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बांग्लादेश की तीन बार प्रधानमंत्री रह चुकीं ख़ालिदा ज़िया बांग्लादेश लौट चुकी हैं. इसके साथ ही देश की अंतरिम सरकार और ख़ास तौर पर उसके सलाहकार मोहम्मद यूनुस पर अब आम चुनाव करवाने का दबाव बढ़ने लगा है.
पिछले साल 8 अगस्त को छात्रों के प्रदर्शन और हिंसा के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था.
हसीना फिलहाल भारत में रह रही हैं.
वहीं ख़ालिदा ज़िया बीमारी का इलाज कराने लंदन गई हुई थीं, जहां से वो पिछले सप्ताह वापस अपने देश लौट गई हैं.
‘नेशनल सिटीजन पार्टी’ का उदय
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बांग्लादेश में राजनीतिक दलों की अगर बात की जाए तो प्रमुख रूप से ‘बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी’ और ‘अवामी लीग’ के बीच मुकाबला रहा है. लेकिन इन दोनों के अलावा जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश का भी देश की राजनीति में ख़ासा महत्वपूर्ण स्थान है.
छात्र आंदोलन के बाद देश में एक ‘नेशनल सिटीजन पार्टी’ का भी उदय हुआ जिसके संयोजक नाहिद इस्लाम हैं.
इन्हीं के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के ख़िलाफ़ पिछले साल जुलाई में प्रदर्शन हुए थे.
ढाका से प्रकाशित दैनिक ‘डेली स्टार’ से बातचीत के दौरान बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के महासचिव मिर्ज़ा फख़रुल इस्लाम आलमगीर ने कहा कि ख़ालिदा ज़िया के वापस वतन लौटने से “अब लोकतंत्र की राह आसान हो गयी है.”
अंतरिम सरकार का हनीमून ख़त्म
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शेख़ हसीना के देश छोड़कर जाने के बाद अंतरिम सरकार के सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने कहा था कि वो साल 2026 की शुरुआत में ही देश में चुनाव करवा लेंगे.
लेकिन उससे पहले वो चाहते हैं कि देश के संविधान में संशोधन किया जाए जिसको लेकर कई समितियां भी बनायी गई हैं.
उन्होंने टेलीविज़न के ज़रिये अपने देश को संबोधित करते हुए स्पष्ट किया था कि संविधान के अलावा देश में और भी सुधारों की ज़रूरत है.
इन सुधारों के बाद चुनाव का रास्ता प्रशस्त हो जाएगा.
लेकिन ‘डेली स्टार’ में ही प्रकाशित अपने लेख में अमेरिका में रहने वाले बांग्लादेश के चर्चित राजनीतिक विश्लेषक एहतेशाम-उल-हक़ कहते हैं कि अब तो “बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के लिए हनीमून का समय भी ख़त्म हो गया है.”
उनका कहना है, “लोकतंत्र पर विश्वास रखने वाले हर बांग्लादेश के नागरिक की ये प्राथमिकता होनी चाहिए कि देश में जल्द से जल्द आम चुनाव संपन्न हो और बांग्लादेश फिर से विश्व के लोकतांत्रिक देशों में शुमार किया जाने लगे. सुधार तो होते रहेंगे. “
“अगर जल्द चुनाव नहीं होंगे तो वो उसी तरह की बात होगी जो आरोप शेख़ हसीना पर लगे थे कि वो चुनावों के परिणाम से डरती हैं. इसलिए उनकी पार्टी पर चुनावी धांधली के भी आरोप लगे.”
वो लिखते हैं कि ‘ख़राब राजनीति’ की सिर्फ़ एक ही दवा है – ‘अच्छी राजनीति’. वो ये भी कहते हैं कि 15 सालों की जो “तानाशाही बांग्लादेश में रही है” उसका जवाब ही “निष्पक्ष चुनाव हैं.
बयान में क्या कहा गया?
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बीते हफ्ते बांग्लादेश के विभिन्न राजनीतिक दल और संगठनों ने अवामी लीग पर प्रतिबंध लगाने की मांग को लेकर विरोध-प्रदर्शन किया.
शनिवार को ढाका के शाहबाग़ में मोहम्मद यूनुस के घर के सामने विभिन संगठनों के प्रदर्शन के बाद बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने शेख़ हसीन की पार्टी अवामी लीग की सभी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया है.
अंतरिम सरकार के प्रेस विंग ने अपने बयान में कहा, “एडवाइज़री काउंसिल की मीटिंग में अवामी लीग की ऑनलाइन समेत सभी गतिविधियों को बैन करने का फै़सला लिया गया है. ये फै़सला तब तक लागू रहेगा जब तक बांग्लादेश अवामी लीग और उसके नेताओं के ख़िलाफ़ इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्यूनल एक्ट में मुक़दमा पूरा नहीं हो जाता.”
58 प्रतिशत लोग इसी साल चाह रहे हैं चुनाव
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अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन और रिसर्च की संस्था ‘इन्नोविज़न कंसल्टिंग’ ने हाल ही में बांग्लादेश में एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट को साझा किया.
इसमें बताया गया है, “सर्वेक्षण में भाग लेने वालों में 58 प्रतिशत लोगों का कहना था कि देश में आम चुनाव इसी साल होने चाहिए.”
ये सर्वेक्षण इस साल फरवरी और मार्च के बीच किया गया है जिसकी जानकारी हाल ही में संस्था के प्रबंध निदेशक रुबाइयात सरवर ने ढाका में आयोजित किये गए एक संवाददाता सम्मेलन में साझा किया.
उन्होंने कहा कि ये सर्वेक्षण देश के 64 जिलों में किया गया जिसमें हिस्सा लेने वाले 75 प्रतिशत लोगों की उम्र 45 वर्ष से कम थी.
लेकिन सर्वेक्षण में चौंका देने वाली बात ये सामने आई कि इतने हिंसक प्रदर्शनों और प्रतिबंध की मांग के बावजूद अवामी लीग की तरफ़ 14 प्रतिशत जबकि बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की तरफ़ 41.7 प्रतिशत लोगों का रुझान नज़र आया .
जमात-ए-इस्लामी के प्रति 31.6 प्रतिशत का रुझान
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‘इन्नोविज़न कंसल्टिंग’ के सर्वेक्षण में भाग लेने वाले लोगों में जमात-ए-इस्लामी के प्रति 31.6 प्रतिशत का रुझान देखा गया.
राजनीतिक विश्लेषक विद्या भूषण रावत कुछ दिनों पहले ही बांग्लादेश की यात्रा पर गए थे. बीबीसी से बात करते हुए उनका कहना था कि सबसे ज़्यादा चिंता की बात है जमात-ए-इस्लामी के प्रभाव का विस्तार.
वो कहते हैं, “बांग्लादेश में भले ही अवामी लीग पर गंभीर आरोप लगे हों, लेकिन उसने कट्टरपंथियों को पनपने नहीं दिया.”
वो कहते हैं, “अवामी लीग की सरकार के रहते हुए अल्पसंख्यक कभी ख़ुद को असुरक्षित महसूस नहीं करते थे. लेकिन अब अल्पसंख्यकों पर हमलों की वजह से उनमें असंतोष और असुरक्षा की भावना पनप रही है.”
बीबीसी से बात करते हुए उनका कहना था, “पिछली सरकार ने वाल्मीकि समाज को भी सफाई कर्मियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण सुनिश्चित करने का काम किया जिसका विरोध हुआ. “
“अल्पसंख्यक समुदाय भी घुलमिल कर समाज में रह रहे थे. लेकिन अब हालात बेहद नाज़ुक हैं. भले ही अंतरिम सरकार कुछ भी दावे कर रही हो.”
रावत का कहना है कि चुनाव करवाने से पहले ‘संविधान में बदलाव’ और कई और ‘सामाजिक सुधार’ की बात मोहम्मद यूनुस कर तो रहे हैं मगर वो ये भूल रहे हैं कि ये उनकी चुनी हुई सरकार नहीं बल्कि एक अंतरिम सरकार भर है जिसे सिर्फ़ चुनाव करवाने थे.
उन्होंने कहा, “संविधान में बदलाव और सुधार का काम चुनी हुई सरकार के द्वारा ही किया जाना चाहिए क्योंकि उसपर लोगों का विश्वास होता है. उसे लोग चुनते हैं. सुधार और संविधान में बदलाव के नाम पर चुनाव टलते जा रहे हैं जिसके ख़िलाफ़ भी एक दिन आक्रोश पनप उठेगा.”
“लोकतंत्र में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को ही ये अधिकार है कि वो कानून बनाए. ये काम कोई बाहर से अचानक आकर बिना चुनाव जीते और संसद का अनुमोदन लिए बगैर कर नहीं सकता.”
वैसे भी मोहम्मद यूनुस पर भी ग्रामीण बैंक को लेकर कई आरोप लगते रहे हैं.
ख़ालिदा की पार्टी ने पिछले चुनाव का किया था बहिष्कार
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ख़ालिदा ज़िया ने दो बार बतौर प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा किया था.
फिर तीसरे कार्यकाल में वो कुछ ही महीनों के लिए प्रधानमंत्री रह पाईं, जिस दौरान उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया गया था और उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे.
उन्हें इन आरोपों के लिए 17 साल की क़ैद की सज़ा सुनाई गयी थी.
इस साल जनवरी में बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया था.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित