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ग़ज़ा में दो साल के युद्ध का असर सिर्फ़ उस छोटे इलाके़ तक सीमित नहीं रहा है.
इस संघर्ष का दायरा लेबनान, सीरिया, ईरान और यमन तक फैल चुका है. विश्लेषक कहते हैं कि इस युद्ध ने न सिर्फ़ मध्य पूर्व की राजनीति बदली है, बल्कि दुनिया का इस क्षेत्र से रिश्ता भी नया रूप ले चुका है.
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन (यूसीएल) में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की एसोसिएट प्रोफे़सर डॉ. जूली नॉर्मन कहती हैं, “मुझे नहीं लगता कि हम इस बारे में कुछ भी बढ़ा-चढ़ाकर बता सकते हैं कि इन दो सालों के बाद यह क्षेत्र और दुनिया कितनी बदल जाएगी, इसका असर बहुत गहरा है.”
7 अक्तूबर 2023 को हमास के नेतृत्व में इसराइल पर हुआ हमला, इसराइल के इतिहास का सबसे घातक हमला था. इसमें लगभग 1,200 लोग मारे गए और 251 लोगों को बंधक बना लिया गया.
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थिंक-टैंक चैटम हाउस में मध्य पूर्व और उत्तर अफ़्रीका कार्यक्रम की डायरेक्टर डॉ. सनम वकील ने रॉयटर्स को बताया, “इस हमले ने उस धारणा को तोड़ दिया कि इसराइल की सुरक्षा को भेदा नहीं जा सकता है.”
दो साल की जंग का असर
इसराइल, जो ग़ज़ा की सीमाओं, तटरेखा और हवाई क्षेत्र पर नियंत्रण रखता है, ने ग़ज़ा में भारी सैन्य कार्रवाई शुरू की.
हमास के नियंत्रण वाले स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, दो साल में 68,000 से ज़्यादा फ़लस्तीनियों की मौत हुई है. संयुक्त राष्ट्र इन आंकड़ों को मानता है.
डॉ. नॉर्मन कहती हैं कि ग़ज़ा में हुई तबाही और वहां के लोगों को लगा सदमा “कल्पना से परे” है और इसका “असर पीढ़ियों तक रहेगा.” वहीं इसराइल पर हमास का हमला और बंधक बनाने की घटना ने “उस समाज को हमेशा के लिए बदल दिया” है.
वो कहती हैं कि 7 अक्तूबर के हमले से इस क्षेत्र में “डोमिनो अफ़ेक्ट” (जब भी कोई एक घटना किसी दूसरी घटना को प्रभावित करे) शुरू हो गया.
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जैसे ही इसराइल ने ग़ज़ा पर हवाई हमले शुरू किए, हमास से जुड़े सशस्त्र गुटों, लेबनान से हिज़्बुल्लाह और यमन से हूती, ने भी इसराइल पर हमले शुरू किए.
सीरिया और हमास सहित ये सभी गुट लंबे समय से ईरान समर्थित “एक्सिस ऑफ़ रेज़िस्टेंस” का हिस्सा रहे हैं.
तीन रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों के कार्यकाल में उनकी विदेश नीति का हिस्सा रहे अमेरिकी राजनीतिज्ञ एलियट अब्राम्स कहते हैं, “इसराइल इन सब गुटों के ख़तरे में रह रहा था और इन्हें रोकने की कोशिश कर रहा था, लेकिन 7 अक्तूबर के बाद उसने तय किया कि अब सिर्फ़ प्रतिरोध से काम नहीं चलेगा.”
“इसराइल ने पहले हमास, फिर हिज़्बुल्लाह और फिर ईरान पर हमला किया. यह उनकी सुरक्षा स्थिति के विश्लेषण में एक बड़ा बदलाव है.”
सितंबर 2024 में इसराइल ने लेबनान में हिज़्बुल्लाह के सदस्यों के हज़ारों पेजर्स और वॉकी-टॉकी में विस्फोट कराया.
इसके बाद उसने देश में बमबारी शुरू की और इसके बाद दक्षिण में ज़मीनी अभियान चलाया.
इसराइल के हवाई हमले में हिज़्बुल्लाह नेता हसन नसरल्लाह सहित उसके कई शीर्ष नेता मारे गए. साथ ही, उसके कई इन्फ़्रास्ट्रक्चर और हथियार नष्ट हो गए.
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दो महीने बाद, सीरिया में विद्रोहियों ने हिज़्बुल्लाह और ईरान के सहयोगी, देश के राष्ट्रपति बशर अल-असद के ख़िलाफ़ विद्रोह शुरू किया.
बशर अल-असद की 24 साल की सत्ता दो हफ़्तों में गिर गई.
डॉ. नॉर्मन के मुताबिक़, बशर-अल-असद शासन के पतन में क्षेत्र में हुए बदलाव और सीरिया में बने आंतरिक दबाव की भूमिका रही.
वह कहती हैं, “हिज़्बुल्लाह और ईरान के कमज़ोर होने के कारण, बशर-अल-असद की सरकार को सहारा नहीं मिला.”
इस दौरान इसराइल ने सीरिया के सैन्य ठिकानों पर हमले किए ताकि भविष्य में सीरियाई क्षेत्र से हमले की संभावना न बचे.
सीरिया के नए राष्ट्रपति और पूर्व में अल-क़ायदा से जुड़े इस्लामी लड़ाके अहमद अल-शरा ने कहा कि उनकी सरकार इसराइल से युद्ध नहीं चाहती और सीरिया की ज़मीन का इस्तेमाल किसी बाहरी हमले के लिए नहीं होने देगी.
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इसराइल और ईरान के बीच युद्ध का ख़तरा दशकों से मध्य पूर्व पर मंडरा रहा था. लेकिन हिज़्बुल्लाह के पास लॉन्ग रेंज मिसाइलों के साथ हथियारों के बड़े भंडार की मौजूदगी से ये ख़तरा टलता रहा.
एलियट अब्राम्स कहते हैं, “इसराइल और ईरान वर्षों से एक-दूसरे पर छद्म रूप से, अप्रत्यक्ष रूप से और गुप्त कार्रवाई के ज़रिए हमला करते रहे हैं, लेकिन दोनों में से किसी ने भी कभी एक-दूसरे पर सीधा हमला नहीं किया था.”
लेकिन अप्रैल 2024, अक्तूबर 2024 में दोनों देशों के बीच तनाव हवाई हमलों में बदल गया.
वहीं जून 2025 में इसराइल ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले किए, जिससे 12 दिन का युद्ध छिड़ गया.
अमेरिका ने भी इसमें हिस्सा लिया और ‘बंकर बस्टर’ बम गिराए. इसके बाद क़तर के साथ मिलकर इसराइल और ईरान के बीच युद्धविराम कराया.
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बड़े स्तर पर असर
एलियट अब्राम्स कहते हैं कि इन सभी घटनाओं से इसराइल पर हमला करने के लिए ईरान का प्रॉक्सी सिस्टम अब लगभग खत्म हो चुका है. उनके मुताबिक़ हमास, हिज़्बुल्लाह और ईरान, अब पहले से कहीं अधिक कमज़ोर हो गए हैं.
वह कहते हैं कि ये सब जिस तेज़ी से हुआ, वह पूरे क्षेत्र को हैरान करने वाला रहा.
इसका और व्यापक असर हुआ है. ईरान के एक और सहयोगी, रूस ने बशर-अल-असद की सत्ता के पतन के साथ इस क्षेत्र में एक अहम साथी और समर्थक खो दिया.
सीरिया में गृहयुद्ध के दौरान रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और सीरिया के मौजूदा राष्ट्रपति अहमद अल-शरा, एक-दूसरे के विरोधी थे. इस दौरान रूस ने बशर-अल-असद की मदद के लिए क्रूर सैन्य बल का इस्तेमाल किया था.
सीरिया में रूस के दो बड़े सैन्य अड्डे हैं, जिनसे उसे अफ़्रीका में अपने सैन्य अभियानों में मदद मिली है. शुरुआत में यह स्पष्ट नहीं था कि राष्ट्रपति अहमद अल-शरा रूसी सैन्य अड्डों की मंज़ूरी देंगे या नहीं.
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अक्तूबर 2025 में रूस राष्ट्रपति पुतिन के साथ एक बैठक के दौरान राष्ट्रपति शरा, जो रूसी समर्थन और निवेश चाहते हैं, ने कहा कि वह “सभी पुराने समझौतों का सम्मान करेंगे”. लेकिन दोनों देशों के बीच संबंध अब भी नाज़ुक बने हुए है.
विश्लेषकों के अनुसार, मध्य पूर्व में चीन का प्रभाव भी घटा है.
डॉ. नॉर्मन कहती हैं, “युद्ध से पहले चीन मध्य पूर्व में शांति और व्यापार मध्यस्थ के तौर पर उभर रहा था और उसने ईरान और सऊदी अरब के बीच राजनयिक संबंधों को बहाल करने के लिए एक समझौते की मध्यस्थता की थी. लेकिन ग़ज़ा युद्ध ने अमेरिका का ध्यान वापस मध्य पूर्व की ओर खींच लिया है और चीन ने काफ़ी हद तक पीछे हटने का फ़ैसला किया है.”
वहीं, तुर्की अब सीरिया की नई सरकार का क़रीबी सहयोगी बन रहा है. डॉ. नॉर्मन कहती हैं कि दशकों तक सीरिया.. ईरान और रूस के प्रभाव में था, लेकिन अब तुर्की की काफ़ी मज़बूत भूमिका होने की संभावना है.
‘एक अहम मोड़’
मिस्र और क़तर के साथ-साथ तुर्की ने भी ग़ज़ा में युद्धविराम कराने में अहम भूमिका निभाई.
क़तर, जहां हमास का राजनीतिक नेतृत्व है और अमेरिका का सबसे बड़ा सैन्य अड्डा है, मध्यस्थ की मुख्य भूमिका में था.
सितंबर 2025 में इसराइल ने क़तर की राजधानी दोहा में हमास नेताओं पर हवाई हमला किया, जिससे क़तर नाराज़ हो गया और ग़ज़ा में युद्धविराम में बाधा पहुंचने की आशंका बढ़ गई.
हालांकि, एलियट अब्राम्स का मानना है कि अमेरिका के सहयोगी क़तर पर हुआ ये हमला “युद्ध के अंत की दिशा में टर्निंग पॉइंट” साबित हुआ.
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उनके मुताबिक़, इसके बाद क़तर ने अमेरिका से सुरक्षा की गारंटी मांगी, जो कि ट्रंप ने दी.
एलियट अब्राम्स कहते हैं, “इसकी क़ीमत ये थी कि हमें इस युद्ध को ख़त्म करना होगा… इसलिए आपको हमास को सौंपना होगा.”
साथ ही, राष्ट्रपति ट्रंप ने इस युद्ध को ख़त्म करने के लिए इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू पर दबाव बढ़ा दिया. साथ ही, नेतन्याहू को क़तर से माफ़ी मांगने के लिए मजबूर किया.
डॉ. नॉर्मन कहती हैं, “क़तर, मिस्र और तुर्की ने हमास को बातचीत के लिए तैयार करने और ट्रंप के प्रस्ताव को गंभीरता से लेने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.”
उनका मानना है कि फ़्रांस, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों का फ़लस्तीन को मान्यता देने से भी असर पड़ा.
वह कहती हैं कि, हालांकि कुछ पर्यवेक्षक इस क़दम को पूरी तरह प्रतीकात्मक मानते हैं, लेकिन इस क़दम से क्षेत्र के अन्य देशों को हमास पर युद्धविराम के लिए दबाव डालने में “आसानी” हुई.
‘अलग-थलग’ पड़ा इसराइल
अक्तूबर में जो युद्धविराम समझौता हुआ, उसके पीछे ग़ज़ा में इसराइली सेना के अभियान और वहां की मानवीय स्थिति को लेकर कई देशों में बढ़ता जनाक्रोश भी था.
अगस्त में, संयुक्त राष्ट्र के समर्थन वाली एक संस्था ने अगस्त में कहा था कि ग़ज़ा में अकाल पड़ा है, जबकि इसराइल ने इसे “झूठ” बताया.
अगले महीने, सितंबर में संयुक्त राष्ट्र की एक जांच रिपोर्ट ने इसराइल पर ग़ज़ा में फ़लस्तीनियों के ख़िलाफ़ जनसंहार का आरोप लगाया, जिसे इसराइल ने “भ्रामक और ग़लत” बताया.
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डॉ. वकील कहती हैं, “यूरोप की जनता भले ही ग़ज़ा में इसराइल की सैन्य गतिविधियों को ‘नरसंहार’ न कहे, लेकिन वो इसकी खुले तौर पर आलोचना करने लगी है. यही भावना अमेरिका में भी फैल गई है.”
“कुल मिलाकर, इसराइल आज इस क्षेत्र में एक सैन्य प्रभुत्व वाले देश की तरह दिखता है.”
लेकिन, वह कहती हैं, “उसकी सैन्य गतिविधियों का एक नतीजा… इसराइल को अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर झेलना पड़ा है, इसराइल आज दशकों पहले से कहीं अधिक अलग-थलग है.”
संयुक्त राष्ट्र 1967 से फ़लस्तीन (जिसमें ग़ज़ा और वेस्ट बैंक शामिल हैं) को इसराइल-अधिकृत क्षेत्र मानता है.
अक्तूबर में ग़ज़ा युद्धविराम समझौते के बाद, तीनों विशेषज्ञों का कहना है कि बहुत कुछ अनिश्चित बना हुआ है, हमास के हथियार छोड़ने से लेकर ग़ज़ा के लिए धन और सुरक्षा बलों की व्यवस्था तक और क्या फ़लस्तीन की मान्यता का कोई भरोसेमंद रास्ता निकल पाएगा.
फिर भी, डॉ. नॉर्मन कहती हैं, “क्षेत्र पूरी तरह बदल चुका है और कुछ संबंधों में बड़े बदलाव आए हैं.”
उनके मुताबिक़ मध्य पूर्व पर नए सिरे से ध्यान दिया जा रहा है, जिसके बारे में वह कहती हैं, “उम्मीद है कि इससे इस क्षेत्र में अब तक देखे गए युद्ध और संघर्ष के बजाय, कुछ बेहतर करने के लिए नए सिरे से प्रतिबद्धता पैदा होगी.”
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