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वैज्ञानिकों के एक समूह के मुताबिक़, पिछले 20 सालों में पृथ्वी के आंतरिक कोर का आकार बदल सकता है.
इस शोध का नेतृत्व करने वाले प्रोफे़सर जॉन विडाले के मुताबिक़, आंतरिक कोर को आमतौर पर गेंद के आकार का माना जाता है,.
लेकिन वास्तव में इसमें कुछ जगहों पर 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई तक बदलाव हो सकते हैं.
पृथ्वी का कोर हमारे ग्रह का ऊर्जा स्रोत है, क्योंकि यह एक चुंबकीय क्षेत्र बनाता है जो सूर्य की हानिकारक किरणों से जीवन की रक्षा करता है.
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आंतरिक कोर, तरल बाहरी कोर और बाकी ग्रह से अलग अपनी गति से घूमता है. अगर यह घूमना बंद हो जाए, तो पृथ्वी निष्क्रिय हो सकती है और मंगल ग्रह की तरह इसमें भी जीवन खत्म हो सकता है. मंगल ग्रह ने अरबों साल पहले अपना चुंबकीय क्षेत्र खो दिया था.
आकार में यह बदलाव संभवतः वहां हो सकता है, जहां ठोस आंतरिक कोर का किनारा बाहरी कोर के अत्यधिक गर्म तरल धातु को छूता है.
रिसर्च से क्या पता चला है?
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यह रिसर्च विज्ञान पत्रिका नेचुरल जियोसाइंस में प्रकाशित हुई है.
वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि आंतरिक कोर पृथ्वी के घूर्णन की तुलना में धीमी गति से क्यों घूमने लगा और फिर साल 2010 में दोबारा तेज़ कैसे हो गया.
पृथ्वी का कोर किस तरह काम करता है, यह समझना आवश्यक है ताकि ग्रह की रक्षा करने वाले चुंबकीय क्षेत्र को समझा जा सके और यह भी समझा जा सके कि क्या वह कमजोर हो सकता है या रुक सकता है.
हमारे ग्रह के भीतर का हिस्सा अब भी एक गहरी पहेली बना हुआ है. आंतरिक कोर पृथ्वी की सतह से लगभग 4000 मील नीचे है और कई कोशिशों के बावजूद वैज्ञानिक वहां तक नहीं पहुंच पाए हैं.
इसके रहस्यों को समझने के लिए वैज्ञानिक भूकंप से बनने वाली तरंगों (शॉकवेव्स) का अध्ययन करते हैं, जो पूरे ग्रह में फैलती हैं.
इन तरंगों की गति और दिशा से यह पता चलता है कि वे किन-किन पदार्थों से गुजरी हैं. इससे आंतरिक कोर के बारे में जानकारी मिलती है और यह समझने में मदद मिलती है कि हमारे पैरों के नीचे क्या छिपा है.
इस नई रिसर्च में साल 1991 से साल 2023 के बीच एक ही स्थान पर बार-बार आने वाले भूकंपों से निकली भूकंपीय तरंगों के पैटर्न का अध्ययन किया गया है. इससे यह समझने में मदद मिली कि आंतरिक कोर समय के साथ कैसे बदल रहा है.
दक्षिण कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के पृथ्वी वैज्ञानिक, प्रोफेसर जॉन विडाले के मुताबिक़ साल 2010 के आसपास आंतरिक कोर की गति धीमी हो गई थी. अपनी इस रिसर्च की पुष्टि के लिए इसने और सबूत खोजे.
लेकिन उनकी टीम को आंतरिक कोर का आकार बदलने के भी सबूत मिले. यह बदलाव आंतरिक और बाहरी कोर की सीमा पर हो रहा है, जहां आंतरिक कोर पिघलने के करीब है.
बाहरी कोर के तरल प्रवाह और असमान गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की वजह से आंतरिक कोर के आकार में बदलाव हो सकते है.
वैज्ञानिकों का क्या कहना है?
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ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हर्वोजे टकालसिक, जो इस अध्ययन में शामिल नहीं थे. उनका कहना है कि यह रिसर्च एक दिलचस्प अवधारणा पेश करती है, जिसे और अधिक जांचने की जरूरत है.
उन्होंने यह भी कहा कि इस रिसर्च से वैज्ञानिकों को आंतरिक कोर की चिपचिपाहट जैसी महत्वपूर्ण भौतिक विशेषताओं का बेहतर अनुमान लगाने में मदद मिल सकती है, जो आधुनिक विज्ञान में सबसे कम समझी गई चीजों में से एक है.
समय के साथ बाहरी तरल कोर जमकर आंतिरक ठोस कोर में बदल रहा है, लेकिन इसे पूरी तरह से ठोस बनने में अरबों साल लगेंगे.
जब ऐसा होगा, तो यह लगभग निश्चित रूप से पृथ्वी पर जीवन का अंत कर देगा, लेकिन यह संभावना है कि तब तक सूर्य पृथ्वी को निगल चुका होगा.
प्रोफेसर विडाले का यह अध्ययन उन शोधों का हिस्सा है, जिनमें वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि पृथ्वी के कोर में क्या बदलाव हो रहे हैं.
प्रोफेसर विडाले का कहना है, “विज्ञान में हम चीजों की जांच तब तक करते हैं जब तक हम उन्हें पूरी तरह से समझ न लें.”
उन्होंने आगे कहा, “संभावना है कि यह खोज हमारी रोजमर्रा की जिंदगी पर कोई असर नहीं डालेगी, लेकिन हम सच में यह समझना चाहते हैं कि पृथ्वी के केंद्र में क्या हो रहा है.”
यह संभव है कि आंतरिक कोर में हो रहे यह बदलाव पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में हो रहे बदलावों से जुड़े हुए हैं.
उन्होंने कहा, “पिछले कुछ दशकों में पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में अचानक झटके देखे गए हैं और हम यह जानना चाहते हैं कि क्या यह उसी से जुड़ा हुआ है, जो हम आंतरिक कोर की सीमा पर देख रहे हैं.”
हालांकि प्रोफेसर विडाले ने इस खोज को जरूरत से ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने से बचने की सलाह दी, खासकर इस अवधारणा से कि आंतरिक कोर जल्द ही घूमना बंद कर सकता है.
उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि अभी भी कई अनिश्चिताएं बनी हुई हैं.
उन्होंने कहा, “हम 100 प्रतिशत निश्चित नहीं हैं कि हम बदलावों को सही तरीके से बता पा रहे हैं.”
उन्होंने कहा, ”विज्ञान हमेशा नए तथ्यों के आधार पर बदलता रहता है और जैसे कई अन्य वैज्ञानिक भी. मैं भी पहले गलत साबित हो चुका हूं.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित