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त्वचा के रंग की वजह से भेदभाव को लेकर केरल की मुख्य सचिव सारदा मुरलीधरन के बयान ने उस समस्या की ओर ध्यान दिलाया है जो हमारे समाज में विभन्न स्तरों पर मौजूद है.
काले रंग के ख़िलाफ़ समाज में पूर्वाग्रह इस हद तक है कि माता-पिता अपने बच्चों की त्वचा को गोरा करने के लिए उन्हें स्किन एक्सपर्ट्स के पास ले जा रहे हैं.
वैवाहिक संबंध अब भी काफी हद तक त्वचा के रंग के आधार पर तय होते हैं और रोजगार की संभावनाएं भी चतुराई से गोरे लोगों के पक्ष में झुक जाती हैं.
जैसा कि मुरलीधरन ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा कि उनकी परफॉर्मेंस की तुलना उनके पूर्वाधिकारी से की गई, जो उनके पति हैं और उनकी स्किन का कलर अलग है.
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कहने का मतलब है कि त्वचा का रंग किसी के कामकाज यानी पेशेवर मूल्यांकन पर भी हावी रहता है.
केरल सोशियोलॉजिकल सोसाइटी के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर एनपी हाफ़िज़ मोहम्मद ने कहा, “केरल के बारे में कुछ भी स्पेशल नहीं है. लोग पढ़े लिखे हैं, विकास भी हुआ है, प्रगतिशील विचार भी आए हैं. लेकिन जो सामाजिक समस्या है वो पूरे देश में है.”
त्वचा के रंग के आधार पर भेदभाव कितना नुक़सानदेह
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रिलेशनशिप प्लेटफॉर्म एंडवीमेट की फाउंडर शालिनी सिंह ने कहा, “भारत में विवाह संबंधों के मामलों में डार्क स्किन (काले या सांवले रंग) वाले पुरुषों को पक्षपात का सामना करना पड़ता है, लेकिन महिलाओं के मामले में ये और भी ज्यादा है. अगर कोई पुरुष अपनी पार्टनर के रंग से खुश भी है तो समाज उनकी मां से सवाल करता है, ‘भाभीजी आप कैसे काले रंग की महिला के लिए मान गईं.’ मानो गोरी त्वचा का मतलब अच्छा दिखना होता है. मैं उम्मीद करती हूं कि हम समझ पाएं कि रिश्तों में खुशी के लिए जो बात मायने रखती है वो है व्यक्तित्व और कपल्स के बीच की कम्पैटिबिलिटी.”
दिल्ली में 19 से 26 साल की उम्र में रंग की वजह रिजेक्शन झेलने के बाद शालिनी सिंह ने ये प्लेटफॉर्म लॉन्च किया.
उन्होंने कहा, “मुझे जिन लड़कों से मिलवाया गया उनके माता-पिता का रंग मेरे से ज्यादा डार्क था, बावजूद इसके मुझे उनके बेटों के लिए अच्छा नहीं माना गया.”
इस वजह से करीब एक दशक उनका आत्म-सम्मान नष्ट होता रहा. जिसके बाद उन्होंने अपना आत्मविश्वास दोबारा हासिल करने के लिए संघर्ष किया और दूसरों को उस दर्द से बचाने के लिए एक प्लेटफॉर्म बनाया.
त्वचा विशेषज्ञ डॉक्टर डी.ए. सतीश ने बीबीसी हिंदी से कहा, “हर कोई गोरा दिखाना चाहता है. आप काले हो सकते हैं और अच्छा दिख सकते हैं. इसलिए हम कहते हैं कि काला रंग सुंदर है. हमें गोरा रंग पाने के इस राष्ट्रीय ऑब्सेशन से लड़ने के लिए एक बड़ा अभियान चलाने की ज़रूरत है.”
गोरे रंग को लेकर दीवानगी
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त्वचा के रंग को लेकर एक ऑब्सेशन बन गया है और माता-पिता अपने शिशुओं और छोटे बच्चों को शहरों के साथ-साथ जिला स्तर पर खुले स्किन क्लीनिक में ले जा रहे हैं.
केरल में पारंपरिक साड़ी इंडस्ट्री से जुड़ी दीपा अनीष ने कहा, “आपको हैरानी होगी कि लोग आठ साल की उम्र के बच्चों को ग्लूटाथियोन इंजेक्शन के लिए इन डर्मा क्लीनिकों में ले जा रहे हैं. मैंने माता-पिता को यह कहते सुना है कि जितनी जल्दी हो सके इन चीजों को सुलझा लेना बेहतर है. “
वो कहती हैं, ”मेरे बेटे ने अब त्वचा के रंग का नया नाम देना शुरू कर दिया है. वो मेरी स्किन को पीच और खुद की त्वचा के रंग को चॉकलेट कहता है. मैं त्वचा के रंग पर उससे बात करती हूं और कहती हूं कि तुम जैसे भी हो खूब़सूरत हो. इसका मतलब ये है इस तरह की बातचीत उसके स्कूली दोस्तों को बीच भी होती है.”
दीपा के मुताबिक यह समस्या बच्चे की छोटी उम्र से ही शुरू हो जाती है, जब दादा-दादी इस बात पर जोर देते हैं कि “बच्चे को समुद्र तट पर नहीं ले जाना चाहिए, क्योंकि इससे उसकी त्वचा काली हो जाएगी.”
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दादा-दादी और माता-पिता की बच्चों को धूप में ले जाने वाली चिंताओं पर अभिनेत्री खुशबू सुंदर का अलग मत है.
उन्होंने कहा, “मेरी मां यह सुनिश्चित करती थीं कि मैं दही के साथ हल्दी और शहद से अपनी त्वचा साफ करूं. यह टैन हटाने के लिए था न कि मुझे गोरा बनाने के लिए. ये इस बारे में है कि आप अपनी त्वचा को कितना स्वस्थ रखना चाहते हैं.”
लेकिन वो कहती हैं कि “गोरे रंग को लेकर लोगों में एक दीवानगी है. ये मोह खत्म होना चाहिए. इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि आपे गोरे हैं या आपका रंग गेहुआं या काला है. मेरे लिए तो यही मानना है कि आप अंदर से कितने सुंदर हैं. आपकी अंदर का सौंदर्य ही अहम चीज है. बाकी चीजें तो थोड़े दिनों के लिए है.”
दीपा सांवले या काले रंग की लड़कियों की दिक्कतों का ज़िक्र करते हुए कहती हैं, ”चूंकि हम टेक्सटाइल बिजनेस में हैं इसलिए हमारे पास काफी ऐसे पुरुष और महिलाएं आती हैं जिनकी शादी होने वाली होती है. कई बार कुछ महिलाएं आती हैं जिनका रंग थोड़ा दबा हुआ होता है. लेकिन उनके साथ आए माता-पिता या रिश्तेदार कपड़े लेते समय ये कहते हैं, इसे मत लो. इसमें तुम्हारा रंग और दबा-दबा लगेगा. लेकिन लड़की चुप हो जाती है जबकि हमें पता होता कि उसकी त्वचा के रंग में वो साड़ी खूब खिलेगी.”
शालिनी सिंह कहती हैं कि उनके प्लेटफॉर्म पर सांवले या काले रंग के लड़के को पसंद करने वाली लड़की को उसके माता-पिता ये कह कर हतोत्साहित करते हैं कि ”हे भगवान! तुम्हें उसमें क्या पसंद आ रहा है. वो इतना काला है. उसी तरह अगर कोई लड़का सांवले या काले रंग की लड़की पसंद करता है तो उसके परिवार वाले कहेंगे- काली है. इसका मतलब है उनके बच्चे भी काले होंगे.”
प्रोफ़ेसर मोहम्मद कहते हैं, ”ये हमारे समाज में जड़ जमाई हुई समस्याओं में से एक है. त्वचा की रंग जाति व्यवस्था की सीढ़ियों से भी जुड़ी हुई है. इसका लोगों की क्षमताओं से कोई लेना-देना नहीं है. ये पुरानी धारणाओं से तय होता है. अंग्रेजों के शासन में रहे भारत में ये धारणा मजबूत हुई कि गोरा रंग बेहतर है और काला रंग उससे कमतर.”
सिर्फ़ शहर में ही नहीं होता गोरे-काले का भेद
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सिर्फ़ शहर में लोगों के बीच गोरे-काले का भेद नहीं होता. ग्रामीण इलाकों में भी ये भेदभाव होता है और कई बार ये काफी निर्मम हो जाता है.
दीपेश ने 2019 में एक मलयालम फिल्म का निर्देशन किया था. नाम था- ‘कारुपु’. हिंदी में इसका अनुवाद ‘काला’ होता है.
एक सरकारी स्कूल ने दीपेश को एक फिल्म बनाने में छात्रों की मदद के लिए कहा था.
जब वो फिल्म के लिए केरल में यात्रा कर रहे थे ते उन्हें एक बच्चा गांव के तालाब में तैरता मिला.
जब उन्होंने पूछा कि स्कूल चल रहा है और वो इस समय तैर क्यों रहा है. इस पर उसका जवाब था कि वो एक आदिवासी है. वो स्कूल जाता था लेकिन बच्चे उसकी त्वचा के रंग की वजह से उसे दूर रखते थे.
दीपेश कहते हैं, ” ये सिर्फ उस बच्चे की समस्या नहीं थी. पूरे केरल में अपनी यात्रा के दौरान मैंने ये महसूस किया कि त्वचा के रंग से जुड़ी मानसिकता हमारे समाज में गहरी धंसी हुई है. भले ही हमारे अपने मूल्य हों लेकिन ये दिक्कत लोगों के दिमाग में बनी हुई है.”
उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, ”मैं देखता हूं कि आज की दुनिया में भी लोग कैसे इस तरह के पूर्वाग्रह से बंधे हुए हैं.”
उन्होंने कहा, ”ये फिल्म पैसा कमाने के लिए नहीं बनाई गई थी. इसके लिए मेरा त्वचा की रंग पर फिल्म बनाने का कोई इरादा नहीं था. लेकिन आज भी फिल्म के जरिये भी त्वचा के रंग से जुड़ा कोई विमर्श लोगों के सामने लाया जाता है तो लोगों को इस पर चर्चा करने में थोड़ा गुरेज होता है. ये फिल्म कोलकाता फिल्म फेस्टिवल समेत कई फिल्म समारोहों के लिए चुनी गई. लेकिन फिल्म फेस्टिवल के लिए इसका चयन नहीं हुआ.”
गोरेपन की क्रीम का असर
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बेंगलुरू में रहने वाले त्वचा रोग विशेषज्ञ डॉ. डीए सतीश कहते हैं, ” मेरे पास कई बार ऐसे माता-पिता आते हैं जिनकी गोद में उनके शिशु होते हैं. वो कहते हैं मेरा बच्चे का रंग काला है इसे गोरा बनाने के लिए कुछ कीजिए. भारत में हर कोई गोरा रंग पसंद करता है. त्वचा के रंग को लेकर यहां काफी पूर्वाग्रह है.”
डॉ. सतीश ने बीबीसी हिंदी से कहा, ”अब ज्यादा से ज्यादा माता-पिता त्वचा रोग विशेषज्ञों के क्लीनिक में इस आग्रह के साथ आते हैं कि उनके बच्चों को गोरा बना दें. लेकिन जब डॉक्टर इसके लिए मना कर देते हैं को दवा की दुकानों में बिकने वाली गोरेपन की क्रीम का इस्तेमाल करने लगते हैं.”
वो कहते हैं, ” इनमें से ज्यादातर क्रीम में स्टेरॉयड होता है. इस्तेमाल करने पर ये त्वचा के लिए स्थायी तौर पर नुक़सानदेह साबित होता है. इससे त्वचा की परत पतली होता है. पिगमेंट नष्ट हो जाते हैं तो त्वचा को स्थायी तौर पर नुक़सान होता है. जब क्रीम लगाना बंद हो जाता है तो ये बदलाव उभर कर आते हैं. चेहरों पर खुजली होती है और ये लाल हो जाती है. इसे टॉपिकल स्टेरॉयड डैमेज्ड फेस यानी टीएसडीएफ कहते हैं.”
वो कहते हैं त्वचा विशेषज्ञों का संगठन त्वचा को सफेद करने वाली क्रीमों के इस्तेमाल के बिल्कुल ख़िलाफ़ है. इसका उल्टा असर होता है. ऐसी क्रीम मरीज के मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालती है. इससे किशोर-किशोरियों में आत्म विश्वास की समस्या हो सकती है. वो एन्जाइटी या डिप्रेशन के शिकार हो सकते हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.