर में काम करने वाला कोई नहीं है. कौन कमाने जाएगा हमारे लिए? वो (सरकार) मेरी बहू को नौकरी दे दें. मेरी तो उम्र हो गई है अब.”
सुमन के पिता दयाल सरदार दीवार को टटोलते हुए लाठी के सहारे हमारे पास आकर बैठते ही कहते हैं कि उन्होंने कभी अपने बेटे को दूर नहीं जाने दिया था.
उन्होंने बताया, “मैं उसे बाहर जाने नहीं देता था. मैं उससे कहता था कि तुम बिल्कुल बुद्धू हो. यहीं पर कुछ मजदूरी कर लो, हम उसी से काम चला लेंगे. लेकिन उसने मेरी नहीं सुनी. वो दूसरे लड़कों के साथ कोलकाता चला गया.”
सुमन की पत्नी सोनामोनी सरदार ने कहा कि उनके चार बच्चे हैं, सभी लड़कियां हैं, और सबसे बड़ी बेटी 12 साल की है.
उन्होंने बताया, “वो ये गटर साफ़ करने का काम नहीं करता था. उसे इसके बारे में कुछ पता ही नहीं था. जो लोग उसे मज़दूरी के लिए ले गए थे, उन्होंने उससे जबरदस्ती ये काम करवाया. मैं चाहती हूँ कि उन्हें इसकी सज़ा मिले.”
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संदेशखाली और मुर्शिदाबाद की दूरी लगभग 250 किलोमीटर है. मुर्शिदाबाद के आयरमाड़ी पंचायत में उसी हादसे में दो और लोगों की भी मौत हुई थी.
इसी में से एक थे हसीबुर शेख़. हसीबुर की हाल ही में शादी हुई थी, और घटना के वक्त उनकी पत्नी अपने मायके में थीं.
हसीबुर की मां तस्मीरा बीबी, जो काफी बुजुर्ग हैं, अब तक सदमे में हैं. उनके तीन और जवान बेटे हैं, जिनमें हसीबुर दूसरा बेटा था.
उन्होंने बताया, “मेरे एक बेटे ने मुझसे पूछा कि मां, हसीबुर को क्या हुआ? मैंने कहा, मुझे कुछ भी नहीं मालूम. तुम अपने बड़े भाई से पूछो. फिर मंझले बेटे ने बड़े बेटे से फोन पर बात की, लेकिन कोई फोन नहीं आया. मैं अपना फोन हाथ में लेकर ही बैठी रही. फिर बड़े बेटे का फोन आया. वो बोला, ‘मां, हसीबुर अब इस दुनिया में नहीं है’.”
इसी गांव के रहने वाले शेख़ लुतफुर रहमान कई सालों से सीवेज़ के गटर साफ़ करने का काम करते आ रहे हैं. वो ये काम कोलकाता में ही करते थे, लेकिन अब उन्होंने इसे छोड़ दिया है.
उन्होंने कहा, “गटर में उतरना आसान नहीं है, क्योंकि उसके अंदर से ज़हरीली गैस निकलती रहती है. अगर एक बार कोई बेहोश हो जाए, तो उसका बच पाना मुश्किल होता है.”
घटना के दिन लुतफुर भी वहीं मौजूद थे. उन्होंने कहा, “तीनों श्रमिक पहले ही मैनहोल में जा चुके थे. मैं जब तक पहुंचा, तब तक दो मर चुके थे. हसीबुर भी जल्दी से नीचे उतरा, उन्हें बचाने के लिए, लेकिन वह तुरंत ही बेहोश हो गया और फिर उसकी सांसें बंद हो गईं.”
टेनरी एसोसिएशन और मजदूरों के अलग-अलग बयान
सवाल ये भी है कि कौन लोग हैं जो मजदूरों को ज़बरदस्ती इस ख़तरनाक काम में धकेल रहे थे?
बीबीसी ने कोलकाता लेदर कॉम्प्लेक्स के थाना प्रभारी दीपांकर बिस्वास से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने इस पूरे मामले पर कोई भी टिप्पणी करने से इनक़ार कर दिया.
सरकार की ओर से कहा गया कि श्रमिक एक ठेकेदार के अधीन काम कर रहे थे. पश्चिम बंगाल के नगर विकास मंत्री फिरहाद हकीम, जिनके अधीन ‘कोलकाता म्युनिसिपल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी’ आता है, वो घटना पर हैरानी जता रहे हैं.
कोलकाता के टेनरी (चमड़ा) कारखानों के संघ ने बयान जारी कर कहा कि ये सफाई कार्य ‘कोलकाता म्युनिसिपल डेवलपमेंट कारपोरेशन’ के मुख्य अभियंता की देखरेख में हो रहा था.
बयान में ये भी कहा गया कि चमड़े के कारखानों से ज़हरीले केमिकल मैनहोल में नहीं डाले जाते हैं.
हालांकि, टेनरी एसोसिएशन के किसी भी पदाधिकारी ने इस मुद्दे पर बात करने से इनकार कर दिया.
इस बयान से अलग, कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की राय कुछ और ही थी.
9 नंबर के नाम से पहचाने जाने वाले इलाके में सुबह के समय श्रमिक जमा होते हैं, और वहां से ठेकेदार उन्हें अलग-अलग कारखानों में काम पर भेजते हैं.
यहीं पर खड़े एक श्रमिक ने हमें सड़क की ओर इशारा करते हुए कहा, “पूरा मल, कचरा और कीचड़ जमा है चारों तरफ़. कोई देखने-सुनने वाला नहीं है. क्या करें? हम कारखाने में काम करके वापस चले जाते हैं, लेकिन इलाके की सही से सफ़ाई नहीं हो रही है.”
एक दूसरे श्रमिक ने कहा, “कोलकाता म्युनिसिपल कारपोरेशन की सफाई मशीनें कॉम्प्लेक्स में आती तो हैं, मगर मल और गटर सही से साफ़ नहीं हो पाते. आप खुद देखिए, कहाँ सफ़ाई हो रही है? पूरा रास्ता कीचड़, मल, केमिकल और सीवेज से भरा हुआ है.”
एक श्रमिक ने बताया कि उनके बच्चे हमेशा उनसे कहते हैं कि पापा, ये काम मत करो.
उन्होंने कहा, “लेकिन क्या करें? पैसे भी तो कमाने हैं, घर चलाने के लिए.”
सरकार की तरफ़ से क्या कहा गया, विपक्ष की प्रतिक्रिया
पश्चिम बंगाल सरकार के नगर विकास मंत्री फिरहाद हकीम ने कहा कि ये काम ‘कोलकाता म्युनिसिपल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी’ के अभियंताओं और सुपरवाइज़र्स की देखरेख में चल रहा था.
उन्होंने कहा, “मैं स्वीकार करता हूँ कि ये नरक जैसा है. मैंने ‘कोलकाता म्युनिसिपल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी’ को जांच करने का निर्देश दिया है, ये जानने के लिए कि घटना के समय कौन से अधिकारी मौजूद थे और उनकी क्या ज़िम्मेदारी थी जब मज़दूर अंदर जा रहे थे? पुलिस भी अलग से जांच कर रही है.”
राज्य के प्रमुख विपक्षी दल यानी भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि प्रदेश में आर्थिक स्थिति अब इतनी ख़राब हो चुकी है कि सिर्फ़ कुछ पैसे कमाने के लिए लोग अपनी जान तक दांव पर लगाने को मजबूर हैं.
बीजेपी प्रवक्ता शमीक भट्टाचार्य ने कहा, “आज पश्चिम बंगाल की ग़रीब जनता की हालत क्या है? यही वजह है कि लोग अपनी जान की परवाह किए बिना ही ऐसे काम कर रहे हैं ताकि अपने परिवार और बच्चों का पेट पाल सकें.”
श्रमिक संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रिया
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गटर में काम करने वाले श्रमिकों के बीच काम करने वाले इस घटना को ठेकेदारों के लालच और मजदूरों की मजबूरी का नतीजा मानते हैं.
सफ़ाई मजदूरों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता जयगोपाल डे कहते हैं, “यहां पर बहुत ही ज़्यादा गरीबी है. इसीलिए कम पैसों में इतना जोख़िम वाला काम करवाया जाता है. ठेकेदार मजदूरों को झूठ बोलकर काम पर बुलाते हैं और फिर उन्हें गटर में उतार देते हैं, जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ मौत है.”
वहीं, संसद में पिछले साल दिए गए बयान में केंद्रीय सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्री रामदास अठावले ने बताया था कि वर्ष 2019 से लेकर वर्ष 2023 तक देशभर में मैनहोल में काम करने के दौरान मरने वाले मजदूरों की संख्या 377 थी.
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगाने के लिए समय-समय पर निर्देश दिए हैं, लेकिन जानकारों का कहना है कि प्रशासनिक लापरवाही और मजदूरों की मजबूरी के चलते ये सिलसिला अब भी जारी है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित