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मुंबई के व्यस्त बाज़ार में छह दशकों से चल रही रामजी धरोड़ की किराना दुकान बंद होने के कगार पर है. यह दुकान लगातार 75 साल से यहां मौजूद है.
धरोड़ ने अपने पिता के साथ इस दुकान पर तब आना शुरू किया था, जब वह सिर्फ दस साल के थे लेकिन आजकल वह ज़्यादातर खाली बैठकर ग्राहकों का इंतज़ार करते हैं. अब उन्होंने अपनी दुकान पर “स्टॉक क्लीयरेंस सेल” का बोर्ड लगा दिया है.
क़रीब 70 साल के हो चुके धरोड़ व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं, “कुछ साल पहले मुझे सांस लेने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलती थी लेकिन अब मेरे पास कोई नहीं आता है. सब ऑनलाइन खरीदारी कर रहे हैं, इसलिए मैंने शटर बंद करके रिटायर होने का फ़ैसला किया है.”
ज़ोमैटो, ब्लिंकइट और ज़ेप्टो जैसे ऐप्स 10 मिनट में ऑनलाइन डिलीवरी पहुंचा रहे हैं. इसके कारण शहरों की गलियों की सैकड़ों दुकाने बंद हो रही हैं.
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‘आधा हो गया कारोबार’
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चेन्नई दक्षिणी नगर निकाय ने पिछले पांच साल में शहर की 20 फ़ीसदी किराना दुकानों और 30 फ़ीसदी बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर के बंद होने का अनुमान जताया था. इसके साथ ही अलग-अलग प्रोडक्ट्स के डिस्ट्रीब्यूटर्स के एक समूह ने भी पिछले साल अक्तूबर में ऐसी दो लाख दुकानों के बंद होने का अनुमान लगाया था.
धरौद की दुकान के ठीक बगल में प्रोविजन स्टोर (खुदरा दुकान) चलाने वाले सुनील केनिया कहते हैं कि वह अभी भी इसलिए व्यापार कर रहे हैं क्योंकि उनके परिवार के पास अपनी दुकान है, किराए पर दुकान लेकर लोग अपना गुज़ारा नहीं कर पा रहे हैं.
केनिया ने बीबीसी को बताया, “कोविड लॉकडाउन के बाद ही इस कारोबार में गिरावट आनी शुरू हुई और पहले की तुलना में अब यह कारोबार आधा हो गया है.”
अब ज़्यादातर आय फेरीवाले और सड़क किनारे नाश्ता बेचने वाले थोक के ग्राहकों से आ रही है. उनका कहना है कि मोबाइल डिलीवरी की सुविधा के कारण खुदरा ग्राहक तकरीबन “गायब” ही हो गए हैं.
बाज़ार जाना बंद
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मुंबई स्थित ग्राफिक डिज़ाइनर मोनिशा साठे उन लाखों शहरी भारतीयों में से एक हैं, जिन्होंने ऑनलाइन डिलीवरी की सुविधा के कारण सप्ताह में कम से कम एक बार भी बाज़ार जाना बंद कर दिया है.
साठे कहती हैं, “घर पर किराने का सामान लाना बहुत बड़ी परेशानी थी.”
कभी-कभी, जब वह अपनी कार लेकर निकलती थीं, तो संकरी गलियों में घूमना और पार्किंग तलाशना एक चुनौती होती थी.
साठे कहती हैं कि उन्हें पंसारी और सब्ज़ी विक्रेताओं की ताज़ा चीजों की याद आती है लेकिन ऑनलाइन डिलीवरी ने जीवन को आसान बना दिया है. अब यही बेहतर लगता है.
प्राइसवॉटरहाउस कूपर्स (पीडब्ल्यूसी) के हाल ही में किए गए सर्वेक्षण में पता चला है कि भारत के बड़े शहरों में रहने वाले क़रीब 42 फीसदी लोग साठे की तरह ही सोचते हैं. वह अपनी ज़रूरतों को पूरा करने में ऑनलाइन डिलीवरी को प्राथमिकता देते हैं.
पीडब्ल्यूसी के मुताबिक़ खरीदारी के तरीकों में बदलाव के कारण 10 में से तीन खुदरा विक्रेताओं ने अपने व्यवसाय में गिरावट रिपोर्ट की है. इसमें आवश्यक वस्तुओं की बिक्री में 52 फीसदी की कमी आई है.
छोटे शहरों में ऑनलाइन डिलीवरी पड़ेगी महंगी
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ऑनलाइन डिलीवरी किस हद तक भारतीय बाज़ारों को खोखला कर रहा है?
टेक्नोपैक रिटेल एडवाइजरी के पार्टनर अंकुर बिसेन कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि किराना स्टोर, गलियों की दुकानों और बड़ी खुदरा दुकानों का कारोबार खतरे में है.
वे कहते हैं, “फिलहाल यह सिर्फ तीन-चार शहरों की कहानी है. इनकी पूरी बिक्री इन्हीं शहरों से होती है.”
बिजली की गति से हो रही ऑनलाइन डिलीवरी ने वैश्विक प्रवृत्ति को तोड़ दिया है. भारत में यह काफी हद तक सफल रही, क्योंकि यहां बड़ी संख्या में लोग शहरी क्षेत्रों में रह रहे हैं.
इन्हें कम किराये वाले “डार्क स्टोर्स” या छोटी दुकानों के माध्यम से सेवा प्रदान की जाती है. घनी आबादी वाले क्षेत्रों में यह आमजन के लिए नहीं खुली होती हैं. इनके माध्यम से सिर्फ डिलीवरी की जाती है. इससे अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी होती है.
बिसेन का कहना है कि मांग की अनिश्चितता और छोटे शहरों की छितराई हुई जनसंख्या के कारण वाणिज्य क्षेत्र के खिलाड़ियों के लिए महानगरों को छोड़ दें तो ऑनलाइन डिलीवरी छोटे शहरों में ज़्यादा फ़ायदेमंद नहीं है.
प्रभावित होगा खुदरा व्यापार
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इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि ऑनलाइन डिलीवरी लंबे समय में खुदरा व्यापार को प्रभावित करेगी.
बेन एंड कंपनी को उम्मीद है कि साल 2030 तक ऑनलाइन डिलीवरी में 40 प्रतिशत से अधिक की वार्षिक बढ़ोत्तरी होने जा रही है. यह बढ़ोतरी “भौगोलिक क्षेत्रों” में विस्तार के कारण होगी. इससे पारंपरिक खुदरा व्यापारी परेशान हैं.
व्यापारिक संगठन इसका विरोध करते हैं. अखिल भारतीय व्यापारी परिसंघ और अखिल भारतीय उपभोक्ता उत्पाद वितरक संघ, ख़ुद को भारत के 1 करोड़ 30 लाख खुदरा विक्रेताओं की आवाज़ कहता है. इसने ऑनलाइन डिलीवरी पर रोक लगाने के लिए सरकार से कई बार-बार अनुरोध किया है.
संगठनों का आरोप है कि ये कंपनियां अरबों डॉलर का उपयोग कर मनमाना मूल्य निर्धारण कर रही हैं और “भारी छूट” देकर बाज़ार में प्रतिस्पर्धा विरोधी काम कर रही हैं. इसके कारण पारंपरिक दुकानों का व्यापार संतुलन बिगड़ गया है.
बीबीसी ने कई छोटे खुदरा विक्रेताओं से बात की जिन्होंने इस तरह की चिंताएं साझा कीं. बिसेन ने भी इस बात पर सहमति जताई कि जिन क्लस्टरों में क्विक कॉमर्स कंपनियां काम करती हैं, वहां इस तरह के तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है.
बाज़ार के लोकतंत्रीकरण का दावा
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स्विगी, जेप्टो और ब्लिंकिट इस समय इस पूरे बाज़ार पर वर्चस्व रखते हैं, वह इन आरोपों पर बीबीसी के सवालों का जवाब देने के लिए तैयार नहीं हुए.
ऑनलाइन डिलीवरी करने वाली कंपनियों में से एक कंपनी के सूत्र ने बीबीसी को बताया कि छूट व्यापारी दे रहे थे न कि वो दे रहे हैं.
उनका यह भी कहना है, “बड़े व्यापारी बनाम छोटे व्यापारी” की कहानी के बीच ऑनलाइन डिलीवरी उन लोगों की समस्या का समाधान कर रही है, जिनके लिए बाज़ार जाना एक “खराब” अनुभव था.
वो कहते हैं, “आप उन महिलाओं और बुजुर्ग लोगों के बारे में भी सोचें जो गड्ढों और ट्रैफिक में परेशान नहीं होना चाहते हैं. आप उन छोटे ब्रांड के बारें भी सोचें जिन्हें इन दुकानों की शेल्फ़ में जगह नहीं मिलती थी. हमने बाज़ार का लोकतंत्रीकरण किया है.”
उपभोक्ताओं को देनी होगी दोनों सुविधा
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विश्लेषकों का कहना है कि विकास के चरणों, आय के स्तर और बुनियादी ढांचे के संदर्भ में भारत की व्यापक विविधता का अर्थ है कि अंत में सभी खुदरा मॉडल, छोटी दुकानें, संगठित बड़े खुदरा विक्रेता और ऑनलाइन डिलीवरी मंच एक साथ रहेंगे.
बिसेन कहते हैं कि बाज़ार ऐसा नहीं है कि “विजेता सब कुछ ले लेता है.”
वो ई-कॉमर्स का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि यह साल 2010 में भारत आया था और ये खुदरा विक्रेताओं के लिए ख़तरे की घंटी थी, लेकिन इतने वर्षों के बाद भी भारत में केवल 4 प्रतिशत खरीदारी ही ऑनलाइन होती है.
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विश्लेषकों का कहना है कि ऑनलाइन डिलीवरी के कारण हो रही हलचल खुदरा विक्रेताओं के लिए एक चेतावनी है कि वह अपनी मार्केटिंग में सुधार करे. वह उपभोक्ताओं को ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों का उपयोग करने की सुविधा उपलब्ध कराएं.
एक बटन पर क्लिक करके सामान मंगाने के साथ प्रतिस्पर्धा का अर्थ यह है कि अब गलियों की दुकानों के लिए व्यापार करना सामान्य नहीं रह गया है. ये दशकों से अस्तित्व में तो हैं, लेकिन इनमें कोई नया प्रयोग नहीं, या बहुत कम किया गया है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित