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- Author, सीटू तिवारी
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
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बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की इस बार की इफ़्तार पार्टी ने राजनीतिक हलकों में खास ध्यान खींचा.
इमारत-ए-शरिया और छह अन्य मुस्लिम संगठनों ने इस आयोजन का बहिष्कार किया.
यह पहला मौक़ा था जब नीतीश कुमार की इफ़्तार दावत का इस तरह से विरोध हुआ. विरोध की वजह थी वक्फ़ संशोधन विधेयक 2024, जिस पर नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने समर्थन दिया है.
इस बहिष्कार ने नीतीश कुमार और बिहार के मुस्लिम समुदाय के रिश्तों की मौजूदा स्थिति को सार्वजनिक तौर पर सामने ला दिया है. वही संबंध जिसकी राजनीतिक ज़मीन उन्होंने बीते दो दशकों में तैयार की थी.
वादे तोड़ने के आरोप
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22 मार्च को इमारत-ए-शरिया ने बहिष्कार का पत्र जारी किया. ये संस्था सौ साल से भी ज़्यादा पुरानी है.
उसमें लिखा गया, “आपने धर्मनिरपेक्ष शासन और अल्पसंख्यकों के अधिकार की सुरक्षा के वादे पर सत्ता हासिल की थी लेकिन बीजेपी के साथ आपका गठबंधन और अतार्किक व असंवैधानिक वक्फ़ बिल को आपका समर्थन आपके उन्हीं वादों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है.”
हालांकि जेडीयू का दावा है कि बहिष्कार का असर नहीं पड़ा. पार्टी की प्रदेश प्रवक्ता अंजुम आरा कहती हैं, “साल 2010 से हम नेता (नीतीश) की इफ़्तार पार्टी में जा रहे हैं, लेकिन इतनी ज्यादा संख्या में लोग कभी नहीं आए थे. हमारे नेता ने कौम के लिए काम किया है और आम मुसलमान ये बात जानता है.”
लेकिन अंजुम की बात को आंकड़े और मुस्लिम समुदाय की मौजूदा राजनीतिक राय पूरी तरह से पुष्ट नहीं करती. इस बदलाव को समझने के लिए 2005 से शुरू हुई नीतीश कुमार की राजनीति और मुस्लिमों को लेकर लिए गए फ़ैसलों को देखना होगा.
‘हमें लगा था कि बीजेपी के साथ रहते हुए भी वो हमारे हैं’
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फरवरी 2005 में बिहार विधानसभा का जनादेश बंटा हुआ था. इसी दौर से नीतीश कुमार ने पसमांदा मुसलमानों पर गंभीरता से काम करना शुरू किया.
जेडीयू से दो बार राज्यसभा गए और ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के संस्थापक अली अनवर बीबीसी से बताते हैं, “जुलाई 2005 में हम लोगों ने पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में सम्मेलन किया था. इसमें लालू, नीतीश और रामविलास तीनों को बुलाया था.”
“इसमें लालू और नीतीश कुमार आए जबकि रामविलास जी ने कहा कि वो बीमार हैं. बाद में हमारा मुद्दा नीतीश जी ने संसद में उठाया. पांचजन्य ने इसे लेकर नीतीश कुमार की आलोचना की और हम लोगों को लगा कि नीतीश बीजेपी के साथ रहते हुए भी हमारे हैं.”
अली अनवर के मुताबिक़, इसके बाद पसमांदा मुस्लिमों की एक्जीक्यूटिव कमेटी ने नीतीश कुमार के पक्ष में आने की घोषणा की.
अली अनवर बताते हैं कि नीतीश कुमार ने उनके साथ मिलकर राज्य भर में कई बैठकें कीं.
इन फैसलों से भरोसा कायम करने की कोशिश
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नवंबर 2005 में सत्ता में आने के बाद नीतीश कुमार ने कब्रिस्तान की घेराबंदी, भागलपुर दंगे की न्यायिक जांच कमिटी का गठन, और 20 फ़ीसदी के अति पिछड़ा आरक्षण के फ़ैसले को लागू किया, जिसमें मुस्लिम समुदाय के तबके भी शामिल थे.
साथ ही नीतीश कुमार लगातार कहते रहे कि उनकी सरकार ‘थ्री सी’- यानी क्राइम, करप्शन और कम्युनलिज्म पर कभी समझौता नहीं करेगी.
जहां एक तरफ नीतीश कुमार प्रशासनिक स्तर पर ये कदम उठा रहे थे. वहीं प्रतिनिधित्व के स्तर पर भी उन्होंने मुसलमानों पर फ़ोकस किया.
2006 से 2014 के बीच नीतीश कुमार ने पांच मुस्लिम नेताओं को राज्यसभा भेजा. इनमें चार पसमांदा मुस्लिम थे: अली अनवर, एजाज अली, साबिर अली और कहकशां परवीन. वहीं गुलाम रसूल बलियावी ऊंची जाति के मुस्लिम थे.
टिप्पणी और राजनीतिक संकेत
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बीती फरवरी में जब प्रधानमंत्री नरेंद मोदी किसान सम्मान निधि की राशि जारी करने भागलपुर आए तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा, “पिछली सरकारें मुस्लिमों का वोट ले लेती थीं लेकिन हिंदू मुसलमान को लड़वाती रहती थीं.”
नीतीश कुमार ने ये बात उस भागलपुर में कही थी जहां 1989 में भयावह दंगे हुए थे.
भागलपुर दंगों के पीड़ितों के हिमायती बनना और आडवाणी का रथ रोकना, लालू प्रसाद यादव या आरजेडी की पॉलिटिक्स के अहम एलीमेंट थे, जिसके भरोसे उन्होंने डेढ़ दशक तक बिहार की सत्ता संभाली.
हाल के दिनों में बिहार विधानमंडल में भी नीतीश कुमार ये बात दोहराते रहते हैं.
सिर्फ नीतीश ही नहीं बल्कि इससे पहले राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह, गुलाम रसूल बलियावी सहित कई जेडीयू नेता कह चुके हैं, “हमें मुसलमानों का वोट नहीं मिलता लेकिन ‘हमारे नेता’ ने मुसलमानों के लिए काम किया है.”
धीरे-धीरे खिसकता गया वोट बैंक
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सीएसडीएस से जुड़े संजय कुमार की किताब ‘बिहार की चुनावी राजनीति: जाति-वर्ग का समीकरण’ में कहा गया है, “90 के दशक की शुरुआत में मुस्लिम समुदाय के मतों में आरजेडी के लिए स्थायित्व था. किन्तु धीरे-धीरे उसमें आरजेडी से दूरी बढ़ने लगी. क्योंकि तत्कालीन बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार उभर रहे थे और कालांतर में वो मुस्लिमों के एक बड़े भाग को अपने पाले में सफल लाने में दिख रहे थे.”
सीएसडीएस के एक अध्ययन के मुताबिक़ 2015 के विधानसभा चुनाव में जब जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस ने मिलकर गठबंधन किया, तो जेडीयू की ओर से लड़ी गई सीटों पर 78 फ़ीसदी और आरजेडी की सीटों पर 59 फ़ीसदी मुस्लिम मतदाताओं ने उनके पक्ष में मतदान किया.
कुल मिलाकर 69 फ़ीसदी मुसलमानों ने इस गठबंधन को वोट दिया. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में 89 फ़ीसदी मुस्लिम मतदाताओं ने आरजेडी गठबंधन के पक्ष में वोट दिया.
2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू के सभी 11 मुस्लिम उम्मीदवार हार गए. नीतीश कैबिनेट में जमा खान मंत्री हैं, लेकिन वो बीएसपी छोड़कर जेडीयू में आए हैं.
वरिष्ठ पत्रकार फ़ैजान अहमद कहते हैं, “मुस्लिम बिहार में टैक्टिकल वोटिंग करते हैं. वो उस उम्मीदवार को वोट करते हैं जो बीजेपी को सरकार में आने से रोके.”
नाराज़गी और प्रतिक्रियाएं
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अगस्त 2024 में जेडीयू सांसद और केंद्रीय मंत्री ललन सिंह ने संसद में कहा था, “वक्फ बोर्ड संशोधन बिल मुस्लिम विरोधी नहीं है.” लेकिन जेडीयू के इस स्टैंड को लेकर मुस्लिम समुदाय में नाराज़गी है.
सामाजिक कार्यकर्ता अफ़ज़ल हुसैन बीबीसी से कहते हैं, “पॉलिसी लेवल पर जेडीयू आरएसएस के एजेंडे पर मुहर लगा रही है. ये ठीक है कि सरकार ने सड़क बनाई, स्कूल बनाया. लेकिन सरकार को ये भी आश्वस्त करना होगा कि सड़क पर मुसलमान गाड़ी चलाएं ना कि उसकी लाशें जाएं. बाकी ये सब भी मुसलमानों पर एहसान नहीं है, ये हमारे आपके टैक्स से हो रहा है.”
किशनगंज के पत्रकार हसन जावेद कहते हैं, “काम के लिहाज़ से इस सरकार ने बहुत कुछ किया लेकिन वक्फ़ को लेकर मुसलमान बहुत नाराज़ है और चुनाव में नीतीश कुमार के लिए मुश्किलें बढ़ने वाली हैं.”
पटना के गांधी संग्रहालय से जुड़े आसिफ़ वसी कहते हैं, “धार्मिक मसलों पर सरकार को किसी तरह की दखलंदाज़ी से बचना चाहिए. यदि ऐसा करना भी है तो उस धार्मिक समूह से बातचीत की जानी चाहिए. जो सरकार नहीं कर रही है.”
हालांकि कई मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता इमारत-ए-शरिया के बहिष्कार को लेकर भी सवाल उठाते हैं.
मुस्लिम समाज में शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दों पर काम करने वाली इबराना कहती हैं, “इमारत-ए-शरिया का विरोध ठीक है. लेकिन ये विरोध सिर्फ दिखावा नहीं होना चाहिए बल्कि विरोध दर्ज करने की तैयारी भी ठीक से होनी चाहिए. हम सबने बायकॉट का पत्र अचानक ही देखा.”
मुस्लिम वोटों पर दावेदारी
बिहार में हाल ही में हुई जातिगत सर्वे के अनुसार राज्य में मुस्लिम आबादी लगभग 17 फ़ीसदी है.
इनमें से अनुमानित 73 फ़ीसदी पसमांदा यानी पिछड़े समुदाय से आते हैं.
इस संख्या के आधार पर मुस्लिम वोट बिहार की राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं.
ऐसे में यह देखना अहम होगा कि आने वाले चुनावों में मुस्लिम समुदाय का रुझान किस ओर जाता है क्योंकि आरजेडी, कांग्रेस और एआईएमआईएम, सभी इस वोट बैंक पर अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित