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पूर्वी भूमध्यसागरीय द्वीप साइप्रस दशकों से विभाजित रहा है. इसके उत्तर में तुर्क आबादी रहती है. वहीं ग्रीक आबादी दक्षिण और मध्य साइप्रस में बसी हुई है.
इन दोनों क्षेत्रों के बीच संयुक्त राष्ट्र शांति सुरक्षा बल तैनात है. दशकों से इन दोनों क्षेत्रों के बीच कई समझौता वार्ता हुईं हैं. लेकिन उनसे कोई हल नहीं निकल पाया.
हालांकि अब दोनों पक्षों की ओर से मिल रहे संकेत समझौते की उम्मीद को जन्म दे रहे हैं.
इसलिए इस सप्ताह दुनिया जहान में हम यही जानने की कोशिश करेंगे कि क्या साइप्रस दोबारा एक होने की ओर बढ़ रहा है?
साइप्रस की समस्या
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13वीं सदी के आख़िर से 1922 तक साइप्रस तुर्क ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा था. बाद में उस पर ब्रिटिश सेना का कब्ज़ा हो गया और साइप्रस ब्रिटिश शासन के अधीन हो गया.
ओस्लो स्थित प्रियो साइप्रस सेंटर के वरिष्ठ शोधकर्ता मेते हताय ग्रीक सिप्रिएट हैं.
वो कहते हैं, “सतही तौर पर ग्रीक और तुर्की सिप्रिएट लोगों के हावभाव एक जैसे हैं. भाषा एक है मगर लहजा अलग है.”
साइप्रस के विभाजन के बारे में उनका कहना है, “ग्रीक सिप्रिएट समुदाय के ब्रिटिश शासन से आज़ादी के लिए शुरू किए गए लंबे राष्ट्रवादी संघर्ष ने साइप्रस को विभाजित कर दिया.”
उनके मुताबिक, “उस समय तुर्क सिप्रिएट्स को डर था कि ब्रिटेन से आज़ादी के बाद ग्रीक सिप्रिएट द्वीप पर नियंत्रण कर लेंगे. साइप्रस के ग्रीक सिप्रिएट साइप्रस का ग्रीस के साथ विलय चाहते थे.”
“वहीं तुर्क सिप्रिएट देश को दो हिस्सों में विभाजित करना चाहते थे. यानि वो ग्रीक साइप्रस और तुर्क साइप्रस चाहते थे. एक तरह से दोनों समुदाय अपने मूल देशों में शामिल होना चाहते थे.”
इस वजह से दोनो क्षेत्रों के बीच तनाव बढ़ता गया. 1959 में कई समझौते हुए जिसमें तुर्क सिप्रिएट और ग्रीक सिप्रिएट के अलावा ब्रिटेन, ग्रीस और तुर्की के प्रतिनिधि शामिल हुए.
1960 में साइप्रस आज़ाद हो गया. देश के नए संविधान के मुताबिक सरकार में दोनो समुदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया.
मेते हताय कहते हैं, “यह व्यवस्था केवल तीन साल तक चल पाई. दोनों समुदायों के बीच दंगे शुरू हो गए. ग्रीक सिप्रिएट अल्पसंख्यक तुर्क सिप्रिएट समुदाय को दिए गए ज्यादा प्रतिनिधित्व से नाराज़ थे. उनका मानना था कि 18 फीसदी तुर्क सिप्रिएट उनके भविष्य के फ़ैसले को प्रभावित नहीं कर सकते.”
“ग्रीक सिप्रिएट नेताओं ने संविधान में परिवर्तन लाने की कोशिश की जिसके चलते संघर्ष शुरू हुआ और तुर्क सिप्रिएट सरकार से बाहर हो गए.”
मेते हताय बताते हैं, “तुर्क समुदाय पूरे द्वीप के सैनिक इलाकों में चला गया और उन्होंने वहां अपनी सरकार बना ली. इसे वो स्वायत्त तुर्की सिप्रिएट प्रशासन कहने लगे.”
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लेकिन 1974 में ग्रीस के समर्थन से सिप्रिएट नेशनल गार्ड ने द्वीप पर सैनिक कार्रवाई कर दी. कुछ ही दिनों के भीतर तुर्की ने जवाबी कार्रवाई करते हुए उत्तरी साइप्रस में अपनी सेना भेज दी और देश के एक तिहाई हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया.
एक साल के भीतर दोनों समुदाय के हज़ारों लोग विस्थापित हो गए.
मेते हताय के मुताबिक, डेढ़ लाख ग्रीक सिप्रिएट और साठ हज़ार तुर्क सिप्रिएट विस्थापित हुए. उत्तरी साइप्रस में तुर्क आबादी और दक्षिण में ग्रीक आबादी बस गई.
दोनों क्षेत्रों के बीच विभाजन करने वाली रेखा को अंतरराष्ट्रीय समुदाय ग्रीन लाइन या बफ़र ज़ोन कहता है. इसके एक तरफ ग्रीक सिप्रिएट सैन्य बल है और दूसरी तरफ़ तुर्क सिप्रिएट सैन्य बल है. इनके बीच में संघर्ष टालने के लिए वहां संयुक्त राष्ट्र शांति सुरक्षा बल तैनात है.
दोनों समुदाय के नेताओं ने 1977 में देश को एक करने के लिए समझौता वार्ताओं का ख़ाका तैयार करने की कोशिश की. लेकिन 1983 में तुर्क सिप्रिएट समुदाय ने संयुक्त राष्ट्र की वार्ताओं से किनारा कर लिया.
उन्होंने अपने क्षेत्र को टर्किश रिपब्लिक ऑफ नॉर्दर्न साइप्रस घोषित किया. इसे केवल तुर्की ने मान्यता दी.
मेते हताय कहते हैं, “पूरा साइप्रस यूरोपीय संघ का हिस्सा है. लेकिन यूरोपीय कानून उत्तरी साइप्रस में लागू नहीं हैं. उस क्षेत्र में वो यूरो नहीं बल्कि तुर्की लीरा इस्तेमाल करते हैं. तुर्की की अर्थव्यवस्था से लीरा प्रभावित होती है और इसका असर साइप्रस के इस हिस्से की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है.”
2017 मे संयुक्त राष्ट्र की पहल पर साइप्रस के एकीकरण के लिए वार्ताएं शुरू करने के प्रयास हुए मगर वो सफल नहीं रहे.
इससे पहले 2002 में संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफ़ी अन्नान के नाम पर एक शांति योजना तैयार की गयी थी.
मेते हताय कहते हैं, “अन्नान शांति प्रस्ताव में संघीय ढांचे का व्यापक ब्यौरा तैयार किया गया था और पब्लिक ओपिनियन पोल को भी इसमें जगह दी गई. जब पब्लिक ओपिनियन पोल हुआ तो 64.9 फीसदी तुर्क सिप्रिएट लोगों ने योजना के पक्ष मे वोट किया. लेकिन 75.8 फीसदी ग्रीक सिप्रिएट लोगों ने इस योजना को नामंजूर कर दिया.”
इस पेचिदा समस्या को साइप्रस समस्या कहा जाता हैं. मगर इस साल अक्तूबर में तुर्क सिप्रिएट नेतृत्व में बदलाव हुआ है.
मेते हताय बताते हैं, “हाल के चुनावों में एकीकरण समर्थक तुर्क सिप्रिएट नेता को 63 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं. इसी वजह से साइप्रस के एक होने की उम्मीद जग रही है.”
ख़तरे की घंटी
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राजनीतिक विश्लेषक लेफ़्टेरीस एडिलिनिस ग्रीस के नागरिक हैं और साइप्रस में रहते हैं.
उनका मानना है, फ़िलहाल ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि साइप्रस समस्या सुलझाने के लिए वार्ताएं शुरू हो सकती हैं.
वो कहते हैं, “नए तुर्क सिप्रिएट नेता तूफ़ेन एरहुर्मन ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान भी कहा था कि वो ग्रीक सिप्रिएट नेताओं के साथ देश के संघीय प्रशासनिक ढांचे के बारे में दोबारा वार्ता शुरू करना चाहते हैं.”
तो क्या दो अलग देशों की परिकल्पना जिसका समर्थन पिछले तुर्क सिप्रिएट नेता और तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन करते रहे हैं वो अब चर्चा का विषय नहीं है?
इस पर लेफ़्टेरीस एडिलिनिस कहते हैं, “बहुत कुछ राजनीतिक माहौल और अर्थव्यवस्था पर भी निर्भर करता है.”
“नए तुर्क सिप्रिएट नेता का रुख एक तरह से प्रतिकात्मक है क्योंकि उनके पास कार्यकारी अधिकार नहीं हैं. इसलिए देखना होगा कि सरकार के मंत्रियों का क्या रुख़ होगा.”
“व्यापारी और उद्योग समुदाय का भी इस मुद्दे पर काफ़ी प्रभाव है. तुर्क साइप्रिएट नेता जल्द ही तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन से अंकारा में मिलने वाले हैं. अनुमान है कि वो राष्ट्रपति अर्दोआन को यह समझाने की कोशिश करेंगे कि साइप्रस का लचीला संघीय ढांचा उत्तरी साइप्रस और तुर्की दोनों के लिए फ़ायदेमंद साबित होगा.”
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साइप्रस के राष्ट्रपति निकोस क्रिस्टाडोलिडेस 2023 में सत्ता में आये थे.
लेफ़्टेरीस एडिलिनिस कहते हैं, “वो राजनीतिक समानता पर आधारित संघीय ढांचे के पक्ष में हैं और कह चुके हैं कि वो तुर्क सिप्रिएट नेता और तुर्की के साथ बातचीत शुरू करना चाहते हैं. लेकिन फ़िलहाल उनका रुख़ साफ नहीं लग रहा है. जब दोनो नेता बातचीत के लिए साथ बैठेंगे तभी तस्वीर साफ़ होगी.”
लेफ़्टेरीस एडिलिनिस ने कहा, “दोनो नेता शर्तें रखेंगे. तुफ़ेन अरहुर्मन संघीय ढांचे की बहाली की बात तो कर चुके हैं. लेकिन वो चाहते हैं कि वार्ता तय समय सीमा के भीतर हों. और अगर इसके फ़ैसलों को ग्रीक सिप्रिएट आबादी नामंज़ूर कर दे तो भी साइप्रस को पहले की स्थिति मे वापिस नहीं लाया जाए.”
“तुर्क सिप्रिएट आबादी इस बात से नाराज़ है कि ग्रीक आबादी वाले हिस्से को सभी देश मान्यता दे चुके हैं मगर उत्तरी साइप्रस को नहीं.”
तूफ़ेन अरहुर्मन यह भी कह चुके हैं कि तुर्की जिस प्रकार सुरक्षा की गारंटी अब दे रहा है वैसी ही गारंटी भविष्य में भी देता रहे.
लेफ़्टेरीस एडिलिनिस के मुताबिक, “ग्रीक सिप्रिएट लोगों के लिए यह ख़तरे की घंटी है. वो वार्ता में भाग तो लेंगे लेकिन तुर्की द्वारा सुरक्षा की गारंटी दिए जाने को कभी स्वीकार नहीं करेंगे. 2017 की वार्ताओं के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने दोनों क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए जो प्रस्ताव पेश किया था वो सभी पक्षों को मंजूर था.”
“सुरक्षा की गारंटी का जिम्मा तुर्की को सौंपा जाएगा तो ग्रीक सिप्रिएट लोगों को संदेह होगा कि ऐसा होने से तुर्क सिप्रिएट मनमानी करने लगेंगे. दूसरी तरफ़ तुर्क सिप्रिएट भी ग्रीक सिप्रिएट समुदाय पर भरोसा नहीं करते. वार्ताएं जितना लंबा चलेंगी दोनों के बीच अविश्वास उतना ही बढ़ेगा.”
इस समस्या के अलावा साइप्रस कई जियोपॉलिटिकल राइवलरी की चुनौती से भी निपटने की कोशिश कर रहा है.
बड़ा राजनीतिक खेल
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डॉक्टर डोरोथी श्मिड पेरिस स्थित फ़्रेंच इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंटरनेशनल रिलेशन के मध्य-पूर्व प्रोग्राम की डायरेक्टर हैं.
वो कहती हैं, “साइप्रस की भौगोलिक स्थिति सामरिक दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण है. साइप्रस भूमध्यसागरीय क्षेत्र में सीरिया और लेबनान के पास है.”
“साइप्रस मिस्र के उत्तर में है और उन देशों के पास है जहां बड़ी राजनीतिक उथल-पुथल होती रही है. साइप्रस विभाजित भी है जिसके चलते उसका इस्तेमाल दूसरे देशों तक पहुंचने के लिए किया जा सकता है. ब्रिटेन सहित अन्य शक्तियां साइप्रस को इसी नजर से देखती हैं.”
साइप्रस में ब्रिटेन के दो सैनिक अड्डे हैं. डॉक्टर डोरोथी श्मिड कहती हैं, “यह सैनिक अड्डे नेटो के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं. वहां तुर्क सिप्रिएट की आबादी के चलते तुर्की का भी प्रभाव है. इस दृष्टि से साइप्रस बड़े राजनीतिक खेल का अहम हिस्सा है. दूसरी तरफ़ तुर्की और इसराइल के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है.”
“ग्रीक सिप्रिएट समुदाय का झुकाव इसराइल की ओर है. वो इसराइल से हथियार ख़रीद रहे हैं जिससे तुर्क नाराज़ हो गए हैं. तुर्की ग़ज़ा के मुद्दे पर इसराइल के ख़िलाफ़ है. साइप्रस में ग्रीक सिप्रिएट प्रशासन अगर इसराइल से हथियार ख़रीदता रहेगा तो इसराइल और तुर्की का संघर्ष साइप्रस की समस्या को बढ़ाएगा.”
समुद्र में प्राकृतिक गैस के भंडार भी इस राजनीतिक अस्थिरता में फंसे क्षेत्र में संघर्ष का कारण बन सकते हैं.
डॉक्टर डोरोथी श्मिड कहती हैं, “वहां प्राकृतिक गैस के दोहन के लिए ग्रीक सिप्रिएट समुदाय ने पश्चिमी निवेशकों के साथ मिल कर काम करने का फ़ैसला किया है. लेकिन तुर्क सिप्रिएट उत्तरी क्षेत्र के हितों को लेकर चिंतित हैं.”
“दरअसल, दोनों समुदायों को गैस को आपस में बांटने के लिए बातचीत के ज़रिए फ़ैसला करना चाहिए क्योंकि यह बातचीत उन्हें साथ ला सकती है. इसी दौरान ग्रीस, तुर्की के साथ अपने संबंध सामान्य बनाने की कोशिश कर रहा है.”
डॉक्टर डोरोथी श्मिड कहती हैं, “ग्रीस इसे सामरिक दृष्टिकोण से देख रहा है. वह साइप्रस को बोझ मानने लगा है. वह साइप्रस के मुद्दे पर तुर्की से संघर्ष बढ़ाना नहीं चाहता. वह सोचता है कि साइप्रस की समस्या ख़ुद ही हल हो जाए तो बेहतर होगा.”
क्या फिर से एक होने की संभावना?
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कैथलीन डोहोर्टी साइप्रस में 2015 से 2019 तक अमेरिका की राजदूत रही हैं. उनके कार्यकाल के दौरान ही 2017 में साइप्रस समस्या सुलझाने के लिए वार्ताएं शुरू हुईं मगर वो सफल नहीं हो पाईं.
उनका कहना है, “उस समय वार्ताओं का अंतिम चरण साइप्रस समस्या को सुलझाने का सबसे अच्छा मौका था. लेकिन अब वार्ता के दोबारा शुरू होने की उम्मीद नई संभावना को जन्म देती है.”
“समझौते के लिए समय ख़त्म होता जा रहा है क्योंकि साइप्रस में दोनों क्षेत्रों में आबादी का अनुपात बदल रहा है. ये दो समुदाय 51 साल से विभाजित हैं और उनके एकीकरण के लिए राजनीतिक और आर्थिक माहौल जल्द ही तैयार किया जाना ज़रूरी है.”
लेकिन जो मुद्दे 2017 में समझौते की राह में रुकावट बने वो अभी भी मौजूद हैं. तो इस गतिरोध को समाप्त करने का क्या रास्ता है?
कैथलीन डोहोर्टी के मुताबिक, “तीन प्रमुख मुद्दे हैं जिन पर सहमति बनानी पड़ेगी. पहला मुद्दा साइप्रस की सुरक्षा का है. सवाल है कि क्या वहां तुर्की, ग्रीस और संयुक्त राष्ट्र शांति सुरक्षा बल की सेनाएं तैनात रह सकती हैं?”
“दूसरा मुद्दा दोनों समुदायों में राजनीतिक विश्वास का है और तीसरा मुद्दा प्रशासनिक ढांचे का है.”
2017 में इन सभी मुद्दों पर सहमति बनती नज़र आई थी. अब सवाल यह है कि उन्हीं सिद्धांतों के आधार पर वार्ताएं होंगी या पूरी तरह नये सिरे से समस्या का हल तलाशा जाएगा. सवाल यह है कि अनौपचारिक वार्ताओं को औपचारिक स्वरूप देने के लिए क्या करना होगा?
कैथलीन डोहोर्टी के मुताबिक, “इसके लिए सबसे पहले दोनों समुदाय के नेताओं की पूरी प्रतिबद्धता की आवश्यकता है. दोनों समुदाय के लोगों को साथ लेकर चलना होगा. सुरक्षा की गारंटी देने वाले ग्रीस, तुर्की और ब्रिटेन का साथ आना भी जरूरी है.”
“वहीं यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों को भी इसका पूरा समर्थन करना होगा. यह वार्ताएं ग्रीक सिप्रिएट और तुर्क सिप्रिएट समुदाय के भविष्य को लेकर हैं तो इसका नेतृत्व भी दोनों समुदाय के नेताओं के हाथ में होना चाहिए.”
2026 जनवरी में यूरोपीय संघ की अध्यक्षता साइप्रस को मिलने वाली है. क्या इससे यूरोपीय संघ के साइप्रस में भूमिका निभाने पर असर पड़ेगा?
कैथलीन डोहोर्टी के मुताबिक, “यह पेचिदा मामला है क्योंकि साइप्रस को यहां दो भूमिकाएं एक साथ निभानी होंगी. एक तरफ़ जहां वह यूरोपीय संघ का अध्यक्ष होगा, वहीं दूसरी ओर वह ख़ुद इस विवाद का हिस्सा है जिसे देश के दोनों समुदायों की उम्मीदों का प्रतिनिधित्व करना है.”
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हालांकि नए तुर्क सिप्रिएट नेता के चुनाव ने एक उम्मीद को जन्म दिया है. लेकिन अगर वार्ताएं दोबारा विफल हो जाएं तो क्या यह मान लिया जाएगा कि साइप्रस का एकीकरण कभी नहीं हो सकता?
कैथलीन डोहोर्टी का मानना है, “साइप्रस की अधिकांश जनता एकीकरण को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है. साइप्रस का विभाजन 1974 में हुआ था और दो तिहाई मौजूदा आबादी उसके बाद पैदा हुई है. उनके लिए अविभाजित साइप्रस की कल्पना करना और उससे जुड़ी पहचान को समझना मुश्किल है.”
यूरोपीय संघ का सदस्य होने की वजह से ग्रीक सिप्रिएट समुदाय को काफ़ी फायदा होता है.
कैथलीन कहती हैं, “कई युवा ग्रीक सिप्रिएट ने मुझसे कहा कि उन्हें एकीकरण की कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती. ना ही उससे कोई आर्थिक लाभ नज़र आता है. तुर्क सिप्रिएट को इसमें ज़रूर फ़ायदा नज़र आता है. मगर उनकी आबादी छोटी है इसलिए वो इससे जुड़े फ़ैसलों में बड़ा प्रभाव नहीं डाल पाएंगे.”
तो अब लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर- क्या साइप्रस दोबारा एकीकरण की ओर बढ़ रहा है?
इस फ़ैसले तक पहुंचने के लिए औपचारिक वार्ताएं अभी काफ़ी दूर हैं और उन वार्ताओं का सकारात्मक परिणाम आने में भी काफ़ी समय है.
हालांकि अगर वार्ताएं एकीकरण तक ना भी पहुंचें तब भी हो सकता है इससे दोनों समुदायों के बीच अविश्वास की खाई को कम करने में मदद मिल सकती है.
एक सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि एक होने के बाद साइप्रस का प्रशासन कैसे चलाया जाएगा?
इसे लेकर असहमति बरकरार है. फ़िलहाल यह लंबी डगर की ओर उठाया गया एक छोटा कदम लगता है.
हमारे एक्सपर्ट लेफ़्टेरीस एडिलिनिस को इसकी संभावना कम लगती है. उनकी मुताबिक, “किसी प्रकार का समझौता हो सकता है क्योंकि सभी लोग समझौता चाहते हैं. मगर साइप्रस 1974 से पहले की तरह एकीकृत हो जाएगा और सत्ता में सभी समुदायों की साझेदारी हो पाएगी इसकी संभावना नहीं है.”
“एक लचीला प्रशासनिक संघीय ढांचा संभव है जिसमें प्रतिरक्षा और विदेश मंत्रालय का नियंत्रण केंद्र सरकार के पास हो और सभी पक्षों को कुछ स्वायत्तता मिले.”
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