महाराष्ट्र चुनाव की घोषणा से कुछ महीने पहले मुझे राज्य रानी एक्सप्रेस के जनरल कोच में यात्रा करने का मौका मिला था.
यह ट्रेन मुंबई को मराठवाड़ा से जोड़ती है, जो कि महाराष्ट्र का पिछड़ा इलाक़ा माना जाता है.
इसी कोच में महिलाओं के लिए एक छोटा सा हिस्सा आरक्षित है, जिसमें 12 सीटें दी गई हैं. मगर, यहां क़रीब 50 महिलाएं बैठी थीं.
ये सभी महिलाएं या तो अकेले या फिर अपनी दोस्त के साथ अपने-अपने शहर जा रही थीं. वे सभी महिलाएं गरीब और वंचित समुदाय से थीं.
लेकिन, वे अपने 15-20 घंटे इस छोटी जगह में बिताने के लिए तैयार थीं, क्योंकि उन्हें “मुख्यमंत्री लाडली बहन योजना” के लिए अपने दस्तावेज़ जमा करने थे.
योजना का कितना असर पड़ा?
चुनाव से ठीक पहले, महाराष्ट्र के महायुति गठबंधन की सरकार ने महिलाओं को इस योजना के ज़रिए हर महीने 1500 रुपये देने की घोषणा की थी. ये महिलाएं इसी योजना का फ़ायदा उठाने की उम्मीद में थीं.
कुछ महिलाओं को इस योजना से मिलने वाले पैसे से अपने बच्चे की स्कूल फीस भरनी थी, तो कुछ को दवाइयां ख़रीदनी थी. वहीं कुछ अपने लोन की किश्तें चुकाना चाहती थीं.
उस समय किसी को भी ऐसी उम्मीद नहीं थी कि इस योजना का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों पर कितना बड़ा असर पड़ेगा.
लेकिन, आज इस बात का प्रमाण है कि इसकी बदौलत महायुति गठबंधन ने 230 सीटों के साथ चुनाव में शानदार जीत दर्ज की है.
बीजेपी का वोट शेयर कैसे बढ़ा?
उपमुख्यमंत्री अजीत पवार का कहना है कि यह योजना विधानसभा चुनाव में गेमचेंजर साबित हुई.
कई एक्सपर्ट्स और विश्लेषकों का कहना है कि लाडली बहन और दूसरी योजनाओं ने बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की चुनाव जीतने में मदद की.
2024 के विधानसभा चुनाव में 2019 विधानसभा चुनाव के मुकाबले महिला मतदाताओं की संख्या में लगभग 6 फ़ीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है.
ऐसा माना जा रहा है कि इन महिलाओं ने एनडीए को वोट दिया.
कुमार केतकर एक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक और पूर्व सांसद हैं.
केतकर ने बीबीसी मराठी से कहा, “कई सीटों पर एनडीए के उम्मीदवारों ने 6-7 हजार वोटों से जीत हासिल की है.”
“वहीं अगर आप करीब से देखें तो लगभग सभी सीटों पर महिला मतदाताओं की संख्या में भी 5-6 हजार की बढ़ोतरी हुई है. इन महिलाओं ने ही बीजेपी और उसके गठबंधन की जीत में अहम भूमिका निभाई है.”
क्या कहते हैं जानकार?
इससे यह सवाल उठता है कि क्या अब महिलाओं का एक अलग वोट बैंक बन गया है?
क्या अब महिलाएं उस सरकार को वोट देती हैं, जो उनके हित में काम करती है?
क्या वोटिंग, जो पहले जाति और धर्म से प्रभावित होती थी, वह अब महिला केंद्रित होती जा रही है?
अदिति नारायण पासवान दिल्ली यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.
वो इस बारे में कहती हैं, “हां यह बिल्कुल ठीक है कि वोटिंग पैटर्न अब जेंडर के आधार पर शिफ्ट हो गया है.”
“हम महाराष्ट्र चुनाव में यह देख सकते हैं कि महिलाओं ने जाति और धर्म की राजनीति को पीछे छोड़कर उन पार्टियों या उम्मीदवारों को वोट दिया, जो उन्हें सीधे तौर पर फ़ायदा पहुंचा रहे थे.”
वह कहती हैं कि पिछले कुछ सालों में राजनीतिक पार्टियों ने महिलाओं पर ज़्यादा ध्यान दिया है, जो कि 10 साल पहले नहीं हुआ करता था.
अदिति कहती हैं, “जब आप महिलाओं को कुछ सुविधाएं देते हैं, तो वे घर से निकलकर वोट डालने आती हैं. पहले महिलाओं को उनके पति बताते थे कि उन्हें किसे वोट करना है.”
“हालांकि अब महिलाएं चुनावी राजनीति में सीधे तौर पर हिस्सा ले रही हैं. अब वे राजनीति में रुचि ले रही हैं. वे अब राजनीतिक दलों की बातों को ध्यान से सुन रही हैं और उनके द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं का आंकलन भी कर रही है.”
“यह कोई नई बात नहीं है. 2019 के चुनाव में भी उज्ज्वला योजना ने हज़ारों महिलाओं की मदद की.”
योजना पर महिलाएं क्या सोचती हैं?
अगर महिला वोट बैंक बन जाता है, तो इसका भारत में चुनावी राजनीति के भविष्य पर क्या असर होगा?
प्रोफ़ेसर अदिति पासवान बताती हैं, “कुछ लोग महिलाओं को वोट देने में मदद करने वाली योजनाओं की आलोचना करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ये कार्यक्रम महिलाओं को केवल वोट बैंक बनाता है. इससे उन्हें कभी भी समान प्रतिनिधित्व या समान अधिकार नहीं मिलते.”
“हालांकि जब आप ज़मीनी स्तर पर जाकर गरीब महिलाओं से बात करते हैं, तो वे इन योजनाओं से मिलने वाली मदद से खुश होती हैं.”
“उनका संघर्ष खुद को ज़िंदा रखना है. राजनीतिक दलों से मिलने वाला पैसा या दूसरी चीज़ें उनके आत्मविश्वास को बढ़ाती हैं और परिवार में फ़ैसला लेने में उनकी आवाज़ को मजबूत करती हैं. उनके लिए अभी यही बात सबसे ज़रूरी है.”
बल्कि, ये योजनाएं महिलाओं को चुनावी राजनीति में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करती हैं. वो मानती हैं कि इससे उनको भी प्रतिनिधित्व मिलता है.
विभूति पटेल मुंबई में एसएनडीटी वूमेंस यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक्स की पूर्व प्रमुख हैं. वह भी इस बात से सहमत हैं.
विभूति कहती हैं, “आईएलओ और कई अन्य संगठनों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि यात्रा में छूट देने और आर्थिक मदद देने से महिलाओं को काफी सहयोग मिलता है.”
“महिलाओं को मिलने वाला पैसा शराब और सिगरेट पर ख़र्च नहीं होता. बल्कि, जब महिलाओं को पैसे मिलते हैं, तो वे इसका इस्तेमाल परिवार, खाने और बच्चों की पढ़ाई में करती हैं.”
योजना का एक पहलू ये भी है
सभी महिलाओं को लगता है कि उसके पास कुछ पैसे होने चाहिए. उसको किसी से पैसे मांगने या अपने पति के सामने सफाई देने की ज़रूरत नहीं पड़ना चाहिए.
साधनाबाई ऐसी ही एक महिला थीं, जिनसे मेरी मुलाकात ट्रेन के जनरल डिब्बे में हुई थी.
उनके पति ने उन्हें छोड़कर दूसरी महिला से शादी कर ली थी. उनकी 18 साल की बेटी ने हाल ही में एक बच्चे को जन्म दिया था.
वह नौकरानी का काम करके जो पैसे कमाती थी, वे उनके लिए काफी नहीं थे.
इसलिए, अपने दामाद पर निर्भर रहने के बजाय वह इस उम्मीद में थी कि उनको लाड़की बहिन योजना के पैसे मिल जाए. इसलिए, वह ट्रेन में खड़े होकर 15 घंटे का सफर करने को तैयार थीं.
अर्थशास्त्री अभय तिलक ऐसी योजनाओं का आंकलन करते हुए कहते हैं, “महिलाओं की एक बड़ी संख्या ऐसी है, जिसके पास पैसे कमाने का कोई ज़रिया नहीं है.”
“परिवार में उनके साथ कभी भी अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था. लेकिन ऐसी योजनाओं से इन महिलाओं को कुछ पैसे मिल रहे हैं और उनके परिवारों में उनकी स्थिति सुधर रही है.”
हालांकि, उन्हें एक चिंता है.
अभय कहते हैं, “व्यक्तिगत स्तर पर इस योजना से लोग तो खुश हैं. लेकिन, माइक्रो लेवल पर लाड़की बहिन जैसी योजना का महंगाई पर असर पड़ेगा. और मैं यह सोचता रहता हूं कि आर्थिक तौर पर यह टिकाऊ नहीं रहने वाला है.”
कई एक्सपर्ट्स का कहना है कि इन योजनाओं से किसी राजनीतिक पार्टी को लंबे समय तक सत्ता में बने रहने में मदद नहीं मिल सकती.
मतदाता के मन में क्या?
नवेंदु पटना के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने बिहार की राजनीति पर बहुत बारीकी से काम किया है.
बिहार में नीतीश कुमार सरकार ने महिलाओं के लिए कई तरह की योजनाएं लागू की हैं. इससे मिले नतीजों को नवेंदु ने देखा है.
लेकिन, योजनाओं से बनने वाले वोट बैंक के बारे में बात करते हुए वह कहते हैं, “जो पार्टी या उम्मीदवार सबसे ज़्यादा ऑफर करता है, और लोग उसको पसंद करते हैं तो उसको सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं.”
“लेकिन, अगर ऐसा वोट बैंक बन भी जाता है, तो यह स्थिर नहीं होगा. क्योंकि, लोगों का वोट दूसरी जगह पर शिफ्ट होता रहेगा.”
लेकिन, अब लोग विचारधारा की जगह इस आधार पर वोट कर रहे हैं कि किस राजनेता या राजनीतिक दल से उन्हें व्यक्तिगत तौर पर क्या फायदा मिल रहा है.
ऐसा केवल महिलाओं के साथ ही नहीं, बल्कि सभी के साथ हो रहा है.
बीबीसी मराठी से बात करते हुए कुमार केतकर कहते हैं, “इन दिनों एक चलन तेज़ी से बढ़ रहा है, जो व्यक्ति केंद्रित है. मतलब यह कि लोग अब केवल नागरिक या मतदाता नहीं रह गए हैं.”
“अब वह एक व्यक्ति या स्वतंत्र उपभोक्ता बन चुके हैं. ऐसे में ज़रूरी है कि आप उनसे जुड़ा जो भी फ़ैसला लें, तो उनकी ज़रूरतों को ध्यान में रखें.”
इस तरह के वादे और कल्याणकारी योजनाएं महिलाओं के मामले में उनकी व्यक्तिगत चुनौतियों को सामने लाती हैं.
हालांकि, एक पहलू यह भी है कि अगर महिलाओं को अलग-अलग सरकारों द्वारा वित्तीय मदद दे दी जाती है, तो उनके सामाजिक न्याय और समानता का क्या होगा? साथ ही उनकी राजनीतिक भागीदारी का सवाल भी हमारे सामने होगा.
डॉ. गोपाल गुरु दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान विभाग के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर और वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं.
वह कहते हैं, “कल्याणकारी राज्य वह होता है, जहां सरकार राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक समानता लाने के लिए कदम उठाती है.”
“लेकिन, हमें बिना किसी कारण लोगों को पैसा देने के बारे में सोचना होगा. जब सरकार कोई वित्तीय मदद देती है, तो उसके पीछे कोई उचित कारण होना चाहिए.”
“सरकार किसी व्यक्ति को पैसा क्यों दे रही है, इस पर विचार करने की ज़रूरत है. श्रमिक के आत्मसम्मान के बारे में भी सोचा जाना चाहिए.”
“पैसा देने की जगह सरकार को लोगों के आर्थिक हालात को बेहतर बनाने की दिशा में काम करना चाहिए. मनरेगा इसका एक अच्छा उदाहरण है.”
महिला मतदाताओं को लुभाने की पिछली कोशिशें
मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव साल 2023 में हुए थे. वहां भी ‘लाडली बहन’ के नाम से ऐसी ही योजना की शुरुआत की गई.
इस योजना के तहत सरकार द्वारा 23 से 60 साल की आयु वाली गरीब महिलाओं को 1000 रुपये प्रति महीने देने की घोषणा की गई.
सरकार ने दावा किया कि इस योजना से 1.25 करोड़ से ज़्यादा महिलाओं को फायदा पहुंचा. इसी योजना ने मध्य प्रदेश में बीजेपी को जीत दिलाने में मदद की.
लेकिन, बीजेपी ऐसी योजनाओं को लागू करने वाली अकेली पार्टी नहीं है.
इससे पहले भी कई राज्यों की सरकारों ने महिलाओं को अपनी तरफ खींचने और अपना वोट बैंक बनाने की कोशिश की है.
बिहार इसका एक उदाहरण है.
नीतीश कुमार ने 2007 के आसपास स्कूल की छात्राओं को साइकिल देने वाली योजना की शुरुआत की थी. जिसमें आठवीं पास करने वाली हर लड़की को साइकिल खरीदने के लिए पैसे दिए जाते थे.
उस समय नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री रहे संजय झा ने कहा था, “साल 2006 में मुख्यमंत्री साइकिल योजना को लागू किया गया, जिसके कारण बिहार में लड़कियों की शिक्षा में बड़ा बदलाव आया.”
“आंकड़ों से पता चलता है कि जहां साल 2007 में 10वीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या 1.87 लाख थी. वह साल 2022 में बढ़कर 8.37 लाख हो गई”.
कई लोगों का मानना है कि साइकिल ने बिहार में हज़ारों लड़कियों के लिए शिक्षा के दरवाज़ों को खोला है.
वरिष्ठ पत्रकार नवेंदु कहते हैं, “बिहार में आज भी शिक्षा के हालात अच्छे नहीं है. गांवों में कोई स्कूल या कॉलेज ही नहीं है. लेकिन, तब के हालात बहुत ही ज़्यादा ख़राब थे.”
“जब लड़कियों को सरकार की तरफ से साइकिल मिली, तो उन्हें सुरक्षित और तेज़ परिवहन का साधन मिला. इससे उन्हें सार्वजनिक परिवहन पर निर्भर नहीं रहना पड़ा”.
“लड़कियां अपने गांव से बाहर स्कूल, कॉलेज जाने लगी, जिससे एक सामाजिक बदलाव आया.”
“इस कारण लड़कियों की माताओं ने नीतीश कुमार को वोट दिया, क्योंकि वे अपनी बेटियों के लिए अच्छी ज़िंदगी चाहती थी”.
यह महिलाओं को सीधे फायदा पहुंचाने वाली सबसे पहली कोशिशों में से एक थी. जिसको लेकर नवेंदु कहते हैं कि यह कोशिश पूरी तरह से सफल हुई.
इन नेताओं के साथ महिला वोटर्स
महिलाओं के लिए नीतीश सरकार का दूसरा अहम फ़ैसला शराबबंदी का था.
नवेंदु कहते हैं, “शराबबंदी से कई चीज़ें जुड़ी हुई थी. घर के मर्द शराब पर सारा पैसा खर्च कर देते थे, जिसके कारण महिलाओं को गरीबी का सामना करना पड़ता था.”
“साथ ही महिलाओं को घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न जैसी समस्याओं को झेलना पड़ता था.”
“लेकिन, नीतीश सरकार के शराबबंदी वाले फ़ैसले ने महिलाओं के चेहरे पर मुस्कान लाने में मदद की, जिसके नतीजे आज भी दिख रहे हैं”.
इसलिए, नीतीश कुमार को वोट देने वाली महिलाएं उनके मुश्किल समय में उनके साथ बनी हुई हैं.
इसी कारण से नीतीश सरकार ने अपने शराबबंदी के फ़ैसले को बरकरार रखा है, भले ही उनकी राजनीतिक सहयोगी बीजेपी इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ हों.
तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता भी महिलाओं को मदद करने वाली योजनाओं के लिए जानी जाती थीं. इसी कारण से हज़ारों महिलाएं उनका समर्थन करती थी और जयललिता के लिए वोट बैंक बनी हुई थीं.
इसके अलावा, पिछले साल कांग्रेस ने तेलंगाना विधानसभा चुनाव में महिलाओं के लिए कई बड़े वादे किए थे. जिसमें से एक घोषणा सार्वजनिक परिवहन बसों में महिलाओं के लिए मुफ़्त यात्रा की थी.
वहीं, दूसरी योजनाओं में महिलाओं को 3000 रुपये प्रति माह देने के साथ-साथ रसोई गैस सिलेंडर पर सब्सिडी देने की घोषणा भी की गई थी.
जब कांग्रेस की सरकार बनी, तब मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने अपनी मुफ़्त बस यात्रा और रसोई गैस सिलेंडर पर 300 रुपये की छूट देने का वादा पूरा किया.
सीतालक्ष्मी हैदराबाद में रहती हैं. वह खुद मुफ़्त बस यात्रा योजना का फ़ायदा उठाती हैं.
वह कहती हैं, “मुझे अब पूरे राज्य में कही भी जाने के लिए पैसे की ज़रूरत नहीं पड़ती. मैं अपना आधार कार्ड दिखाकर कहीं भी जा सकती हूं. इसने हज़ारों महिलाओं को घर से बाहर निकलने का मौका दिया है.”
वह यह भी मानती हैं कि मुफ़्त सार्वजनिक परिवहन ने गरीब महिलाओं की बहुत मदद की है.
सीतालक्ष्मी कहती हैं, “अब अगर किसी महिला को उसके पति ने पीटा है और घर से बाहर निकाल दिया है, तो वह बिना किसी पैसे के अपनी मां के घर वापस जा सकती है.”
“इसलिए हमें ऐसी सरकार को वोट क्यों नहीं देना चाहिए, जो हमें ऐसी योजनाएं मुहैया कराती है.”
प्रोफ़ेसर अदिति पासवान को इसलिए लगता है कि आने वाले समय में महिला मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए राजनीतिक पार्टियां ऐसी और योजनाएं लाएंगी.
वह कहती हैं, “यह सच है कि ऐसी योजनाओं से सीधा फ़ायदा मिलेगा, साथ ही समाज में राजनीतिक समानता भी आएगी. इससे पुरुषों और महिलाओं का वोटिंग पैटर्न भी बदलेगा.”
“हालांकि, इन योजनाओं के कुछ नुकसान भी है, जो महिलाओं को वोट बैंक बना रहे हैं.”
“लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन योजनाओं से महिलाओं के हालात सुधरने शुरू हुए हैं. जैसे-जैसे महिला मतदाताओं का प्रतिशत बढ़ेगा, राजनीति में उनकी हिस्सेदारी भी बढ़ेगी.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.